प्रभात रंजन दीन
सत्य गिरफ्त में है। सच्चाई को अपना सच साबित करने के लिए सबूत जुटाना है, सच्चाई को कठघरे में खड़े होना है, सच्चाई को झूठ की अदालत में फांसी पर लटक जाना है। पूरी व्यवस्था इसी की है। पूरा आयोजन इसी बात का है कि सच्चाई को दबोच लिया जाए और उसे बांध कर लटका दिया जाए। न रहे बांस, न बाजे बांसुरी। रहे ही न तो झंझट ही खत्म। फिर केवल झूठ ही झूठ रहे। झूठ ही झूठ लड़े और झूठ ही झूठ पर स्थापित हो जाए। सच्चाई के रास्ते पर चल रहे किसी भी व्यक्ति का बस एक सिरा पकड़़ लीजिए। मसलन उसने देर तक मफलर क्यों बांधे रखा, या वह खांसा क्यों, उसके पास कोई सूचना या संदेश क्यों और कैसे पहुंचा? बस उसकी सच्चाई झूठों की अदालत में इजलास पर चढ़ गई। मफलर बांधना झूठ को ढंकना है। खांसना सत्य को ठुकराना है। संदेश मिलना मिलीभगत है। बस अब वह सबूत तलाशे और सत्य साबित करे। दरअसल सत्य साबित कराना व्यवस्था का मकसद नहीं, व्यवस्था का मकसद है ऐसे व्यक्ति को तोड़ डालना, वह टूटे तो आत्मसमर्पण कर दे, और नहीं तो मर जाए। अरविंद केजरीवाल तो एक सांकेतिक नाम है। उसकी जगह कोई और नाम चुन लें, क्या फर्क पड़ता है। मसला यह है कि जिसने भी सच चुना, वह दुश्मन हुआ, भले ही वह अपना नाम, कोई गांधी या कोई यादव क्यों न चुन ले। अब तो नारा चलना चाहिए जो करने चलेगा, वो मरने चलेगा। जो सच बोलेगा, उसका 'राम नाम सत्य'। केजरीवाल-टीम कुछ करना चाहती थी तो देखा न उन्हें कैसे लोगों ने घेर लिया! सारे झूठे एक तरफ हो गए और घेरेबंदी बना ली। हालत ऐसी हो गई कि अब केजरीवाल और उनकी टीम ही यह सफाई दे कि वे सच कैसे हैं या वे सच क्यों हैं? किसी ने यह नहीं पूछा या यह नहीं बोला कि बात तो वे सही कह रहे हैं। कहने और करने का अंदाज अलग हो सकता है। और अलग होगा क्यों नहीं! अलग हैं तभी तो अलग से आग में कूद पड़े। अलग हैं तभी तो सारा संकट है! अलग नहीं होते तो सब उनके दुश्मन थोड़े ही होते! अब तो हाल यह है कि सच्चाई घर से लेकर समाज और समाज से लेकर देश दुनिया तक घेरे में है। मक्कारी और मुंहजोरी की ताकतवर गोलबंदी है। सब न्यायाधीश हैं और सब जल्लाद हैं। मफलर बांध कर फांसी का फंदा बंधने की तैयारी न रखें तो क्या करें! कुछ पंक्तियां बड़ी माकूल हैं, आप भी सुनें और उसे याद रखें। ...कठघरे में खड़े मुजरिम से पूछते हैं न्यायाधीश / तो, आखिर सच क्या है? / सच का सबूत देने के लिए कठघरे में खड़ा मुजरिम कहता है / अपने मन से पूछो सच का सत / मुझसे पूछते हो तो कान खोल कर सुनो / मिथ्या है मखमली चादर पर सलवटें लेता तुम्हारा मन / कठोर जमीन को बिस्तर बना कर नींद बुनना है असली सच / चोर-बटमार नेताओं के हाथों लुट जाने के बाद / राहत के फेंके जाते खाने के पैकेट लेने को जूझते हजारों हाथ हैं असली सच / झूठा है न्याय का पहना हुआ तुम्हारा कनटोपा / उससे तो अच्छा है मेरे गले में बंधी हुई गांती का सच / साहब सोने सा चमकता तुम्हारा न्यायदंड सच नहीं है / सच हैं वे हाथ जो उन्हें चमकाने में काले पड़ गए हैं / झूठ को चमकाने में मटमैला हो गया है हमारा सच / अब तो शरीर पर सिले पैबंदों को उघाड़ कर देखिए तो दिख जाएगा आपके उत्पादित सच से आच्छादित पूरा इतिहास / जिसने सत्य के शरीर का पूरा भूगोल ही बदल डाला है...
सत्य गिरफ्त में है। सच्चाई को अपना सच साबित करने के लिए सबूत जुटाना है, सच्चाई को कठघरे में खड़े होना है, सच्चाई को झूठ की अदालत में फांसी पर लटक जाना है। पूरी व्यवस्था इसी की है। पूरा आयोजन इसी बात का है कि सच्चाई को दबोच लिया जाए और उसे बांध कर लटका दिया जाए। न रहे बांस, न बाजे बांसुरी। रहे ही न तो झंझट ही खत्म। फिर केवल झूठ ही झूठ रहे। झूठ ही झूठ लड़े और झूठ ही झूठ पर स्थापित हो जाए। सच्चाई के रास्ते पर चल रहे किसी भी व्यक्ति का बस एक सिरा पकड़़ लीजिए। मसलन उसने देर तक मफलर क्यों बांधे रखा, या वह खांसा क्यों, उसके पास कोई सूचना या संदेश क्यों और कैसे पहुंचा? बस उसकी सच्चाई झूठों की अदालत में इजलास पर चढ़ गई। मफलर बांधना झूठ को ढंकना है। खांसना सत्य को ठुकराना है। संदेश मिलना मिलीभगत है। बस अब वह सबूत तलाशे और सत्य साबित करे। दरअसल सत्य साबित कराना व्यवस्था का मकसद नहीं, व्यवस्था का मकसद है ऐसे व्यक्ति को तोड़ डालना, वह टूटे तो आत्मसमर्पण कर दे, और नहीं तो मर जाए। अरविंद केजरीवाल तो एक सांकेतिक नाम है। उसकी जगह कोई और नाम चुन लें, क्या फर्क पड़ता है। मसला यह है कि जिसने भी सच चुना, वह दुश्मन हुआ, भले ही वह अपना नाम, कोई गांधी या कोई यादव क्यों न चुन ले। अब तो नारा चलना चाहिए जो करने चलेगा, वो मरने चलेगा। जो सच बोलेगा, उसका 'राम नाम सत्य'। केजरीवाल-टीम कुछ करना चाहती थी तो देखा न उन्हें कैसे लोगों ने घेर लिया! सारे झूठे एक तरफ हो गए और घेरेबंदी बना ली। हालत ऐसी हो गई कि अब केजरीवाल और उनकी टीम ही यह सफाई दे कि वे सच कैसे हैं या वे सच क्यों हैं? किसी ने यह नहीं पूछा या यह नहीं बोला कि बात तो वे सही कह रहे हैं। कहने और करने का अंदाज अलग हो सकता है। और अलग होगा क्यों नहीं! अलग हैं तभी तो अलग से आग में कूद पड़े। अलग हैं तभी तो सारा संकट है! अलग नहीं होते तो सब उनके दुश्मन थोड़े ही होते! अब तो हाल यह है कि सच्चाई घर से लेकर समाज और समाज से लेकर देश दुनिया तक घेरे में है। मक्कारी और मुंहजोरी की ताकतवर गोलबंदी है। सब न्यायाधीश हैं और सब जल्लाद हैं। मफलर बांध कर फांसी का फंदा बंधने की तैयारी न रखें तो क्या करें! कुछ पंक्तियां बड़ी माकूल हैं, आप भी सुनें और उसे याद रखें। ...कठघरे में खड़े मुजरिम से पूछते हैं न्यायाधीश / तो, आखिर सच क्या है? / सच का सबूत देने के लिए कठघरे में खड़ा मुजरिम कहता है / अपने मन से पूछो सच का सत / मुझसे पूछते हो तो कान खोल कर सुनो / मिथ्या है मखमली चादर पर सलवटें लेता तुम्हारा मन / कठोर जमीन को बिस्तर बना कर नींद बुनना है असली सच / चोर-बटमार नेताओं के हाथों लुट जाने के बाद / राहत के फेंके जाते खाने के पैकेट लेने को जूझते हजारों हाथ हैं असली सच / झूठा है न्याय का पहना हुआ तुम्हारा कनटोपा / उससे तो अच्छा है मेरे गले में बंधी हुई गांती का सच / साहब सोने सा चमकता तुम्हारा न्यायदंड सच नहीं है / सच हैं वे हाथ जो उन्हें चमकाने में काले पड़ गए हैं / झूठ को चमकाने में मटमैला हो गया है हमारा सच / अब तो शरीर पर सिले पैबंदों को उघाड़ कर देखिए तो दिख जाएगा आपके उत्पादित सच से आच्छादित पूरा इतिहास / जिसने सत्य के शरीर का पूरा भूगोल ही बदल डाला है...
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