प्रभात रंजन दीन
मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के महासचिव प्रकाश करात ने पिछले
दिनों मुंगेरी लाल की तरह एक हसीन सपना देखा। उन्होंने सपना देखा कि केंद्र में साम्प्रदायिक
ताकतों को सत्ता पर आने से रोकने के लिए गैर कांग्रेसी और गैर भाजपाई राजनीतिक दल साथ
मिलकर लोकसभा चुनाव लड़ रहे हैं। करात ने यह सपना देखा भी और मुजफ्फरनगर की एक सभा
में इस स्वप्न को उजागर भी कर दिया। अब इस स्वप्न के कार्यरूप में उतरने की सम्भावनाओं
पर विचार करें। लेकिन इसके लिए आपको किसी घटिया 'हॉरर फिल्म' की यंत्रणा से गुजरना होगा। कौन-कौन पार्टियां इस बात के लिए तैयार
होंगी कि एक साथ चुनाव लड़ें! और क्यों तैयार होंगी! लोकसभा चुनाव आते ही सारी एकताएं
नजर आने लगीं, इसके पहले जनता से जुड़े मसलों पर बृहत्तर
एकता कायम करने और निर्णायक संघर्ष छेडऩे की जरूरत पर क्यों नहीं ऐसी पहल हुई? प्रकाश करात हों या ऐसी मौसमी एकता की बातें करने वाला कोई भी
ऐसा नेता, सब उसी टोकरी में बैठे हैं जहां सारी महत्वाकांक्षाएं
मेढ़क की शक्ल में एक साथ बैठी हैं। अभी चुनावी बारिश आने वाली है, सभी टर्र टर्र कर रहे हैं। बारिश आएगी, सत्ता-रानी दिखेगी और सारे मेढ़क उछाल मार-मार कर निकल पड़ेंगे।
ऐसा ही होता आया है और ऐसा ही फिर होगा। किसी भी पार्टी या किसी भी नेता में कोई राष्ट्रीय
चरित्र दिखता हो, तो इस एकता की थोड़ी
उम्मीद की जा सकती है। ज्योति बसु जैसे अगरधत्त वाम नेता को इन्हीं लोगों ने देश का
प्रधानमंत्री नहीं बनने दिया। वामपंथियों के अंदर भी क्षूद्र महत्वाकांक्षाओं की इतनी
कुंठाएं कुंडली मार कर बैठी हुई हैं कि उन्हें ज्योति बसु का प्रधानमंत्री बनना गवारा
नहीं हुआ। इनमें प्रकाश करात भी शामिल रहे हैं, और आज बृहत्तर
एकता की बात कर रहे हैं। खुद में इतनी एकता का भाव नहीं कि अपनी ही पार्टी और अपनी
ही विचारधारा का संवाहक देश का प्रधानमंत्री बने। ज्योति बसु अगर उस समय देश के प्रधानमंत्री
बन जाते तो आज वो सारी स्थितियां जो विद्रूप दृश्य दिखा रही हैं, कदाचित होती ही नहीं। लेकिन वामपंथियों ने ऐसा होने नहीं दिया।
साफ है कि देश का हित वामपंथियों के लिए भी सरोकार का विषय नहीं है। वे भी ऐसे ही हैं
जैसे दूसरे। एक साथ लोकसभा चुनाव लडऩे या तीसरा मोर्चा बनाने के विषय में 25 फरवरी
को दिल्ली में बैठक भी बुलाई गई है। सारे महत्वाकांक्षी स्वप्न 25 फरवरी को दिल्ली
में टकराने वाले हैं। कितने सुर टकराएंगे, कितने गर्दभ
राग गाए जाएंगे, कितने दादुर टर्राएंगे, कितने हुआं-हुआं होंगे, आप बस देखते
जाइये। इस देश की केंद्रीय सत्ता में जितने मंत्री होते हैं, उतने ही प्रधानमंत्री होते या उतने ही प्रधानमंत्री होने की बस
गारंटी हो जाए तो सारे नेता एक साथ लोकसभा चुनाव लड़ जाएं। पूरा केंद्रीय मंत्रिमंडल
प्रधानमंत्रियों से भरा हो। सारे विभाग के प्रधानमंत्री... कितना अच्छा कॉन्सेप्ट है!
यह नेताओं के हाथ लग जाए तो आप निश्चित मानिए कि सारे नेता इसे आजमाने में लग जाएंगे।
देश का कोई भी नागरिक दिल्ली जाए और उसे जिस विभाग में काम हो उस विभाग के प्रधानमंत्री
से मिल ले। आम आदमी भी खुश और नेता भी खुश। सबको मनोवैज्ञानिक खुशी ही तो चाहिए। आम
नागरिक खुश कि प्रधानमंत्री से मिल लिए और नेता खुश कि प्रधानमंत्री हो लिए। वित्त
मंत्रालय का प्रधानमंत्री, गृह मंत्रालय का प्रधानमंत्री, जितने मंत्रालय उतने प्रधानमंत्री। भारतीय लोकतंत्र को नेताओं
की क्षूद्र महत्वाकांक्षाओं से बचाना है तो प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्री के पद को हर
तरफ रायते की तरह फैला दें... फिर देश प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्री फोबिया से बच जाए।
नेताओं की हवस पर अंकुश लग जाए। फिर ऐसा सम्भव हो सकता है कि सारे प्रधानमंत्री मिल
कर देश के बारे में सोचें। पद विलीन हो गया तो महत्वाकांक्षाएं विलीन हो सकती हैं।
ऐसा सम्भव है, एक प्रयोग किया जा सकता है। वैसे भी भारतवर्ष
में तो प्रयोग के नाम पर दुष्प्रयोग ही होते आए हैं। इन दुष्प्रयोगों का ही नतीजा है
कि देश के सारे महत्वपूर्ण पदों ने अपना औचित्य खो दिया है। देश के सारे नेताओं ने
अपना औचित्य खो दिया है। देश के सारे राजनीतिक दलों ने अपना औचित्य खो दिया है। ऐसी
अनौचित्यता से भरे देश में आएं हम सब पीएम-पीएम, सीएम-सीएम खेलें।
नेता सब मिल कर जो देश से खेल रहे हैं, उससे तो अच्छा
है कि हम पीएम-पीएम खेलें...
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