Saturday 27 July 2019

बामुलाहिजा! ये बुद्धिजीवी और प्रगतिशील हैं

जब कुछ कहने को नहीं रहा, जब कुछ ढंकने को नहीं रहा,
कीचड़ उछालना करम रहा, बचने का कुछ तो भरम रहा..! 
इन चार पंक्तियों से अपनी बात शुरू करता हूं। ‘मित्रों के चेहरे वाली किताब’ के लिए मैंने कठोर तथ्यों (हार्ड फैक्ट्स) पर आधारित एक लेख लिखा... प्रकरण था हिंदूवादी नारे और ‘लिंचिंग’ को मुद्दा बना कर कुछ तथाकथित कलाकारों-बुद्धिजीवियों द्वारा प्रधानमंत्री को पत्र लिखना। पत्र लिखने वाली जमात कुछ जगह जबरन हिंदूवादी नारे लगवाए जाने और कुछ जगह मुसलमानों की ‘लिंचिंग’ (हत्या) किए जाने की घटनाओं पर उद्वेलित थी। पत्र लिखने वाले व्हाट्सऐप-प्रेरित तथाकथित कलाकारों-बुद्धिजीवियों ने ‘देश के बिगड़ते माहौल’ पर चिंता जताई, लेकिन आरोप को पुष्ट करने वाले ठोस उदाहरण पेश नहीं किए। पेश क्या किया..! नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) के आधिकारिक आंकड़ों के नाम पर सफेद-झूठ चस्पा कर दिया। अंधत्व के शिकार मीडिया ने इसकी पड़ताल भी नहीं की। पीएम को लिखा पत्र आपने देखा है..? आप उसे देखें, वह सार्वजनिक फोरम पर उपलब्ध है, उसमें पत्र-लेखकों ने एनसीआरबी के आधिकारिक आंकड़ों का हवाला देते हुए वर्ष 2009 से वर्ष 2018 तक के अपराध के आंकड़ों का हवाला दिया है। आपको यह पता ही होगा... और आप इसे अद्यतन (अपडेट) भी कर लें कि नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो का सालाना आंकड़ा छपने का क्रम काफी विलंबित गति से होता है। नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो का वर्ष 2016 के अपराध का आंकड़ा अभी-अभी करीब हफ्ता-पंद्रह दिन पहले प्रकाशित होकर विभिन्न राज्यों के गृह विभागों, पुलिस मुख्यालयों, जेल मुख्यालयों और सम्बद्ध विभागों तक पहुंचा है। एनसीआरबी के वर्ष 2017 के अपराध का आंकड़ा अभी छपने के लिए गया है। उसमें थोड़ा वक्त लगेगा। अब आप सोचें कि पत्र-लेखक गिरोह ने एनसीआरबी का वर्ष 2018 का अपराध का आंकड़ा कहां से जुटा लिया..? क्या इस आपराधिक झूठ की जांच नहीं होनी चाहिए..? पत्र-लेखकों की फेहरिस्त में शामिल एक व्यक्ति ने सार्वजनिक बयान देकर कहा है कि उनका फर्जी हस्ताक्षर कर उनके नाम का इस्तेमाल किया गया है। वह शख्स हैं मशहूर फिल्म निर्देशक मणिरत्नम। मणिरत्नम ने पीएम को लिखी गई चिट्ठी को खारिज करते हुए कहा है कि उन्होंने ऐसी किसी चिट्ठी पर न तो हस्ताक्षर किया है और न ही ऐसी कोई चिट्ठी उनके सामने ‘सपोर्ट’ के लिए प्रस्तुत की गई थी। फिल्म निर्देशक मणिरत्नम का फर्जी हस्ताक्षर किए जाने के नियोजित ‘फ्रॉड’ की क्या जांच नहीं होनी चाहिए..?
जो पढ़े-लिखे समझदार लोग हैं उन्हें पता है कि क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो द्वारा श्रेणीबद्ध किए गए अपराध में ‘जयश्री-राम’ या ‘अल्लाह हू अकबर’ के नारे जबरन लगवाए जाने की घटना का कोई ‘हेड’ नहीं है और न ही ‘लिंचिंग’ नाम से कोई ‘हेड’ है। भारतीय दंड विधान (इंडियन पेनल कोड) के तहत आने वाले अपराधों की कुल 55 श्रेणियां (कैटेगरी) निर्धारित हैं। इसमें कहीं भी जबरन धार्मिक नारे का अपराध या ‘लिंचिंग’ का अपराध अलग से रेखांकित नहीं है। हां, ‘लोक शांति भंग’ (ऑफेंस अगेंस्ट पब्लिक ट्रैन्क्विलिटी) के तहत श्रेणीबद्ध अपराध में दंगा (जातीय, धार्मिक, नस्ली, गुटीय सभी तरह के दंगे) और साम्प्रदायिक-जातीय-गुटीय-नस्लीय विद्वेष फैलाने की घटनाएं पारिभाषित हैं।
बहरहाल, मैंने जो लेख लिखा, उसमें तथाकथित कलाकारों-बुद्धिजीवियों, नासमझ मीडियामूर्धन्यों और ‘हिपोक्रिट’ (आडम्बरी) प्रगतिशीलों द्वारा समाज में फैलाए जा रहे विषाक्त माहौल पर गहरी चिंता है। इस पत्र-प्रकरण को सामान्य तौर पर न लें, यह गहरी साजिश है, इसे आप समझते चलें। इसकी गहराई से पड़ताल होनी चाहिए और इसके पीछे बैठी सूत्रधार-ताकतों का चेहरा उजागर होना चाहिए। इस प्राथमिक दायित्व से देश का मीडिया मुंह चुरा रहा है और कुछ इस षडयंत्र में खुद शरीक हैं। मेरे पूर्व के लेख को आपने पढ़ा है। यदि नहीं पढ़ा तो कृपया उसे पढ़ लें... तभी इस दूसरे क्रम की प्रासंगिकता और तारतम्यता समझ में आएगी। लब्बोलुबाव यह है कि देश में पिछले करीब तीन दशक से कश्मीर से लेकर केरल तक और पूर्वोत्तर के कुछ राज्यों में जिस हैवानियत के साथ इस्लामिक कट्टरता पसरी है, उसे लेकर देश के कलाकार और बुद्धिजीवी शातिराना मौन साधे रहे हैं। जैसे कश्मीरी पंडित और कश्मीर के इतर-धर्मी क्या हमारे अपने नहीं थे कि इनके साथ हुए अमानुषिक दुर्व्यवहार, जबरन धर्मांतरण, बहू-बेटियों के साथ हुए सामूहिक बलात्कार, सामूहिक हत्याएं और नरसंहार पर शातिराना चुप्पी साध ली गई? खुद को कलाकार, बुद्धिजीवी, प्रगतिशील, मानवाधिकारवादी कहने वाले लुच्चे-लफंगे इस पर क्यों नहीं बोलते? इसी तरह केरल में धार्मिक अत्याचार, लव-जेहाद के नाम पर फैलाया गया इस्लामिक-मवाद, जबरन धर्मांतरण, नृशंस सार्वजनिक हत्याएं और संत्रास बौद्धिक-लफंगों को क्यों नहीं दिखता? पूर्वोत्तर को बांग्लादेश बनाने का अति-इस्लामवाद, अत्याचार और नरसंहार इन्हें क्यों नहीं दिखता? इन्हें और इनकी हिमायत करने वाली मानवता-विरोधी जमात को क्या कह कर संबोधित किया जाए? मैंने अपने पहले लेख में भी कहा कि कुछ अप्रिय शब्द-संबोधनों का इस्तेमाल करने के लिए मेरे मन में अफसोस का भाव है, लेकिन अप्रिय-कृत्य के दोषियों को अप्रिय शब्द से संबोधित करना अनुचित नहीं होता, उन्हें यह समझ में आना चाहिए। मैंने अपने लेख में दर्जनों प्रामाणिक घटनाओं का हवाला देते हुए चुनौती सामने रखी है। मैंने यह भी लिखा है कि मेरे पास इस्लामिक उन्माद के सैकड़ों जघन्य और बर्बर मामले दस्तावेजों के साथ उपलब्ध हैं, जिन्हें एक साथ लिखना किताब लिखने जैसा हो जाएगा। मेरे लिखे पर बौद्धिक-लफंगों या उनके चट्टे-बट्टों को कुछ कहना है तो प्रामाणिक तथ्यों और तर्कों के साथ खंडन प्रस्तुत करें। फेसबुक या ऐसे सोशल-मीडिया फोरम का व्यभिचारिक इस्तेमाल से वे बाज आएं। ‘हिपोक्रिट’ (आडम्बरी) प्रगतिशीलों..! निंदा के शब्द नहीं, तर्क और तथ्य लेकर सोशल-फोरम पर आओ, लेकिन आने से पहले उन तथ्यों को लेकर आईने में अपनी सूरत और सीरत देखो कि तुमने भारतीय समाज के साथ किस तरह का दुर्व्यवहार और आपराधिक-षडयंत्र किया है।
यह किस तरह की मनोवैज्ञानिक विकृति है..! इन आडम्बरियों को यह मूल बात समझ में नहीं आती कि मानवीय करुणा हिंदू-मुसलमान-सिख देख कर नहीं आती। सिखों पर बर्बरता और दोगलेपन की देश में इंतिहा कर दी गई। किस ‘लफंगे-बौद्धिक‘ ने अपना अवॉर्ड लौटाया या प्रधानमंत्री को चिट्ठी लिखी..? कश्मीर के हिन्दुओं का कत्लेआम मचाया गया और उन्हें अपने ही घर से भगाया गया, इसके खिलाफ किस ‘प्रगतिशील-लफंगे’ ने प्रधानमंत्री को चिट्ठी लिखी..? कश्मीरी पंडितों को उनके घर वापस दिए जाएं, इसके लिए किस ‘प्रायोजित-प्रगतिशील-जमात’ ने प्रधानमंत्री से गुहार लगाई..? पूर्वोत्तर राज्यों में बांग्लादेशियों द्वारा मचाए गए हिंसक-उत्पात के खिलाफ किस ‘कलाकार-बुद्धिजीवी’ ने प्रधानमंत्री को पत्र लिखा या सार्वजनिक रुदाली की..? इन ‘लफंगों’ की आंखों पर केवल एक चश्मा लगा है... इस चश्मे को उतारें तो इसमें आपको अरब की आंख दिखेगी, आपको चीन की आंख दिखेगी, आपको पाकिस्तान की आंख दिखेगी। आपको उन ताकतों की आंख दिखेगी जो भारतवर्ष में अस्थिरता (unrest) का भयानक मंजर खड़ा करना चाहते हैं। ...इनकी जेबों में देखें, आपको उन्हीं देशों और उन्हीं ताकतों का धन मिलेगा। जरा झांकिए तो, किन ताकतों के बूते बॉलीवुड चलता है और उन ताकतों के आगे किस तरह फिल्मी कलाकार भड़ुए बने फिरते हैं। जरा झांकिए तो, पाकिस्तानी आईएसआई का धन किस तरह भारत के वर्णसंकरों को पाकिस्तान-परस्त बना रहा है। जरा झांकिए तो, अरब का धन किस तरह पढ़े-अधपढ़े लोगों को ‘अति-इस्लामिक-व्याख्यावादी’ (extremist-islamist-interpreterist) जमात में कनवर्ट कर रहा है। जरा झांकिए तो, चीन का धन किस तरह भारत में ‘कुलीनतावादी-माओवादी’ (एलिटिस्ट-माओइस्ट) पैदा कर रहा है, जो भोले-भाले अनपढ़ खेतिहर और शहरी मजदूरों के बीच ‘सर्वहारा के अधिनायकवाद’ का प्रवचन ठेलता है, समाज में जहर फैलाता है, अपने बच्चों को पश्चिमी देशों में आलीशान पूंजीवादी शैक्षणिक प्रतिष्ठानों में पढ़वाता है और वसूला गया धन विदेश के चोर-बैंकों में जमा कराता है। कश्मीरी अलगाववादियों की असलियत तो आप जान चुके हैं। उनके अकूत धन के स्रोत और उनके बच्चों की उन्हीं पश्चिमी देशों में पढ़ाई-लिखाई जिन देशों में वे बम फोड़ने की साजिश भी करते हैं, इसका आधिकारिक खूलासा हो चुका है। ऐसे दोगलों के चाटुकार मेरे लेख पर तार्किक जवाब देने के बजाय आरोप लगाते हैं। मैं भाजपाई हो गया... मैं संघी हो गया... मुझको भाजपा सरकार कोई पद दे देगी... वगैरह, वगैरह। इस तरह कीचड़ उछालने वाले लोग समाज के अवांछित तत्व हैं, जिन्हें अंग्रेजी में ‘un-wanted elements’ कहते हैं। ये भी मुझे अच्छी तरह से जानते हैं। ये जानते हैं कि मैं जो भी लिखता हूं, उसके पहले खुद को आइने में देख लेता हूं, फूहड़-फक्कड़ जरूर हूं, पर उन जैसा आडम्बरी नहीं। सच लिखने-बोलने से मुझे कोई आडम्बर या भय रोक नहीं सकता। मुझे धन-पद का लोभ रहता तो 36 साल से घर फूंक कर तमाशा थोड़े ही देख रहा होता..! मैंने मुस्लिम इश्यूज़ पर खूब लिखा। मुस्लिमों को लेकर बनी तमाम योजनाएं आम मुसलमानों तक नहीं पहुंचतीं, इसे उजागर किया। मदरसों में लड़कियों के साथ अश्लील धंधे की खबरें ब्रेक कीं। निर्दोष मुसलमानों को आतंकी ‘फ्रेम’ में कसने की साजिशों का पर्दाफाश किया। सिख मसलों पर खूब लिखा। दलितों और पिछड़ों के उत्पीड़न पर खूब लिखा। मुस्लिमों के लिए लिखा, तब मैं बहुत अच्छा था। सिखों के लिए लिखा, तब मैं बहुत अच्छा था। दलितों-पिछड़ों के लिए लिखा, तब मैं बहुत अच्छा था। मेरे निरंतर लिखने से कई दलित और पिछड़े बड़े-बड़े नेता बन गए। मेरी इस लेखन-शैली पर पूरा समाज और पूरा पत्रकार समुदाय इस बात की तफ्तीश करता रहा कि मैं किस जाति का हूं। मुझे दलित कहा गया, मुझे पिछड़ा कहा गया, मैं पग्गड़ नहीं बांधता लेकिन लोगों ने मुझे मोना-सिख भी कहा। लेकिन आज हिन्दुओं के लिए लिखा तो अचानक मैं खराब हो गया। किसी अहमक को मैं ठाकुर दिखने लगा तो किसी को ब्राह्मण... किसी बदरंग दिमाग के व्यक्ति ने मुझे रंगा-सियार तक कहा। इसी तरह के कुछ अन्य लोगों ने भी अपनी मूल-नस्ल के मुताबिक मेरी निंदा का प्रस्ताव जारी किया... लेकिन किसी ने भी मेरे लेख में दिए गए तथ्यों के बरक्स कोई तार्किक बात नहीं की। यह आप समझ लें कि इस तरह किसी पर भी कीचड़ उछालने वाले लोग बड़े शातिर और मक्कार होते हैं। साथ ही यह भी कहता चलूं कि तर्क के बजाय जब बौखलाहट अभिव्यक्त हो तो समझें सटीक लक्ष्य पर तीर धंसा है। एक अंग्रेज दार्शनिक के कथन का जिक्र यहां जरूरी है। वे कहते हैं, ‘If somebody praises me, I feel little happy, but when somebody abuses me without giving any logic, I feel, I have hit the target.’ आप समझ गए न...
मेरे लिखे को प्राध्यापक आलोक चान्टिया ने आगे बढ़ाते हुए लिखा है कि वे वर्ष 2006 में कश्मीर गए थे। कश्मीर के दर्जी कुआं इलाके में गए जो कश्मीरी पंडितों का गढ़ रहा है। चान्टिया ने लिखा है कि वहां कैसे कश्मीरी पंडितों के सिर दीवारों में टकरा-टकरा कर फोड़े गए थे और उन्हें बेरहमी से मारा गया था। लहू के निशान आज तक मिटे नहीं हैं। चान्टिया ने उसकी फोटोग्राफ्स भी लीं। मेरे लेख पर अपनी प्रतिक्रिया देते हुए वे लिखते हैं कि दुर्बुद्धिजीवियों और मीडियामूर्खों को वहां जाकर देखना चाहिए, कहीं उनकी आंखों के आगे का गाढ़ा प्रायोजित चश्मा हट पाए। प्राध्यापक आलोक चान्टिया कहते हैं कि दर्द इस बात का है कि भारतवासी कश्मीरी पंडितों के लिए हम आवाज नहीं बन सकते, पर बुद्धिजीवीपन और प्रगतिशीलता के निकृष्ट दावे जरूर करते हैं..! प्रखर पत्रकार ज्ञानेंद्र शुक्ल लिखते हैं, ‘आप जब उनके एजेंडे के लिहाज से नहीं लिखेंगे तो वो भड़केंगे, आपको कोसेंगे, आप पर संघी-भक्त का लेबल चस्पा करेंगे, दरअसल उन्होंने खुद को बुद्धिजीविता का स्वयंभू मसीहा मान लिया है, अपनी ही अदालत तैयार कर ली है। मजाल है कोई उनके एजेंडे के खिलाफ एक लफ्ज भी बोले..? तुरंत कार्यवाही चालू करके आपके खिलाफ फरमान जारी कर देते हैं। आपके सच के समर्थक इसलिए मौन साध लेते हैं क्योंकि उन्हें आशंका रहती है कि सच को सच कहा या साथ दिया तो तथाकथित बुद्धिजीवियों और प्रगतिशीलों का गैंग उन्हें भी निशाने पर ले लेगा। इस चुप्पी के परिणामस्वरूप गैंग का झूठ और आरोप आपके खालिस-सच पर ग्रहण लगाने का प्रयास करता रहता है।’ ज्ञानेंद्र शुक्ल की बातों के गहरे निहितार्थ हैं... हम सच इसलिए न बोलें कि संगठित बदमाशों का गिरोह हमारे ऊपर पता नहीं क्या कीचड़ उछाल देगा? ऐसे कुत्सित समय, ऐसे कुत्सित विचार और ऐसी कुत्सित जमात को वैचारिक धरातल पर देश-समाज के सामने नंगा करने का समय आ गया है।
आप यह सोचें कि इस देश में किस तरह का मस्तिष्क-शोधित (ब्रेन-वॉश्ड) विचार पिरोया गया कि मुसलमान मुसलमानों के हित की बात करे तो वह धर्मनिरपेक्ष और प्रगतिशील। लेकिन हिन्दू हिन्दुओं के हित की बात करे तो वह दकियानूसी और कट्टर साम्प्रदायिक! इस विचार को ऐसे इन्जेक्ट किया गया कि उसने व्यापक जमात को वैचारिक तौर पर लकवाग्रस्त कर दिया, पंगु बना दिया। उनमें इतनी भी अंतरदृष्टि नहीं बची कि वे मानव को मानव के नजरिए से देख सकें। कश्मीरी पंडित उन्हें मानव नहीं दिखते। केरल के हिन्दू उन्हें मानव नहीं दिखते। पूर्वोत्तर के हिन्दुओं में उन्हें मानव नहीं दिखता। देश के किसी भी हिन्दू को वे मनुष्य नहीं मानते, क्योंकि ऐसा मानने से लक्ष्य धुंधलाता है, ‘डाइल्यूट’ होता है। इसीलिए वे लक्ष्य साध कर हिन्दुओं से दलित को अलग करके देखते-दिखाते हैं और मनोवैज्ञानिक-आनंद लेते हैं कि हिन्दू धर्म कमजोर हो रहा है। इसलिए नहीं कि वे दलितों का कोई व्यापक हित सधता हुआ देखना चाहते हैं। कुछ विकृत मनोवृत्ति के मुसलमानों के कारण इस्लाम पूरी दुनिया में बदनाम, कट्टरवाद के कोढ़ से ग्रस्त और हिंसा-पसंद धर्म माना जाने लगा और कुछ अर्थ-लती दिमाग-दास (corrupt & brain-slave) हिन्दुओं के कारण हिन्दू समुदाय समझ और विचार के नाम पर ‘डस्टबिन’ माना जाने लगा। सोच-विचार में कोई स्पष्टता नहीं... केवल छद्म और नासमझ अनुकरण।
देश-समाज नासमझ विचारों से आगे नहीं बढ़ता। दिमाग की खिड़कियां खोल कर खुली हवा का झोंका आने से बढ़ता है। रक्तपात, बलात्कार और धर्मांतरण धर्म नहीं है। इसका धर्म से कोई लेना-देना नहीं... यह भेड़िया-चरित्र है। परमशक्ति की समझ व्यक्ति को परम-उदार बनाती है, परम-दयावान बनाती है। वह एक समुदाय के लिए दयावान होने और दूसरे समुदाय के प्रति निर्दयी और क्रूर होने के भेद भरे भाव को समाप्त करती है। यही परम-धर्म है। मैं यह कहता हूं, कहता क्या हूं, घोषणा करता हूं कि मैं किसी भी मानव-निर्मित धर्म-जाति का नहीं हूं... आप भी तो कहें..! लेकिन अंतर-आत्मा से ऐसा कहने और आत्मसात करने के लिए मजबूत नैतिक-बल चाहिए। नैतिक बल होता तो हमारे-आपके बीच बुद्धिजीवियत और प्रगतिशीलता के नाम पर शैतानियत अपनी जगह थोड़े ही बना पाती..! इस शैतानियत का खात्मा उन्मुक्त-ईमानदार विचारधारा से होगा... पंगु, छद्मी और शातिर विचार-प्रसारकों के खिलाफ खुल कर खड़े होने से होगा। ...हम खुलें, आगे बढ़ें और अपने देश-समाज को नरक (hell) नहीं, बल्कि नैसर्गिक-धार्मिकों का देश-समाज बनाने का जतन करें। देश-समाज को नरक बना कर जन्नत पाने की बातें शैतान करते हैं और मूर्ख इसे सच समझते हैं... आप सबको हार्दिक शुभकामनाएं... मित्रों को भी और निंदकों को भी। आप सब इसे अपनी-अपनी समझदारी और चेतना से स्वीकार करें... आपका, प्रभात रंजन दीन

Thursday 25 July 2019

ये बुद्धिजीवी हैं या षडयंत्रकारी..!

कुछ लोगों ने गिरोह बना कर प्रधानमंत्री को एक चिट्ठी लिखी है। शैतानों का गिरोह बहुत जल्दी बन जाता है। अच्छे लोग एकजुट नहीं हो पाते। इन शातिर-शैतानों ने हिन्दू-धार्मिक नारे लगवाने की एक-दो घटनाएं उठा लीं और ‘लिंचिंग’ शब्द उठा लिया और पीएम को पत्र लिख मारा। हालांकि चिट्ठी-गिरोह में शामिल एक व्यक्ति ने बाद में यह भी बयान दिया कि उनका फर्जी हस्ताक्षर करके उनके नाम का इस्तेमाल किया गया। पत्र-प्रकरण को मीडिया ने खूब उछाला। अखबारों ने सुर्खियों में छापा। सारे चैनेलों ने ‘ब्रेकिंग-न्यूज़’ दिखाया। मीडिया ने पत्र लिखने वालों को कलाकार और बुद्धिजीवी बताया। मीडिया के एक हिस्से ने पत्र-प्रकरण पर सरकार को कोसा और ‘कलाकारों-बुद्धिजीवियों’ की पीठ ठोकी तो मीडिया के दूसरे हिस्से ने सरकार का बचाव किया और ‘पत्र-लेखकों’ को कठघरे में खड़ा किया। लेकिन देश के सभी अखबारों और चैनलों ने ‘पत्र-लेखकों’ को कलाकार और बुद्धिजीवी ही बताया। किसी भी अखबार या चैनल में पत्र-प्रकरण की स्वस्थ-ईमानदार-समीक्षा न छपी, न दिखी। किसी भी अखबार या चैनल ने पत्रकारीय-पड़ताल नहीं की कि इस पत्र-प्रकरण के पीछे कौन लोग हैं, क्या मंशा है, क्या साजिश है, किसका पैसा है और देश का सामाजिक तानाबाना छिन्न-भिन्न करने का माहौल बनाने से इन्हें क्या हासिल होने वाला है? इन तथाकथित कलाकारों-बुद्धिजीवियों की पत्र-हरकत के पीछे कौन सी शक्तियां काम कर रही हैं? इसकी पड़ताल कौन करेगा और कब करेगा? पत्र-प्रकरण की स्वस्थ समालोचना कौन करेगा और कब करेगा? समाज के समक्ष क्या हूबहू वही रख देगा जिसे कोई पृष्ठ-शक्ति चाहेगी, या अपना विवेक इस्तेमाल करने की मीडिया की क्षमता बिल्कुल ही जाती रही? जिस शख्स ने कहा कि उनका फर्जी हस्ताक्षर लिया गया है, उनसे ही बात कर लेते, इसकी पड़ताल कर लेते तो थोड़ा पत्रकारीय-दायित्व निभता... लेकिन ये तो उससे भी गए। मीडिया ने जिन्हें ‘कलाकार और बुद्धिजीवी’ बताया, उस जमात के लिए मैं कुछ अप्रिय शब्द-संबोधनों का इस्तेमाल करूंगा। इसके लिए मेरे मन में अफसोस का भाव तो है, लेकिन अप्रिय-कृत्य के दोषियों को अप्रिय शब्द से संबोधित करना अनुचित नहीं होता, उन्हें यह समझ में आना चाहिए। 
दुर्बुद्धिप्रिय मीडिया देश और समाज को किस अंधकार की तरफ ले जा रहा है, इसके परिणाम की कल्पना ही भयावह एहसास देती है। भारतीय मीडिया को नासमझों की भीड़ नियंत्रित कर रही है, इसलिए उससे समझदारी, दूरदृष्टि और चैतन्यता की उम्मीद करना व्यर्थ है। खास तौर पर भारत का पत्रकार खुद को बुद्धिजीवी समझने की आत्मरति के आनंद में लस्त रहता है और समाज का एक विनम्र प्रतिनिधि होने की समझ संजोने के बजाय खुद को ‘एलिटिस्ट-इंटलेक्चुअलिस्ट’ समझने की भीषण मनोवैज्ञानिक बीमारी से ग्रस्त हो जाता है। उसे कोई भी ऐरा-गैरा-नत्थूखैरा-बेसिरपैरा व्यक्ति ‘इंटलेक्चुअल’ दिखने लगता है... समाज विरोधी बातें करे, उल्टी-सीधी हरकतें करे, बेहूदा साहित्य और फिल्में रचे, समलैंगिकता की मनोवैज्ञानिक-विकृति का समर्थन करे, हिंसा-बलात्कार की घटनाओं में जाति-धर्म का अमानुषिक फर्क करे, कश्मीरी पंडितों के साथ हुई घृणास्पद ज्यादतियों पर घिनौनी चुप्पी साधे रखे, सामाजिक भेद की खाई को और गहरा करने की बातें लिखे-बोले, देश के इतिहास को विद्रूप करे और उसकी सकारात्मकता को नकारात्मक साबित करने का कुप्रयास करे... तो वह मीडिया की नजर में ‘इंटलेक्चुअल’ है। ...और ऐसे बेहूदा-बुद्धिजीवियों को सुर्खियां देना ही पत्रकारिता का काम रह गया है। समीक्षा की समझ ही जैसे मीडिया से खत्म हो गई। ऐसे ‘इंटलेक्चुअल’ और ऐसे ‘इंटलेक्चुअलिस्ट’ से मुक्ति मिलेगी, तभी देश-समाज से विभेद का भाव खत्म होगा।
जिन ऐरे-गैरे लोगों को मीडिया बुद्धिजीवी बता कर हमारे आपके समक्ष पेश कर रहा है, लोक-भाषा में कहें तो वे असल में लुच्चे-लफंगे हैं। ये ऐसे ही लोग हैं जो झुंड बना कर निकलते हैं और जहां ऊंचा ठीहा दिखा, वहीं टांगें उठा कर अपना मूल-चरित्र बहाने लगते हैं। ठीक वैसे ही जैसे कोई बेहूदा भीड़ सड़क पर निकलती है और शहीद स्मारक तोड़ डालती है और बुद्ध महावीर की प्रतिमाएं खंडित कर देती है। ऐसी भीड़ के कुछ चालाक-मक्कार-शातिर सूत्रधार होते हैं, जो बाबा साहब अंबेडकर के नाम पर तो आंसू बहाते हैं, पर बुद्ध-महावीर की मूर्तियां तोड़वाते हैं। कभी सम्मान लौटाने तो कभी पत्र लिखने वाले लफंगे लोग ‘लिंचिंग’ की षडयंत्रिक-शब्दावली पर रुदाली करते हैं, लेकिन उन्हें कश्मीर में सुरक्षा बलों की ‘लिंचिंग’ नहीं दिखती। उन्हें पश्चिम बंगाल की ‘लिंचिंग’ नहीं दिखती, उन्हें केरल, तमिलनाडु या देश के अन्य हिस्सों में इतर-धर्मियों की ‘लिंचिंग’ नहीं दिखती। कैसे दोगले हैं ये..?
मीडिया जिन्हें कलाकार या बुद्धिजीवी कह कर ‘परोस’ रहा है, उनका नाम लेना भी मैं अधःपतन समझता हूं। एक फिल्म निदेशक अपराध और क्रिमिनल गैंग्स पर फिल्में बना-बना कर अपनी असली मनोवृत्ति अभिव्यक्त करता रहता है। फिल्मों में ऐसी गालियां इस्तेमाल करता है, जिसे आम जिंदगी में लोग मुंह पर लाने से हिचकते हैं। ऐसा आदमी कलाकार और बुद्धिजीवी..! और मीडिया द्वारा महिमामंडित..! ऐसे कलाकार जिनकी पिछली जिंदगी में झांकें तो आपको यौन-उत्तेजना भड़काने वाले उनके फिल्मी और गैर-फिल्मी कृत्यों की भरमार दिखेगी, उसे मीडिया समाज का आईकॉन बना कर पेश करता है। ऐसे इतिहासकार जिन्होंने जीवनभर भारतीय इतिहास के अध्यायों पर कालिख पोतने का काम किया, ऐसे समाजविरोधी-देशविरोधी तत्व मीडिया की निगाह में ‘इंटलेक्चुअल’ होते हैं। इन्हें ‘स्यूडो-इंटलेक्चुअल’ या छद्मी-बुद्धिजीवी कहना भी उचित नहीं। ये असलियत में समाज के सफेदपोश अपराधी (व्हाइट कॉलर्ड क्रिमिनल्स) हैं।
कुछ उदाहरण आपके समक्ष रखता हूं... इन घटनाओं पर इन फर्जी-बुद्धिजीवियों की चुप्पी क्यों सधी रही और मीडिया ने इसे सुर्खियां क्यों नहीं बनाई..! हमारे अनुज और प्रिय मित्र पत्रकार ज्ञानेंद्र शुक्ल ने कश्मीर के कुछ उदाहरण सामने रखे। उसे रेखांकित करते हुए कहता हूं कि जब चार जनवरी 1990 को कश्मीर के अखबार ‘आफताब’ और ‘अलसफा’ ने कश्मीरी पंडितों को कश्मीर छोड़ देने का अल्टिमेटम छापा और वहां की मस्जिदों के लाउड-स्पीकरों से कश्मीरी पंडितों को घाटी छोड़ देने की धमकियां जोर-जोर से प्रसारित की गईं, तब यह नस्लदूषित-मीडिया और वर्णसंकर-बुद्धिजीवी कहां थे? तब कहां किस बिल में दुबके थे जब कश्मीर के वरिष्ठ राजनीतिज्ञ टीका लाल टपलू की सरेआम हत्या कर दी गई थी? तब कहां थे जब रिटायर्ड जज नीलकंठ गंजू की हत्या कर उनकी पत्नी का अपहरण कर लिया गया था? आज तक जज साहब की पत्नी का पता नहीं चला। यह मैड-मेन और मीडिया का संगत तब कहां था जब श्रीनगर दूरदर्शन केंद्र के निदेशक लास्सा कौल की हत्या कर दी गई थी? तब कहां थे जब शिक्षिका गिरजा टिक्कू जैसी सैकड़ों कश्मीरी पंडित महिलाओं का सार्वजनिक सामूहिक बलात्कार हुआ और उनके सामने उनके पतियों-भाइयों-बेटों का कत्ल हुआ? गिरजा टिक्कू को जीवित ही आरे से काट डाला गया था। तब कहां थे ये दोगले-बुद्धिजीवी? लाखों कश्मीरी पंडित अपने ही देश में विस्थापित कर दिए गए, तब क्यों नहीं सुनाई पड़ीं दोगले-बुद्धिजीवियों की रुदालियां? अपने ही देश में शरणार्थी बने कश्मीरी पंडितों की अपने घर वापसी हो, क्यों नहीं प्रधानमंत्री को पत्र लिखते हैं ये फर्जी कलाकार-बुद्धिजीवी और इसे क्यों नहीं हाईलाइट करता है देश का सड़ियल मीडिया?
उदाहरणों का सिलसिला जारी है... अभी तो आपने केवल कश्मीर पर ‘मीडिया और उनके बुद्धिजीवियों’ का शातिराना रवैया देखा। अभी आपको कुछ और बताता चलूं... अमेरिका की फेडरल ब्यूरो ऑफ इन्वेस्टिगेशन (एफबीआई) ने ‘कश्मीरी अमेरिकन काउंसिल’ नामकी संस्था चलाने वाले गुलाम नबी फई को गिरफ्तार किया था। एफबीआई की रिपोर्ट कहती है कि गुलाम नबी फई पाकिस्तानी खुफिया एजेंसी आईएसआई के पैसे से कश्मीर के नाम पर भारत विरोधी गतिविधियां चलाता था और भारत के उन सभी ‘दोगले’ बुद्धिजीवियों को अमेरिका और विश्व के अन्य देशों में अय्याशियां कराता था जो कश्मीर की आजादी या अलगाववादीयत का समर्थन करते थे। आश्चर्य यह है कि इनमें वे ‘बुद्धिजीवी’ और ‘पत्रकार’ भी शामिल थे, जिन्हें भारत सरकार ने कश्मीर समस्या के समाधान के लिए वार्ताकार (इंटरलोक्यूटर्स) नियुक्त कर रखा था। गुलाम नबी फई की गिरफ्तारी के बाद जब आईएसआई के धन पर भारतीय ‘बुद्धिजीवियों’ की अय्याशियों के अध्याय खुले, तब भारतीय मीडिया और ‘बुद्धिजीवियों’ की ये प्रायोजित-रुदालियां करने वाली जमात ने चुप्पी क्यों साधे रखी थी?
कश्मीर के बाद केरल चलते हैं... भारत का केरल राज्य अरब देश का उपनिवेश बनता जा रहा है। केरल की चर्चा न मीडिया वाले करते हैं और न तथाकथित बुद्धिजीवी। जिन कुछ घटनाओं को लेकर अवार्ड वापसी से लेकर प्रधानमंत्री को पत्र लिखने तक का प्रहसन हुआ, वैसी ही अन्य घटनाओं पर मीडिया और दुर्बुद्धिजीवियों का गिरोह मौन साधे रहता है। गाजियाबाद के दादरी में अखलाक के मारे जाने पर अवार्ड वापसी की नौटंकी रची गई। अखलाक के नाबालिग हत्यारोपी को जेल में ‘लिंच’ कर मारा गया, लेकिन उस पर कोई चर्चा नहीं हुई। 22 फरवरी 2018 को केरल में आदिवासी युवक मधु को सार्वजनिक तरीके से बर्बरता से मारा गया, उसकी पिटाई से लेकर हत्या तक की वीडियो रिकॉर्डिंग की गई, लेकिन मीडिया और तथाकथित बुद्धिजीवी चुप रहा। विडंबना यह है कि मधु की पहले पिटाई की गई, लेकिन जब पता चला कि वह हिंदू है तो उसकी नृशंस हत्या की गई। इससे पहले 12 नवंबर 2017 को त्रिचूर में आईटीआई कॉलेज से लौटते समय आनंदन को बेरहमी से पीटा गया। अस्पताल में उसकी मौत हो गई। यह ‘लिंचिंग’ की घटना नहीं थी तो क्या थी? इस पर ‘दोगले-बुद्धिजीवी’ और ‘त्रिगले-पत्रकार’ चुप क्यों रहे? ऐसी जाने कितनी घटनाएं भरी पड़ी हैं, जिनकी मीडिया और तथाकथित बुद्धिजीवियों की तरफ से आपराधिक उपेक्षा की गई। 29 जुलाई 2017 को कन्नूर में ई. राजेश की सरेआम हत्या कर दी गई थी। कन्नूर में ही 18 जनवरी 2017 की रात को संतोष को उसके घर में घुस कर चाकुओं से गोद कर मारा गया था। 28 दिसंबर 2016 को कोझिकोड के पलक्कड़ में 44 वर्षीय सी. राधाकृष्णन को उनके घर में ही जिंदा जला डाला गया था। इस साल यानि 2019 के फरवरी महीने में तमिलनाडु के तंजावुर के कुम्भकोणम में पट्टाली मक्कल काची पार्टी के नेता 42 वर्षीय रामालिंगम के दोनों हाथ काट डाले गए। अत्यधिक खून बहने से उनकी मौत हो गई। उन्होंने मुस्लिम समुदाय द्वारा कराए जा रहे धर्मांतरण का विरोध किया था, इसलिए उनकी हत्या कर दी गई। यह क्या ‘लिंचिंग’ की घटना नहीं थी? इस तरह की घटनाओं की लंबी श्रृंखला है और यह सिलसिला आज भी लगातार जारी है। इन पर मीडिया और बुद्धिजीवियों की चुप्पी भी लगातार जारी है। केरल में धार्मिक विद्वेष और जबरन धर्मांतरण जैसी घटनाएं लगातार हो रही हैं। अखिला को जबरन हादिया बनाने जैसी घटनाएं आम हैं, लेकिन इस पर शातिराना चुप्पी सधी है। जबकि आधिकारिक (केरल विधानसभा में प्रस्तुत) आंकड़े बताते हैं कि पिछले एक दशक से भी कम अवधि में 2667 युवतियों का धर्मांतरण करा कर उन्हें जबरन मुस्लिम बनाया गया। कुछ गैर सरकारी संस्थाएं इस संख्या को पांच हजार से अधिक बताती हैं। कर्नाटक की एक संस्था की रिपोर्ट है कि वहां 30 हजार से अधिक लड़कियां लव-जिहाद का शिकार हुई हैं। पत्रकारों को भी यह पता है कि पॉपुलर फ्रंट ऑफ इंडिया और कैंपस फ्रंट जैसे संगठन दूसरे धर्मों की लड़कियों को बहका कर उनकी शादियां कराते हैं और उन्हें इस्लाम कबूल करने पर विवश करते हैं। यह भी उजागर हो चुका है कि कोझीकोड लॉ कॉलेज के जहांगीर रज्जाक नामके युवक ने कई मुस्लिम लड़कों का गिरोह बना कर 42 लड़कियों को फंसाया और उन्हें ब्लैकमेल करके सेक्स-रैकेट चलाने लगा। उन लड़कियों में दिल्ली की गीता भी थी। गीता को जैसे ही यह पता चला कि उसका प्रेमी विशाल असलियत में मोहम्मद एजाज है, तो उसने आत्महत्या कर ली। इस पर क्यों नहीं बोलते नौटंकी-प्रेमी बुद्धिजीवी..?
ममता बनर्जी को ‘कवर’ देने के लिए प्रधानमंत्री को प्रेम-पत्र लिखने वाले ‘बुद्धिजीवी’ और उनकी तरफदारी करने ‘पत्रकार’ इस बात पर क्यों चुप हैं कि पश्चिम बंगाल के वीरभूम जिले के नलहाटी में हिंदुओं को दुर्गा पूजा मनाने की इजाजत नहीं है। स्थानीय लोग दुर्गा पूजा के आयोजन की प्रशासन से बार-बार इजाजत मांग रहे हैं, लेकिन प्रशासन यह कह कर दुर्गा पूजा मनाने की इजाजत नहीं दे रहा है कि इससे गांव में साम्प्रदायिक तनाव फैल जाएगा। अब आप सोचिए, इस ‘बौद्धिक-षडयंत्र’ के पीछे कौन लोग हैं।
उत्तर प्रदेश के बरेली में जिला मुख्यालय से महज 70 किलोमीटर दूर स्थित मिलक-पिछौड़ा गांव में हिंदुओं के पूजा-पाठ पर एक लंबे अर्से से प्रतिबंध है। इस गांव में डेढ़ सौ घर हिन्दुओं के हैं और सात सौ घर मुसलमानों के। ...इस पर ‘मीडिया और उसके चहेते बुद्धिजीवी’ क्यों चुप हैं? अभी तक पीएम मोदी या सीएम योगी को पत्र क्यों नहीं लिखा और अब तक अखबारों और चैनलों पर यह खबर सुर्खियां क्यों नहीं बनी? यूपी के ही लखीमपुर जिले के बड़ा गांव इलाके में शिव पूजा के लिए फूल तोड़ रहे 12 साल के बच्चे निहाल शर्मा को घसीट कर अतरिया मदरसे ले जाया गया और वहां मदरसे के मौलाना और मदरसे के छात्रों ने निहाल को हैवानों की तरह पीटा। जख्मी बच्चे को गंभीर हालत में बरामद किया गया... लेकिन लिंचिंग की इस जघन्य घटना पर ‘मीडिया और उसके चहेते बुद्धिजीवी’ क्यों चुप रहे? राजधानी लखनऊ के काकोरी इलाके में पारा थाने के सदरौना गांव निवासी धर्मेंद्र रावत का परिवार पिछले एक दशक से गांव से निष्कासित है। रावत परिवार ने अपराध किया था कि घर में रामायण का पाठ आयोजित करा लिया। रामायण पाठ के दरम्यान ही उनके घर पर हमला किया गया। तोड़फोड़ की गई और पवित्र धार्मिक ग्रंथ रामायण जला दिया गया। रावत को गांव से बाहर निकाल दिया गया। पुलिस ने कुछ नहीं किया। धर्मेंद्र रावत खानाबदोश की तरह कभी इस मंदिर में तो कभी उस आश्रम में रह रहे हैं। यहां तक कि वे लंबे अर्से तक गोरखधाम में भी रहे। योगी आदित्यनाथ सारा प्रकरण जानते हैं, लेकिन तब भी कुछ नहीं किया जब वे मठाधीश थे। आज भी कुछ नहीं कर रहे, जब वे प्रदेश के मुख्यमंत्री हैं। लेकिन आज का हमारा प्रसंग यह नहीं है। आज का प्रसंग यह है कि इन घटनाओं पर मीडिया और विशेष खाल वाले बुद्धिजीवी चुप क्यों हैं..?
सोशल मीडिया और ‘व्हाट्सएप’ पर भी कई ग्रुप चल रहे हैं... कई इस्लामिक और कई छद्मी (भ्रम पैदा करने वाले) नामों से चल रहे ‘व्हाट्सएप-ग्रुप्स’ के जरिए यह संदेश फैलाया जा रहा है कि अरब देशों, मलेशिया, इंडोनेशिया और यहां तक कि पाकिस्तान और बांग्लादेश में भी हिन्दू बहुत मौज से रह रहे हैं। जबकि भारत में मुसलमानों से हिंदूवादी धार्मिक नारे लगवाए जा रहे हैं। उन्हीं ‘व्हाट्सएप-ग्रुप्स’ में हिन्दुओं की धार्मिक आस्था पर गंभीर आघात पहुंचाने वाले भौंडे शेर और कविताएं चल रही हैं... साथ-साथ इन संदेशों को अधिक से अधिक फैलाने का आह्वान भी किया जा रहा है। इन ग्रुपों को संचालित कर रहे हैं कई स्वयंभू पत्रकार और कई स्वयंभू विद्वान मौलाना। ये विद्वान मौलाना या विद्वान पत्रकार पाकिस्तान या बांग्लादेश में हिन्दुओं के साथ हो रही घोर ज्यादतियों के बारे में एक शब्द भी नहीं बोलते... कश्मीर में हिन्दुओं के साथ हुई ज्यादतियों को लेकर एक शब्द नहीं बोलते... यह भी नहीं बोलते कि भारत में मुसलमान लोकतांत्रिक अधिकारों को कितना ‘इन्जॉय’ कर रहे हैं। ईमानदारी से यह तो स्वीकार करना ही चाहिए। एक-दो आपराधिक घटनाओं का हवाला देकर अपने ही वतन को गालियां देने का चलन और तौर-तरीका अब सख्ती से बंद करना होगा। यह देश सबका है, यह किसी एक समुदाय की बपौती नहीं है। लेकिन यह बात कश्मीर और केरल में भी लागू होती है। कश्मीर और केरल किसी एक समुदाय की बपौती नहीं है। यह देश के मीडिया के लिए ‘इश्यू’ नहीं है और न तथाकथित बुद्धिजीवियों के लिए विचार-विमर्श और चिंतन का कोई मुद्दा है। कुछ मौलाना चारित्रिक विवाद में फंसे होने के कारण मुद्दे को कहीं और ले जाना चाहते हैं... इसी शातिराना इरादे से वे मुसलमानों को हथियारबंद करने की बात जोर-शोर से कर रहे हैं। जब चारित्रिक मामला नहीं था तब ये मौलाना देशभर में शांति-दूत बने फिरते थे और ‘सूफीवाद’ की वकालत किया करते थे।
ऐसे अनगिनत उदाहरण हैं जिन पर मीडिया और मीडियापसंद बुद्धिजीवियों की चुप्पी इसके पीछे खतरनाक षडयंत्रकारी दिमाग की तरफ इशारा करती है। तीन जनवरी 2016 को पश्चिम बंगाल के कालीयाचक में हुए दंगे की ये चर्चा नहीं करते, जिसमें ‘अंजुमन अहले सुन्नत उल जमात’ संगठन के लाखों मुसलमानों ने सड़क पर उत्पात मचाया था। तोड़फोड़, आगजनी और सार्वजनिक सम्पत्ति को भीषण नुकसान पहुंचाया गया था। हिंसा में तीन दर्जन से अधिक लोग गंभीर रूप से जख्मी हुए थे। इसी तरह पश्चिम बंगाल के ही धूलागढ़ में 12 दिसंबर 2016 को मुसलमानों ने जिद करके ईद मिलादुन्नबी का जुलूस एक दिन पहले ही निकाल दिया। उस दिन हिन्दू समुदाय मार्ग शीर्ष पूर्णिमा का पर्व मना रहा था। मुसलमानों के जुलूस में जोर से बजाए जा रहे लाउड स्पीकर की आवाज कम करने के लिए कहा गया तो हिन्दुओं के घर जला डाले गए और पाकिस्तान जिंदाबाद के नारे लगाए गए। तब मीडिया और बुद्धिजीवियों ने क्यों चुप्पी साध ली थी?
दलितों के प्रेमी और हिमायती बन कर हिन्दू समुदाय को कमजोर करने का कुचक्र कर रहे मुसलमानों को तमिलनाडु की घटना पर कोई दलित-प्रेम नहीं जागा, जब थेनी जिले में दलित महिला की शवयात्रा मुसलमानों को बर्दाश्त नहीं हुई और उन्होंने जम कर हिंसा की। यही हाल 21 जुलाई 2018 को राजस्थान के बाड़मेड़ जिले में हुआ जहां मुस्लिम लड़की से प्रेम करने के जुर्म में एक दलित युवक को मुसलमानों ने पीट-पीट कर मार डाला। यूपी के सिद्धार्थनगर में एक शादी समारोह के दरम्यान मुस्लिम लड़कों ने दलित युवती से छेड़छाड़ की और विरोध करने पर दलित समुदाय के लोगों पर कातिलाना हमला बोल दिया। यह घटना पिछले ही साल मई महीने की है। तथाकथित दलित-प्रेमी मुसलमानों ने आगरा में आरओ प्लांट से पानी लेने के सवाल पर एक दलित युवक को बुरी तरह पीटा। इसके बाद भी मन नहीं भरा तो दलितों के घर पर हमला बोल दिया। जबरदस्त हिंसा हुई। अंधाधुंध फायरिंग भी हुई जिसमें कई लोग घायल हुए। फरवरी 2019 में हुई इस घटना पर आपने क्या कोई ‘बुद्धिजीवीय-प्रतिक्रिया’ देखी या सुनी? इस साल अप्रैल महीने में यूपी के देवरिया में दलित समुदाय की एक युवती के यौन शोषण का विरोध करने वाले दलितों पर रहमत अली की अगुवाई में मुसलमानों ने हमला बोल दिया, दलितों को पीटा और बाबा साहब की मूर्ति तोड़ डाली। इसी तरह इस साल मई महीने में मध्यप्रदेश के देवास जिले में मुस्लिमों ने दलितों की बारात पर हमला बोल दिया। मुसलमानों को नाराजगी इस बात पर थी कि दलितों ने मस्जिद के सामने से बारात निकालने की हिमाकत कैसे की। इस हमले में एक दलित युवक धर्मेद्र सिंधे की मौत हो गई और दर्जनों दलित बुरी तरह जख्मी हुए। इसी साल जनवरी महीने में यूपी के प्रतापगढ़ में मुस्लिमों ने मंदिर का ताला तोड़ कर वहां स्थापित हनुमान जी की मूर्ति तोड़ डाली। उसी जगह नमाज पढ़ी और अल्लाह हू अकबर के नारे लगाए। यह नारे मीडिया को और मीडिया को चंदा देकर बुद्धिजीवी या कलाकार बने लोगों को सुनाई नहीं देते।
मेरे पास सौ से अधिक ऐसे मामले हैं जिसमें मुस्लिम लड़की से शादी करने पर हिन्दू युवक और उसके परिवार के लोगों को बेरहमी से मारा गया। हिन्दू युवक से शादी करने पर मुस्लिम लड़की को बुरी तरह मारा गया। यहां तक कि बुलंदशहर की एक ऐसी भी घटना के दस्तावेज मेरे सामने हैं, जिसमें गुलावटी-रामनगर के इरफान और रिजवान ने हिन्दू लड़के से प्रेम करने वाली अपनी ही बहन सलमा के मुंह पर घातक तेजाब की पूरी बोतल उड़ेल दी और छटपटाती हालत में ही उसे कोट-नहर में फेंक कर चले गए। बहुत बुरी मौत मरी सलमा। लेकिन ‘लिंचिंग’ पर ललकारते लुच्चों को सलमा की मौत कोई स्पंदन नहीं देती। कितना लिखें..! इतने तथ्य और इतनी सूचनाएं हैं कि पूरी किताब लिख जाए... इन तथ्यों और दस्तावेजों से गुजरते हुए मैं साथ-साथ इस बात की भी छानबीन करता रहा कि इनमें से कितनी घटनाएं मीडिया ने प्रमुखता से उठाईं... एक भी नहीं। आपने क्या यह खबरें अखबारों की या चैनलों की सुर्खियां बनते देखीं..? क्या आपने सुना किसी ‘बुद्धिजीवी’ ने इस पर प्रधानमंत्री या मुख्यमंत्री को पत्र लिखा हो..? अब बंद करता हूं लेखन... पर, चिंतन नहीं..! चिंतन-धारा रुकनी नहीं चाहिए... आप भी शरीक हों...
...
भारत का इतिहास ऐसे ही ‘छद्म-बौद्धिकों’ से लिखा हुआ,
भारत का वर्तमान ऐसे ही मक्कार बुद्धि से छला हुआ,
भारत का आवाम लहू-लुहान, घनघोर विपद में हांफ रहा,
उम्मीदें सारी कत्ल हुईं, फिर भी वह आस में ताक रहा।
शासक नहीं, लुटेरों से शासित-शापित यह देश रहा,
धर्म-छद्म पर व्यभिचारों का यहां हुआ आखेट रहा,
वतन यहां, पर वफा नहीं, नस्लों का ऐसा फेंट रहा।
चील-गिद्ध की तरह खबरियों की है कैसी छीना झपटी,
मुंह पर अक्षर लीपे-पोते, बुद्धिजीवी झूठे और कपटी।
नई कलम से नई नस्ल को नया वतन अब रचना होगा,
बुद्धि चेतना और विवेक से शत्रु-मित्र परखना होगा।
मशाल लिए हम चल पड़े सफर पर...
तुम भी आओ, तुम भी आओ...
सपने को सच करना होगा...
नया वतन अब रचना होगा।।
 - प्रभात रंजन दीन...

Saturday 20 July 2019

हम अगर मिल जाएं तो, कलम को परचम बना दें...

प्रिय साथियो..!
अखबारनवीस हूं तो देश, दुनिया, समाज को उसी ‘प्रिज़्म’ से देखने की प्रकृति बन गई है। हमारे आपके इर्द-गिर्द जो कुछ भी हो रहा है, हमारे आपके सरोकारों को प्रभावित करने वाली जिस तरह की घटनाएं हो रही हैं और उन घटनाओं पर जिस तरह का हमें नकारात्मक सत्ताई-लालफीताई ‘रेस्पॉन्स’ मिल रहा है उसके खिलाफ कोई लोकतांत्रिक प्रतिरोध क्या आप सुन रहे हैं, पढ़ रहे हैं या देख रहे हैं..? मैं राजनीतिक-प्रतिरोध की बात नहीं कर रहा। राजनीतिक-प्रतिरोध नैतिक और पवित्र होता तो विपक्ष की ऐसी दुर्दशा थोड़े ही होती। मैं राजनीतिकों की बात नहीं कर रहा। वे इस लायक बचे ही नहीं हैं कि हम नेताओं की बात करें या उस जमात को गंभीरता से लें। लोकतांत्रिक-प्रतिरोध अखबार, रेडियो और समाचार चैनलों की तरफ से होना चाहिए। तभी तो सम्पूर्ण समाज एकजुट प्रतिरोध के लिए खड़ा होने का साहस जुटा पाता है..! लेकिन देखिए, चारों तरफ सन्नाटा है। इस सन्नाटे को तोड़ रहे हैं केवल भांड। पत्रकारों के वेश में भांडों की भीड़ अब मीडिया कहला रही है। ये ही भांड हर तरफ छाए हुए हैं और सत्ता का चारण-गायन परोस रहे हैं। हम आप किसी संदेह या भ्रम में न रहें... कुछ लोग जो ‘ईश’-निंदा करते नजर आते हैं, वे भी भांडों की ही ‘इनडायरेक्ट’ जमात के हैं। इनकी निंदा भी कुछ खास-खास ‘मठों’ से प्रायोजित हैं, ठीक उसी तरह, जैसे भांड-गायन ‘सत्ता-मठ’ से प्रायोजित हो रहे हैं। दोनों किस्म के भांडों का अर्थ-सामर्थ्य देखेंगे तो आप चक्करघिन्नी हो जाएंगे। आप इनकी आलीशान जिंदगी में झांक कर तो देखिए..! ज़रा कायदे से छानबीन तो करिए..! 
खैर, अलग-अलग नस्लों के भांडों की भीड़ में जो अहम सवाल धक्के खा रहा है और जिसकी शातिराना-उपेक्षा की जा रही है वह यह है कि क्या स्वस्थ-प्रशंसा और स्वस्थ-आलोचना का नैतिक संस्कार भारतीय लोकतंत्र से बिल्कुल ही खत्म हो गया है..? क्या अब यह मान लिया जाए कि प्रायोजित-प्रशंसा और प्रायोजित-निंदा ने उसका स्थान छीन लिया है और हम चुप बैठ जाएं..? स्वस्थ-आलोचना और स्वस्थ-प्रशंसा वही कर सकता है जिसने धन-पद के लिए अपनी नैतिकता नहीं बेची हो। नैतिकता किसी भी मनुष्य के लिए उसकी मां-बहन-बेटी जैसी ही तो पवित्र और महत्वपूर्ण होती है..! हम सब खुद को इस कसौटी पर कस कर देखें और परिणाम की स्व-समीक्षा कर लें। इस कसौटी पर कस कर, घिस कर, निखर कर सामने आने वाले लोगों की कमी नहीं है। कमी यह है कि निखरे हुए लोग इतने बिखरे हुए हैं कि ‘बेचुओं’ की एकजुट जमात ने इन पर ग्रहण लगा रखा है। आप संस्थागत दृष्टि से देखें, सामाजिक दृष्टि से देखें या राजनीतिक दृष्टि से देखें... आप किसी भी एंगल से देखें, आपको यही दिखेगा। ...इसका ताकतवर प्रतिरोध जरूरी है। नैतिकता की प्राकृतिक-धारा पर चलने वाले निखरे स्वच्छ लोगों को इसके लिए आगे आना ही होगा। अब नहीं तो कब?
हम ऐसे निखरे लोगों का लखनऊ में जल्दी ही एक जमावड़ा जुटाने के बारे में सोच रहे हैं... केवल पत्रकार नहीं, समाज के अलग-अलग क्षेत्रों, विधाओं के लोग जुटें... विचार करें कि मीडिया समाज में जो जहर फैला रहा है, लोगों को दिग्भ्रमित कर रहा है, बहका रहा है, ले जाना है कहीं और लेकिन कहीं और ही लिए चला जा रहा है, शातिर सत्ता और मक्कार नेताओं के साजिशी-निर्देशन में समाज को भटका रहा... आखिर इसका विकल्प क्या हो..! आखिर इस नियोजित षडयंत्र की काट कैसे निकले..! आखिर समाज के लोग क्या चाहते हैं; किस तरह का प्रिंट-मीडिया हो, किस तरह का टीवी-मीडिया हो, किस तरह का रेडियो-मीडिया हो..! केवल सोचें नहीं, बल्कि उस विकल्प को जमीन पर उतारने और कारगर करने की ओर भी उन्मुख हों। ऐसा होगा तभी तो अगले क्रम में समाज यह तय कर सकेगा कि किस तरह का नेता हो, किस तरह का अफसर हो, किस तरह का जज हो और किस तरह का नागरिक हो..!
जो साथी यह मानते हों कि उनके लिए नैतिकता पूजा और प्रार्थना है, जिनके लिए देश-समाज प्राथमिक है और जिनके लिए कर्म-योग सर्वोत्कृष्ट है... वे अपना विचार भेजें, लखनऊ आने के बारे में मन बनाएं और उसके आगे का रास्ता तय करने के लिए अपनी दृढ़ता जताएं। जुटने की तारीख हमलोग बाद के क्रम में तय कर लेंगे। समवेत साथ चलने की समय की मांग को हम समझें अन्यथा मेरे इस विचार या पहल को आप पागलपन, यूटोपियन, साइको या ऐसी ही किसी ‘बीमारी से ग्रस्त’ समझ कर खारिज भी कर सकते हैं... निर्णय आप पर है...
आप सबको हृदय से शुभकामनाएं देता हूं... प्रभात रंजन दीन