Friday 19 March 2021

योगी के ड्रीम-प्रोजेक्ट में भ्रष्टाचार की सेंध

उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की स्वप्न-परियोजना के साकार होने के पहले ही उसमें भ्रष्टाचार की सेंध लग गई।
गोरखपुर चिड़ियाघर में हुई नियुक्तियों में घोटाले का ग्रहण लग गया है। सरकार ने भ्रष्टाचार रोकने और व्यवस्था को पारदर्शी बनाने के इरादे से जेम-पोर्टल की प्रक्रिया शुरू की, लेकिन भ्रष्टाचारी अफसरों ने उसमें भी अनगिनत छेद कर डाले। अब जेम-पोर्टल सिस्टम से भ्रष्टाचार हो रहा है। गोरखपुर चिड़ियाघर में की गई नियुक्तियों में ऐसा ही हुआ। चिड़ियाघर के ऊंचे पदों पर तो वन विभाग के अफसर प्रतिनियुक्ति पर आकर बैठ गए, पर नीचे के अधिकारियों और कर्मचारियों को गैस और तेल की सप्लाई की तरह पाइप लाइन में डाल दिया। मानव संसाधन सप्लाई करने वाली एजेंसियां अपनी मर्जी की चुन लीं या बना लीं और उनके जरिए नियुक्तियों में खूब घपला किया। गोरखपुर चिड़ियाघर में नियुक्तियों के बहाने वन विभाग ने जेम-पोर्टल के जरिए लखनऊ मुख्यालय, कानपुर जूलॉजिकल गार्डेन समेत तमाम जगहों पर नियुक्तियों का खेल कर डाला। नियुक्तियों में घोटाले का खेल उजागर तो हुआ, लेकिन शीर्ष नौकरशाही के स्तर से उसे दबाने की भरपूर कोशिश हो रही है। पूछताछ, छानबीन और जवाब-तलब की औपचारिकताओं में मामला उलझाया जा रहा है। मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ को इन तथ्यों से पूरी तरह अनभिज्ञ रखा जा रहा है। आप खबर देखेंगे तो नौकरशाहों का पूरा खेल समझ में आएगा।
प्रदेश में जितने भी चिड़ियाघर बन रहे हैं, सरकार उनका सरकारीकरण कर रही है। केवल लखनऊ चिड़ियाघर को अछूत बना कर रखा गया है, जबकि प्रदेश में जितने भी चिड़ियाघर बन रहे हैं, उन्हें लखनऊ चिड़ियाघर से ही सपोर्ट मिल रहा है। कर्मचारियों की ट्रेनिंग से लेकर वन्य प्राणियों की आपूर्ति तक में लखनऊ चिड़ियाघर का सबसे अधिक योगदान रहता है। इसके एवज में लखनऊ चिड़ियाघर को सत्ता और नौकरशाही अंगूठा दिखा देती है। 1921 में ही स्थापित लखनऊ चिड़ियाघर को आज तक अंगूठा ही दिखाया जाता रहा है। इसका सरकारीकरण नहीं किया गया, लेकिन शोषण भरपूर होता रहा। लखनऊ चिड़ियाघर पहले प्रिंस ऑफ वेल्स जूलॉजिकल गार्डेन ट्रस्ट के तहत था, सरकार ने उसका नाम बदल कर लखनऊ प्राणि उद्यान ट्रस्ट कर दिया। चिड़ियाघर को चूसते रहने का यंत्र और तंत्र अपने हाथ में रखा, पर चिड़ियाघर के अधिकारियों-कर्मचारियों को लावारिस छोड़ दिया। लखनऊ चिड़ियाघर के अधिकारियों-कर्मचारियों की आजीविका चिड़ियाघर आने वाले दर्शकों द्वारा खरीदे गए टिकट से होने वाली आय से चलती है। यह सत्ता-व्यवस्था की खुली बेइमानी है, जिसे देखिए, सहन करिए और आजाद होने की फंतासी में डूबिए उतराइये...
प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने अपने जन्म-जनपद इटावा में लायन-सफारी बनवाया और उसका सरकारीकरण किया। वर्तमान मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने उसी तर्ज पर अपने कर्म-जनपद गोरखपुर में चिड़ियाघर की स्थापना कराई और उसका सरकारीकरण किया। लेकिन इन दोनों मुख्यमंत्रियों ने लखनऊ के नवाब वाजिद अली शाह प्राणि उद्यान को अनाथ छोड़ दिया। सत्ताधारियों और नौकरशाहों ने लखनऊ चिड़ियाघर को अपनी मौज-मस्ती का अड्डा बना कर रखा, लेकिन 1921 में स्थापित लखनऊ चिड़ियाघर के सरकारीकरण की तरफ कोई ध्यान नहीं दिया। जबकि बाद के बने सभी चिड़ियाघर सरकारी हैं। आजादी के 26 साल पहले स्थापित हो चुके लखनऊ चिड़ियाघर के सरकारीकरण की फाइल सरकार ने आज तक दबा रखी है। लखनऊ चिड़ियाघर के कर्मचारी क्या खाएंगे, उनका परिवार कैसे चलेगा और किन स्थितियों में वे चिड़ियाघर के जानवरों की देखरेख करेंगे, इसके बारे में सरकारों ने कभी कोई चिंता नहीं की।
कोरोना लॉकडाउन में लखनऊ चिड़ियाघर भीषण आपदा का शिकार हुआ। चिड़ियाघर बंद तो टिकट बिकना बंद... टिकट बिकना बंद तो चिड़ियाघर के अधिकारियों कर्मचारियों का चूल्हा-चौका बंद। जबरदस्त अफरातफरी की स्थिति आ गई... कई कर्मचारियों को नौकरी गंवानी पड़ी। चिड़ियाघर के निदेशक तक को समाज से मदद की अपील करनी पड़ी। लेकिन सरकार ने इस पर कोई ध्यान नहीं दिया। दरअसल, केंद्र से लेकर राज्य सरकार तक के सत्ता अलमबरदार कोरोना-काल में मानवीय संवेदना, सहानुभूति और सहयोग की तमाम शब्दावलियों का रट्टा मारने में ही व्यस्त थे... इसीलिए आप उनके मुंह से यह कभी नहीं सुन पाए कि चिड़ियाघर का टिकट बेच कर घर चलाने वाले लखनऊ चिड़ियाघर के कर्मचारियों के घरों में सरकार ने चूल्हा जलाने का कोई इंतजाम किया हो। हां, शीर्ष नौकरशाहों ने कर्मचारियों को निकाल देने या चिड़ियाघर बंद कर देने की सलाह जरूर दी।
कहने को तो लखनऊ चिड़ियाघर ट्रस्ट का है... लेकिन सारी निर्णायक कुर्सियों पर वन विभाग के अधिकारी काबिज हैं और लगाम आईएएस अधिकारियों के हाथ में है। लखनऊ चिड़ियाघर ट्रस्ट का है। ट्रस्ट सरकार का है। चिड़ियाघर का कमांड एंड कंट्रोल सरकार के हाथ में है... लेकिन चिड़ियाघर के अधिकारियों और कर्मचारियों की सैलरी और भत्ते की बात हो तब वे ट्रस्ट के हो जाते हैं... जिन्हें टिकट बेच कर पेट भरना पड़ता है। चिड़ियाघर के अधिकांश अधिकारी कर्मचारी एढॉक पर ही काम करते हुए रिटायर हो जाते हैं, उन्हें न कोई ग्रैच्युइटी मिलती है न कोई भत्ता। यहां तक कि वन्य जीवों के बीच काम करने वाले कर्मचारियों का न कोई बीमा है और न जानवरों से जख्मी होने वाले कर्मचारियों के इलाज का कोई इंतजाम है। ऐसे कई हादसे हो चुके हैं। जिनके साथ हादसा हुआ उन्होंने अपना इलाज खुद कराया। लखनऊ चिड़ियाघर के लिए समर्पित रहे डॉ. आरके दास वर्ष 1995 में गैंडे के हमले में शहीद हो गए... लेकिन सरकार पर इसका कोई असर नहीं पड़ा। जान जोखिम में डाल कर नरभक्षी शेर, बाघ या तेंदुआ चिड़ियाघर के अधिकारी कर्मचारी पकड़ते हैं, लेकिन नौकरशाह अपना नाम बता कर, नाम छपवा कर और फोटो खिंचवाकर श्रेय झटकने में तनिक भी नहीं शर्माते।