Friday 6 June 2014

सत्ता पाने की आशा... बलात्कार पर तमाशा

प्रभात रंजन दीन
भारतीय जनता पार्टी ने लोकसभा चुनाव में जीत हासिल कर ली तो उसे अब राज्यों की भी सत्ता दिखने लगी है। खास तौर पर उत्तर प्रदेश की सत्ता के स्वाद के तो क्या कहने! राजनीतिक सिद्धान्तों का यही विद्रूप है, जो भारतीय लोकतंत्र को घुन की तरह खाता रहता है। केंद्र में भाजपा की सत्ता बनते ही और लोकसभा चुनाव में बसपा-कांग्रेस का ढक्कन बंद होते ही उत्तर प्रदेश की कानून व्यवस्था चौपट हो गई। सारे अपराध उत्तर प्रदेश में ही होने लगे। उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री अचानक नाकारा हो गए और सारी स्थितियां समाजवादी पार्टी के खिलाफ हो गईं। हद हो गई सस्ती राजनीति की। जो जीता वह सिकंदर बनने की कोशिश कर रहा है और मजाकिया स्थिति यह है कि जो लोकसभा चुनाव में कहीं का नहीं रहा, वह भी सिकंदर बनने की कोशिश में भगंदर जैसी अपनी स्थिति कर ले रहा है। भाजपा अगर कोई राजनीतिक लाभ पाना चाहती है तो उसके तर्क हैं, लेकिन मायावती और राहुल गांधी जैसे नेताओं की कूद-फांद का कोई तर्क नहीं है, फिर भी महत्वाकांक्षा और जिजिविषा कहां पीछा छोड़ती है! सब लोग जीतोड़ कोशिश कर रहे हैं कि उत्तर प्रदेश में ऐसी अराजकता का सृजन हो कि राष्ट्रपति शासन की मांग तार्किक शक्ल ले सके। फिर चुनाव करा लिए जाएं और लोकसभा चुनाव के हालिया मूड का फायदा उठा लिया जाए। मायावती ने कहा कि उत्तर प्रदेश में राष्ट्रपति शासन लागू हो। राहुल गांधी बदायूं गए तो उन्होंने भी राष्ट्रपति शासन का राग अलापा। फिर भाजपा नेताओं ने भी प्रदेश में राष्ट्रपति शासन लागू करने की बात कहनी शुरू कर दी। अब प्रदेश में बलात्कार जैसी जरायम घटना पर कारगर अंकुश पर कोई बात नहीं कर रहा, हर नेता बस यूपी में राष्ट्रपति शासन लग जाए, इसी की बात कर रहा है। पूरी सियासत राष्ट्रपति शासन के इर्द-गिर्द घूम रही है, क्योंकि भाजपा को अब प्रदेश में भी सत्ता की जलेबी लटकी हुई दिख रही है। भाजपा सांसद और पूर्व गृह सचिव आरके सिंह ने बदायूं पर अपनी विद्वत प्रतिक्रिया जाहिर करते हुए कहा कि राष्ट्रपति शासन के लिए यह बिल्कुल सही केस है। सिंह ने तो यूपी को पूरी तरह से विफल राज्य ही बता दिया, जहां कानून व्यवस्था है ही नहीं। पूर्ण बहुमत की सरकार को अस्थिर करने का असंवैधानिक बालहठ भारतीय राजनीति के विदूषकीय होने का खतरा दिखाता है। इतनी भी अतिवादी लालसा की राजनीति उचित नहीं, भाजपा नेताओं को इसका ख्याल तो रखना ही चाहिए। बदायूं घटना के बाद केंद्र की नई-नवेली भाजपाई सरकार ने फौरन घूंघट खोल कर फेंटा बांध लिया और सक्रिय हो गई। उसने मौके का फायदा उठाने की पूरी कोशिश की। नए केंद्रीय गृह मंत्री राजनाथ सिंह ने भी यूपी सरकार को लताड़ लगाने में देरी नहीं की और आनन-फानन यूपी के राज्यपाल से मुलाकात भी कर ली। यहां तक कि उन्होंने उत्तर प्रदेश के डीजीपी को फोन कर जरूरी निर्देश भी देने शुरू कर दिए। इतनी भी मर्यादा नहीं रखी कि प्रदेश में किसी अन्य पार्टी की सरकार है। इससे शह पाकर केंद्रीय गृह राज्यमंत्री किरण रिजिजु भी बातबहादुरी के रिंग में कूद पड़े। राजनीति में इतना उत्साह भी ठीक नहीं होता। उत्साह के इस अतिरेक में भाजपाइयों ने यह भी नहीं देखा कि बदायूं बलात्कार की पीड़िता बहनें दलित नहीं बल्कि शाक्य जाति की थीं। मायावती ने शुरुआत में यह कहा भी कि पीड़ित लड़कियां दलित नहीं, शाक्य जाति की हैं। लेकिन बाद में राजनीति दलित-धारा में जाती देख उन्होंने भी मुंह बंद कर लिया और आंखें मूंद लीं और केंद्र सरकार दलित-पतंग उड़ाने में लगी रही। भाजपाइयों और कांग्रेसियों को इतना भी होश नहीं रहा कि दलित-मुद्दा उठाने के पहले बदायूं के भुक्तभोगियों की जाति पता कर लेते। बलात्कार या किसी भी अपराध का जाति से कोई लेना-देना नहीं होता। फिर भाजपाई या अन्य नेता दलित-दलित क्यों चिल्लाते रहे? भाजपा नेताओं के आचरण से यह साफ हो गया कि सामाजिक समस्या के प्रति नेताओं का आग्रह है या सियासत के प्रति।
जहां तक मुख्यमंत्री द्वारा सख्त कार्रवाई और सीबीआई से जांच कराने का फैसला लेने का प्रसंग है, उसमें उत्तर प्रदेश सरकार ने कोई कोताही नहीं की। मुआवजे और गिरफ्तारी की औपचारिकताएं साथ-साथ चलती रहीं, लेकिन सियासतदानों ने इन दोनों कार्रवाइयों पर जमकर राजनीति की। अतिरिक्तनिंदा का प्रस्ताव जारी करने की सियासत कभी-कभी उल्टा मारती है। यह हथियार 'बूम रैंग' भी करता है। भारतीय लोकतंत्र के इतिहास में ऐसा कई बार हो चुका है। आपातकाल की नाराजगी के बाद जब देश ने जनता पार्टी की केंद्र में सरकार बनाई, तब सारे राजनीतिक दल इंदिरा गांधी के खिलाफ हाथ धोकर पड़ गए थे। हर तरफ इंदिरा गांधी की निंदा। ...और इस पर इंदिरा गांधी का मौन। इंदिरा के किसी करीबी पत्रकार ने उनसे उनके मौन के बारे में पूछा और यह जानना चाहा कि वे ऐसी खबरों का खंडन क्यों नहीं करतीं, या अपनी प्रतिक्रिया क्यों नहीं जतातीं। इस पर इंदिरा गांधी पहले मुस्कुराईं और कहा, 'ये अतिवादी निंदा के प्रस्ताव ही मुझे दोबारा पूरी ताकत से सत्ता की तरफ ले जा रहे हैं, तो मैं क्यों बोलूं!' और ऐसा ही हुआ, अगले ही लोकसभा चुनाव में उसी देश ने इंदिरा गांधी की गम्भीरता और धैर्यता को धारण कर लिया और उन्हें पूरी ताकत से केंद्र की सत्ता पर आसीन करा दिया। जनता के पास अधिकार नहीं होता। कुछ करने की औकात नहीं होती। वह पांच साल में एक बार वोट देती है, लेकिन देती है तो मजे भी चखा देती है। इसे दोनों कोण से देखे जाने की जरूरत है। इसीलिए, जीत के अतिरिक्त उत्साह में राजनीति की मर्यादा नहीं लांघनी चाहिए। जो सामाजिक-मनोवैज्ञानिक मसले हैं, उनके निवारण के लिए गम्भीरता से विचार करने और उपाय करने पर बात होनी चाहिए। अपराध स्थितिजन्य घटना होता है। अपराध होने के बाद ही कार्रवाई का नम्बर आता है। अपराध न हो, यह सामाजिक-मनोविज्ञान के दायरे में आता है और उस पर उस तरह से पहल करने की जरूरत होती है। दिल्ली बलात्कार कांड के बाद बलात्कार के नियम-कानून अत्यंत सख्त बना दिए गए, फिर क्यों और तेजी से हो रही हैं बलात्कार की घटनाएं? यह सवाल सामने इसलिए आता है कि देश के नेता मुद्दे को कहीं और मोड़ देने में विशेषज्ञ होते हैं। असली नुक्ते पर चोट करना नेता चाहते ही नहीं। नेता समस्या का समाधान नहीं चाहते, केवल घमासान चाहते हैं। नेताओं की तो दुकान चलनी चाहिए, कभी साम्प्रदायिकता पर, कभी धर्म निरपेक्षता पर, कभी जातीयता पर, कभी चमत्कार पर तो कभी बलात्कार पर। देश में लोकतंत्र को लेकर लोगों में जो नई उम्मीद जगी है, भाजपाइयों को उसे बना कर रखना चाहिए, अगर उसे लम्बी दूरी और लम्बे समय तक की राजनीति करनी हो तो।
उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री का भी प्राथमिक कर्तव्य है कि वे प्रशासन पर अपनी पकड़ बनाएं। इतनी सख्ती बरतें कि अपराध हो तो केवल अपराधी ही नहीं बल्कि अधिकारी भी हतप्रभ रह जाए, कांप जाए। यूपी शासन में जो अराजकता फैली है, वही विरोधियों की सियासत को ऑक्सीजन दे रही है, अखिलेश यादव को यह भी समझ में आना चाहिए... 

Friday 30 May 2014

शैक्षणिक योग्यता जरूरी मुद्दा है...

प्रभात रंजन दीन
स्मृति इरानी की शैक्षणिक योग्यता को लेकर तमाम बहसें चल रही हैं। विरोध और बचाव में तर्क-वितर्क हो रहे हैं, लेकिन मुद्दे की बात कोई नहीं कह रहा है। एक बार का वाकया है प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी लखनऊ आए थे। राजभवन में उनकी प्रेस कॉन्फ्रेंस थी। इसके कुछ ही दिन पहले गुजरात में भीषण भूकम्प आया था और 26 जनवरी के दिन ही हजारों बच्चे गणतंत्र दिवस की खुशियां मनाते हुए मारे गए थे। अटल जी से सवाल पूछा गया कि गणतंत्र दिवस पर असंख्य बच्चों की मौत क्या गणतांत्रिक भारत में राष्ट्रीय शोक का विषय नहीं बनती? अटल जी ने पहले तो इसे टालने की कोशिश की, लेकिन सटीक सवाल का सटीक जवाब देने का आग्रह करने पर उन्होंने कहा, 'चूक हो गई।' उन्होंने अपनी भूल स्वीकार की और माना कि यह बात विचार में नहीं आ पाई, यह सरकार की गलती थी। नेताओं में इतना आत्मबोध कहां रहता है कि अपनी भूल पर उसे ग्लानि हो और वह सार्वजनिक मंच पर यह कह पाए कि 'चूक हो गई'! स्मृति इरानी को देश का मानव संसाधन मंत्री बनाए जाने पर नरेंद्र मोदी को उसी तरह सार्वजनिक मंच पर आकर यह कहना चाहिए था कि 'चूक हो गई'। अपनी गलती मानने के बजाय उस पर थोथे तर्क गढ़ना बौद्धिकता का नाजायज इस्तेमाल है। बौद्धिकता के जायज सकारात्मक इस्तेमाल को लेकर ही तो देश चिंतित है। देश की तथाकथित आजादी के बाद से योग्यता और मेधा को ताक पर रखने का ही तो धंधा होता रहा। आरक्षण और प्रति आरक्षण कर कर के देश का कबाड़ा निकाल दिया गया। देश के नागरिक को योग्य बनाने के बजाय उसे और पंगु बना दिया गया और बृहत्तर समुदाय को इस देश में परजीवी कीड़ा बना कर रख दिया गया। इस समुदाय का पूरा आत्मविश्वास आरक्षण खा गया और अब इसकी लत इतनी पड़ चुकी कि योग्यता और मेधा पर बात भी लोगों को वर्गीय और वर्णीय लगने लगी है। इस देश का इससे अधिक और क्या नुकसान हो सकता है! शैक्षणिक योग्यता और नेतृत्व क्षमता दोनों अलग-अलग योग्यताएं हैं। लेकिन है योग्यता ही। लिहाजा योग्यता के आधार पर बात कैसे नहीं होगी! जहां तक स्मृति इरानी की शैक्षणिक योग्यता का सवाल है, यह योग्यता-विवाद से अधिक किसी बड़े राजनेता का सीधा सीधा अपमान है। एक अयोग्य व्यक्ति को मानव संसाधन जैसे बौद्धिक मंत्रालय का मंत्री बनाया जाना, डॉ. मुरली मनोहर जोशी समेत उन तमाम योग्य और मेधावी मंत्रियों का अपमान है, जो मानव संसाधन मंत्री के पद पर आसीन रहे हैं। प्रमुख बुद्धिजीवी और विद्वान डॉ. मुरली मनोहर जोशी को आज कैसा लग रहा होगा कि कभी यह मंत्रालय उनकी विद्वत क्षमता से प्रकाशित होता था, आज उस पर औसत शैक्षणिक योग्यता और वह भी घनघोर विवाद में घिरी योग्यता धारण करने वाला एक व्यक्ति महज इसलिए आसीन हो गया कि वह प्रधानमंत्री का खास है! यह दुर्भाग्यशाली दिन के संकेत हैं, जो अभी से मिलने शुरू हो गए हैं। राजकाज जिद और अहं पर नहीं चलता। राजकाज बुद्धिमानी और विनम्रता से चलता है। शैक्षणिक योग्यता में कम और उस पर शपथपत्र में झूठी सूचनाएं दर्ज करने का मामला सामने आने पर प्रधानमंत्री को खुद ही आगे आकर मंत्री को मानव संसाधन मंत्रालय से हटा कर किसी अन्य विभाग में तैनात किए जाने का फैसला सुनाना चाहिए था। स्मृति इरानी को मंत्री नहीं बनाने की बात किसी ने नहीं की है। जिस विभाग को सामान्य पढ़े लिखे होने से और नेतृत्व क्षमता से चलाया जा सकता है, उसका मंत्री बना देते, लेकिन शिक्षा के साथ ऐसा मजाक कतई उचित नहीं। भारतीय संस्कृति में मेधा और योग्यता को बहुत तरजीह दी गई है और इसी मेधा ने ऐसे ऐसे वेद उपनिषद रच डाले, जिस पर आज तक दुनिया शोध में ही लगी पड़ी है। बाद में उसी भारतीय संस्कृति के उच्छिष्ठों ने योग्यता को हाशिए पर रख कर देश के साथ षडयंत्र किया और आरक्षण जैसी बेजा राजनीति का बीज बोकर पूरे देश को सड़ा दिया। पंचतंत्र की एक कथा है। आप सब जानते ही हैं कि पंचतंत्र का भारतीय साहित्य की नीति कथाओं में श्रेष्ठ स्थान है। पंचतंत्र की रचना विष्णु शर्मा जैसे परम विद्वान ने की थी। उन्होंने एक राजा के मूर्ख बेटों को शिक्षित करने के लिए इस पुस्तक की रचना की थी। पांच अध्याय में लिखे जाने के कारण इस पुस्तक का नाम पंचतंत्र रखा गया। इस किताब में जानवरों को पात्र बना कर कई सांकेतिक और शिक्षाप्रद बातें लिखी गईं। इसमें मुख्य रूप से पिंगलक नामक सिंह के सियार मंत्री के दो बेटों दमनक और करटक के बीच के संवादों और कथाओं के जरिए व्यवहारिक ज्ञान की शिक्षा दी गई है। उसी में एक कहानी है 'चोट को समझा वीरता की निशानी'। इस कहानी में है कि किसी नगर में एक कुम्हार रहता था। एक बार वह नशे की हालत में दौड़ते समय लड़खड़ा कर गिर पड़ा। उसके सिर पर घाव लग गया। लापरवाही से घाव बढ़ता गया और महीनों बाद मुश्किल से ठीक हुआ। तभी वहां अकाल पड़ गया। कुम्हार अपना नगर छोड़ परदेश चल पड़ा। भटकता-भटकता एक दिन वह जीविका की आशा से राज दरबार में आ पहुंचा। उसके माथे पर चोट का गहरा निशान देखकर राजा ने सोचा, 'यह अवश्य कोई बहादुर व्यक्ति है। इसके माथे पर इतना बड़ा घाव अवश्य वीरतापूर्वक किसी से युद्ध करते समय ही लगा होगा।' राजा ने बिना उसकी योग्यता जाने या परीक्षा लिए बगैर ही उसे अपनी सेना में ऊंचा पद दे दिया। साथ ही राजा ने उसे अपना विशेष कृपापात्र भी बना लिया। उसे राजा से इतना मान-सम्मान पाते देख दूसरे मंत्री उपेक्षित महसूस करने लगे। एक बार राजा को युद्ध की तैयारी करनी पड़ी। जब सारे योद्धा लड़ाई के लिए तैयार हो रहे थे तो राजा ने असमंजस और उहापोह में पड़े अपने उस चहेते 'सेनापति' से पूछा, 'भद्र तुम्हारा नाम क्या है, और तुम्हारे सिर पर यह घाव किस युद्ध में लगा था?' राजा का 'चहेता सेनापति' राजा के चरणों में लोटने लगा और असली बात बताई। राजा ने कुम्हार को किसी यथोचित कर्म पर लगा दिया। उससे कुछ कहा नहीं। लेकिन राजा को अपने किए पर बड़ी लज्जा आई कि वह इतने दिन तक शूरवीरों और योग्य मेधावी मंत्रियों की उपेक्षा करता रहा। राजधर्म को जो समय रहते नहीं पहचानेगा, वह उसी राजा की तरह भूल करेगा। ...जैसा नरेंद्र मोदी अभी कर रहे हैं। 

Sunday 25 May 2014

पांच साल बीतने में अधिक वक्त नहीं लगता...

प्रभात रंजन दीन
लोकसभा चुनाव खत्म हो चुका और परिणाम आने के बाद नई सरकार का गठन भी होने जा रहा है। अब देश का ध्यान उस तरफ है कि नई सरकार देश के लिए क्या करने जा रही है। चुनाव में पूंजीवादी राजनीति के सारे हथकंडे दिखाई पड़े, लिहाजा देश की जनता इस आशंका में है कि गहरी मंदी, वीभत्स महंगाई और गहन वित्तीय संकट का शिकार देश इस चंगुल से बाहर निकल पाएगा कि नहीं! इससे निकलने का कोई उपाय आम नागरिक को तो नजर नहीं आ रहा है। दस साल से सत्ता में मौजूद कांग्रेस की उदारीकरण-निजीकरण की नीतियों का खामियाजा जनता को भुगतना पड़ा और लगातार भुगतना पड़ रहा है। बाकी कसर रिकार्ड तोड़ घपलों-घोटालों ने पूरा किया। कांग्रेस को उम्मीद थी कि चुनाव नजदीक आने पर लोक-लुभावन योजनाओं का पिटारा खोलकर वह जनता को फिर से बरगलाने में कामयाब हो जाएगी। लेकिन घनघोर त्रासदी ने जनता में ऊब पैदा कर दी और उसने अचानक अविस्मरणीय फैसला कर लिया। इसमें न केवल कांग्रेस बल्कि सपा, बसपा, जदयू जैसे तमाम दक्षिणपंथी दलों के साथ-साथ मजदूरों की रहनुमा बनने वाली वामपंथी पार्टियां भाकपा-माकपा के नेता भी धूल ही चाटते नजर आए। पिछले चुनाव के समय यही लोग जयललिता की 'मौसेरी बहन' मायावती को प्रधानमंत्री बनाने के लिए डोली के कहार बने हुए थे। और इस चुनाव में भी तीसरा मोर्चा बनाने का प्रहसन खेल-खेल कर कभी मुलायम तो कभी नीतीश तो कभी नवीन पटनायक तो कभी ममता बनर्जी तक को प्रधानमंत्री बनवाने का ठेका ले रहे थे। आपने यह भी देखा कि बिहार में नीतीश के इस्तीफे के जरिए लालू-नीतीश-सोनिया की खिचड़ी जनता के सामने कैसे आ गई, जो पिछले लम्बे अरसे से पक रही थी। राजनीतिक परिदृश्य में अचानक उभरे अरविंद केजरीवाल की आम आदमी पार्टी ने भी लोगों की उम्मीदों पर पूरा पानी ही फेर दिया। दरअसल 'आपा' को दिल्ली विधानसभा चुनावों में मिली अप्रत्याशित कामयाबी ने केजरीवाल टीम की अंधी महत्वाकांक्षा को मुद्रास्फीति की तरह हवा दी और ऐन मौके पर उस गर्म हवा ने 'आपा' का टायर बर्स्ट कर दिया। 'आपा' को मिला समर्थन दरअसल महंगाई, बेरोजगारी और भ्रष्टाचार से परेशान आम मध्यवर्ग के आदर्शवादी स्वप्न और साफ-सुथरे पूंजीवाद तथा तेज विकास की कामना करने वाले कुलीन मध्यमवर्ग के प्रतिक्रियावादी स्वप्न का मिलाजुला उत्पाद था। दिल्ली में 'आपा' ने तरह-तरह के वादे करके निम्न मध्यवर्ग और गरीब आबादी से भी काफी वोट बटोर लिए थे, लेकिन उन वायदों को पूरा करने से केजरीवाल फौरन मुकर भी गए। इसी का परिणाम अब वे भुगत रहे हैं। 'आपा' के पास कुछ लोकलुभावन हवाई नारों के अलावा कोई ठोस आर्थिक-राजनीतिक कार्यक्रम था ही नहीं। निजीकरण-उदारीकरण की नीतियों का इनके पास कोई विकल्प नहीं है। तभी ये आर्थिक नीतियों पर चुप्पी साधे रहते थे। बाद में केजरीवाल और योगेन्द्र यादव जैसे इनके नेताओं के बयानों से भी इनकी कलई खुलने लगी। पूर्व एनजीओपंथियों-समाजवादियों-सुधारवादियों का यह जमावड़ा भी लीक पीटने वाला ही साबित हुआ। जनहित और जन भागीदारी के बजाय जनलोकपाल की लफ्फाजी 'आपा' के लिए आखिरकार भारी पड़ी। बहरहाल, आज केवल भारत ही नहीं, बल्कि पूरी दुनिया में भ्रष्टाचार पर नियंत्रण एक बड़ा मुद्दा है। खास तौर पर सरकारी भ्रष्टाचार पर नियंत्रण प्राथमिक जरूरत है। सामाजिक भ्रष्टाचार से निपटना बाद का एजेंडा होगा। विश्व बैंक से लेकर तमाम अन्तरराष्ट्रीय थिंक-टैंक भ्रष्टाचार, खासकर सरकारी भ्रष्टाचार पर रोक लगाने के लिए पिछले कुछ साल से काफी सक्रिय हुए हैं। कई देशों में भ्रष्टाचार के विरुद्ध 'सिविल सोसायटी' के आन्दोलनों को उनका समर्थन भी प्राप्त है। यही वजह है कि सम्पूर्ण मीडिया 'आपा' की हवा बनाने में लगा रहा था। इसीलिए अन्ना के आन्दोलन के समय से ही टाटा से लेकर किर्लोस्कर तक पूंजीपतियों का एक बड़ा हिस्सा उस आन्दोलन को समर्थन दे रहा था। और इंफोसिस के ऊंचे अफसरों से लेकर विदेशी बैंकों के आला अफसर और डक्कन एअरलाइंस के मालिक कैप्टन गोपीनाथ जैसे उद्योगपति तक 'आपा' में शामिल हो गए थे। आप याद करें कि दावोस में विश्व आर्थिक मंच पर पहुंचे भारत के कई बड़े उद्योगपतियों ने कहा था कि वे 'आपा' के इरादों का समर्थन करते हैं। लेकिन 'आपा' एक ब्लॉक के रूप में संसद में पहुंच भी जाती तो अधिक सम्भावना इसी बात की रहती कि वह राष्ट्रीय स्तर पर विकल्प बनने के बजाय दक्षिणपंथी पिट्ठू दल के रूप में संसदीय राजनीति में घुल मिल जाती या विलुप्त हो जाती। इसीलिए जनता ने उसके साथ पहले ही ऐसा कर दिया। भारतीय लोकतंत्र आज एक ऐसे मोड़ पर आ खड़ा हुआ है जहां सार्थक-सकारात्मक विपक्षी प्रतिरोध की सम्भावना करीब-करीब समाप्त ही है। कांग्रेस या वाम दल अपनी पहचान बचाने की ही जद्दोजहद में लगे हैं। किसी के पास इतनी भी संख्या नहीं बची कि उसे विपक्षी दल के रूप में मान्यता मिल जाए। ऐसे में सत्ता पर आसीन होने जा रही पार्टी के निरंकुश होने का खतरा तो बना ही रहता है। लोकतांत्रिक प्रतिरोध लोकतंत्र को जीवित रखने के लिए जरूरी होता है, इसे भारतीय जनता पार्टी को अपने ध्यान में रखना होगा और विनम्र होकर जनता की अपेक्षाओं के अनुरूप खरा उतरने का जतन करना होगा, यह सोचते हुए कि पांच साल बीतने में अधिक वक्त नहीं लगता... 

Saturday 24 May 2014

अखिलेश जी! सत्ता का सम्मान संजोना शासक का दायित्व होता है...

प्रभात रंजन दीन
अखिलेश यादव को जो पहले करना चाहिए था, वह लोकसभा चुनाव हारने के बाद कर रहे हैं। दरअसल, उत्तर प्रदेश में सरकार बनने के फौरन बाद एक मुख्यमंत्री के ऊपर इतने सारे मुख्यमंत्री उभर कर आ गए कि असली मुख्यमंत्री ही वृष्टिछाया क्षेत्र में चला गया। पिता से लेकर सगे चाचा, लगे चाचा और भगे चाचाओं तक की बातें सुनने, उनकी पसंद-नापसंद का ख्याल रखने, उनके आदेश लागू करने और उन सबके बीच संतुलन स्थापित करने में ही मुख्यमंत्री अखिलेश यादव उलझे रह गए। सगे और लगे चाचा का तो करना ही था, भगे चाचा का भी करना अखिलेश यादव की मजबूरी थी कि कब भाग जाएं और पिताश्री नाराज हो जाएं। इसमें आजम खान जैसे भगे चाचा को लेकर खतरा अधिक था, सो अखिलेश समर्पण की मुद्रा में रहे और आजम चाचा मुस्लिम तुष्टिकरण की सपाई सियासत का 'करगिल-युद्ध' जीतते-जितवाते रहे। सबसे अधिक फायदा भी उठाते रहे। ऐसे ही नियोजित भ्रम में शासन-प्रशासन मतिभ्रम में पड़ गया और इस मतिभ्रम को फैलाया और फायदा उठाया सत्ता चाटने वाले कीड़ों ने, जिसमें न केवल नेता बल्कि पत्रकार और नौकरशाह व अन्य कुछ प्रजातियां भी शामिल थीं, जिन्होंने सत्ता का जमकर उपभोग किया, सत्ता को उसकी प्रतिबद्धताओं का कभी एहसास नहीं कराया और मुख्यमंत्री को घेरे में लिए फायदा उठाते रहे। कोई लाल बत्ती ले उड़ा, कोई ठेका ले उड़ा, कोई सूचना आयुक्ती ले उड़ा, कोई मनोज कुमार अपना नाम बदल कर फ्रैंक हुजूर बन बैठा और मुलायम-अखिलेश पर किताब लिखने का करोड़ों का करार ही ले उड़ा, कोई ट्रांसफर-पोस्टिंग की दलाली ले उड़ा तो कोई घपले-घोटाले में सरकारी धन उड़ाने लगा। इस ले उडऩे में सामाजिक और जन सरोकार हवा में उड़ गए और नतीजा यह हुआ कि लोकसभा चुनाव में समाजवादी पार्टी ही उड़ गई। पूरे प्रदेशभर में एक अराजक माहौल का सृजन हो गया। इसमें मुख्यमंत्री के भगे चाचा को अपनी भैंसों की ही पड़ी रही तो एक लगे चाचा अपने गुर्गों-चमचों को सेट करने में पार्टी को ही घुन की तरह खोखला करने में लगे रहे। भगे चाचा आजम खान रामपुर और मुजफ्फरनगर के मुख्यमंत्री तक बन बैठे तो लगे चाचा रामगोपाल यादव मुलायम के बाद सपा का नेतृत्व सम्भालने का सपना साकार करने के एकसूत्री अभियान में लग गए। मुलायम बनने का सपना ऐसा सवार हुआ कि मुलायम ने अखिलेश को उत्तराधिकारी बनाया तो रामगोपाल ने पहले ही झटके में अक्षय को उत्तराधिकारी बनाने में सारी सियासी सीमाएं लांघ डालीं। सगे चाचा शिवपाल सिंह यादव समझ-बूझ कर दर्शक दीर्घा में चले गए और पिताश्री मुलायम सिंह यादव अपनी परिपक्व उम्र-दीर्घा की अपनी विवशताओं में भटके, फंसे, उलझे और खीझे रह गए। समानान्तर सरकारों के बीच अखिलेश सरकार फंसी रह गई। अखिलेश तो ऐसे हो गए कि जैसे सब लोगों की सीढ़ी, जो आए वही नापता हुआ ऊपर स्थापित हो जाए। मुख्यमंत्री के इस्तेमाल का यह तरीका दरअसल नियोजित साजिश का हिस्सा था, जिसमें मुख्यमंत्री पर दबाव बना कर उसे पंगु कर दिया जाए, ताकि पार्टी की हार का ठीकरा उस पर ही फोड़ा जा सके और इस बीच भरपूर फायदा भी उठा लिया जाए। इस पूरे दरम्यान शासन में यह सख्त संदेश ही नहीं जा पाया कि प्रदेश का मुख्यमंत्री अखिलेश यादव है और सरकार में मुख्यमंत्री की ही चलेगी। जो मुख्यमंत्री की टीम का मंत्री था, उसने भी अपने स्वामित्व के खेमे पिता और तमाम चाचाओं के पाले में डाल रखे थे। यानी, पूरे दो साल अखिलेश यादव की सरकार कटिया कनेक्शन पर चलती रही, कोई मुलायम पर कटिया फंसाए रहा तो कोई शिवपाल पर, कोई रामगोपाल पर तो कोई आजम खान पर... इसी क्रॉस कटिया कनेक्शन में पार्टी का ट्रांसफर्मर ऐन चुनाव में भक्क से उड़ गया। ...'ब्लैक आउट' हो गया, तब यह एहसास हुआ कि गड़बड़ी तो हो गई। प्रदेश के आम मतदाता तो बेवकूफ ही बन गए, कानून व्यवस्था का शासन तो कभी जमीन पर दिखा ही नहीं, पार्टी के प्रतिबद्ध कार्यकर्ता तो उपेक्षित ही रह गए, समाजवादी विचार के हिमायती लोग तो हाशिए पर ही ठहर गए, समाजवादी पार्टी के लिए समर्पित योद्धाओं की फौज तो यत्र-तत्र भटकने के लिए ही विवश रह गई, सारे समाजवादी सिद्धांत संजीदा होने के बजाय बसपाई बुतों की तरह ही पत्थर होकर रह गए। सरकार में काम कराने के लिए पार्टी के प्रतिबद्ध कार्यकताओं को उन दलालों का सहारा लेना पड़ा जो सरकार में ऊंचे ओहदे या ऊंचे सम्मान का स्थान लेकर विराजमान हो गए थे। दो-ढाई साल में ही इतना वीभत्स दौर गुजर गया। लोकसभा चुनाव समाजवादी पार्टी की तरफ से सृजित अराजकता का थर्मामीटर साबित हुआ, जिसने इस अराजकता के खिलाफ उत्तर प्रदेश के लोगों की नाराजगी के ऊंचे तापमान का दर्शन कराया। इसके लिए अकेले अखिलेश दोषी नहीं, दोषी पार्टी के सारे गैर जिम्मेदार अलमबरदार हैं, जो आज मुंह छुपाने में लगे हैं या हंसी छुपाने में। लेकिन जनता की निगाह में अखिलेश सर्वाधिक दोषी हैं। वह दोष को सियासत के नजरिए से नहीं, जो शासक है, उसके तौर-तरीकों से देखती है। प्रदेश के मुख्यमंत्री अखिलेश हैं तो अराजकता भी उन्हें ही दूर करनी होगी। घर आंगन में आग लगी हुई हो, प्रदेश समाज की आस्था की दीवारें चटख कर दरक रही हों, जन-धन और जीवन जल रहा हो, आग लगाने वाले सब दूर बैठ कर ताप रहे हों और आग बुझाने वाला दिग्भ्रमित हो रहा हो, तो यह कैसा राजधर्म!
अखिलेश जी! यह आम लोगों का प्रेम करने का तरीका होता है कि वह फिदा होता है तो 224 विधायकों को सत्ता की दहलीज पर बिछा देता है और यह आम लोगों की नाराजगी जताने का ही अंदाज है कि जनप्रतिनिधित्व की व्यापकता को परिवार की चार सीटों में सिकोड़ कर औकात की याद दिला देता है। सम्मान और प्रेम मिल तो जाता है, लेकिन उसे हिफाजत से संजो कर रखने की धार्यता भी तो होनी चाहिए...

Thursday 22 May 2014

यह किस तरह के युवाओं का देश है!

प्रभात रंजन दीन
कहते हैं कि यह देश युवाओं का है। सरकारी आंकड़े और दस्तावेज भी यही बताते हैं। यह दावा केवल आबादी को लेकर है, जज्बे को लेकर नहीं। जज्बा केवल यही नहीं कि वोट दिया और सत्ता बदल दी। अगर इसी से जज्बे का पता चलना था तो सबसे अधिक आबादी वाला देश तो पिछले दस साल से था! भ्रष्टाचार, महंगाई और आत्महीनता तो पिछले दस साल से और पिछले 66 वर्षों से इस देश पर काबिज है, तो क्यों नहीं बदल दिया था सारा परिदृश्य! जज्बा होता तो देश इतने दीर्घकाल तक कभी मुगलों का तो कभी अंग्रेजों का गुलाम ही बना होता! युवापन होता तो क्यों अकेले भगत सिंह और चंद्रशेखर आजाद जैसे दो चार गिने-चुने युवकों को फांसी और पिस्तौल की गोली चुननी पड़ी थी... और क्यों चुननी पड़ी थी? कोई हमारे देश के टुकड़े कर देता और हम आजादी के नाम पर टूटा हुआ देश स्वीकार कर लेते! युवापन होता तो क्या देश में घुस कर शत्रु हमारे सिर काट ले जाता! युवापन होता तो बाहरी देश का आदमी हमारे देश में घुस कर रहने लगता और हमारे ही अधिकार हर लेता! युवा जोश से देश-समाज लबरेज रहता तो क्या हर दिन इमानदारी हार जाती! ईमान सरेराह बिकता रहता! हर दिन सच्चा नागरिक, देशभक्त, मानवाधिकारकर्मी, सूचनाधिकारकर्मी, समाजसेवी चौराहों गलियों में मारा जाता रहता या अपमानित होता रहता! हजारों लाखों किसान आत्महत्या करते रहते! नेता हमारी आंखों के सामने काला धन लूट कर विदेशी बैंकों में जमा करता रहता! लड़कियां राजपथ पर बलत्कृत होती रहतीं! धर्म, जाति, समूह और समुदायों में समाज टूटता रहता! सीमाएं काटी जाती रहतीं! जंगल काटे जाते रहते! नदियां मैली की जाती रहतीं! देश को पंगु करने की साजिशें खुलेआम हरकतें करती रहतीं! आतंक और अपराध हमारे देश और समाज में कुकुरमुत्ते की पसरता होता! हम युवा हैं कि नपुंसकों की जमात हैं! क्यों खामोश रहे, क्यों खामोश हैं! किसने कह दिया कि हमारा देश युवा है? वो बातें अब किताबों की हैं कि उत्साह बढ़ाओ तो युवा पर्वत काट कर रास्ता बना दे। आह्वान करो तो किसी भी जिम्मेदारी से मुंह न मोड़े। कर्मपथ पर आगे बढ़ने को हमेशा उद्धत होता रहे। अब तो बस सुविधा में कोई दुविधा न रहे। कर्मठता-प्रतिबद्धता वगैरह तो बूढ़े शब्द हैं... किताबों में अब यह लिखा जाना चाहिए। अब कहां ऐसा हो पाता है कि नदी का पानी कलकल करने लगे तो युवा उत्साह का चप्पू तेज चलने लगे और नाव इस पार से उस पार उतर जाए! भारतवर्ष के युवाओं से तो वो सूखी हुई दूब अच्छी जो पानी की बूंद भर के उत्साह से कुलबुला कर बाहर फूटने लगती है। व्यक्तित्व की बेहद तंग और स्वार्थी गलियों में बसता है युवापन इस देश का... अगर यही युवापन है तो ऐसे सहस्त्रों युवापन को धिक्कार। जिनमें कोई अहोभाव नहीं देश के प्रति, समाज के प्रति, विचार के प्रति और नैतिक मूल्यों के प्रति, तो सर्वाधिक युवाओं के देश का मतलब क्या है? झूठ के आधार पर परस्पर सम्बन्ध खड़ा करने, व्यक्तित्व को अंधी सुरंग में ले जाने की जानकारियों में ज्ञानवान दिखने, पर सार्थक ज्ञान में परम मूढ़ होने, आकाशीय आशाओं और स्खलित इच्छाओं को अपनी आंखों और मनोवैज्ञानिक कुंठाओं के सहारे पा लेने की निरर्थक कोशिशें करने, अपने अधगले-अधपके विचारों का प्रदर्शन करने, किसी भी अच्छे विचार पर मजाक के गुबार उड़ाने, कहकहे लगाने, लोकतंत्र और देश का पता नहीं, लेकिन देश के भविष्य और वर्तमान पर विद्वत उपदेश जारी करने, शरीर संवारने में सारी ललक दिखाने लेकिन व्यक्तित्व संवारने पर कोई ध्यान नहीं देने का नाम यदि युवा है तो भारतवर्ष का भविष्य काफी उज्जवल दिखता है। फिर तो वोट देने से सब बदल ही जाएगा। एक बूढ़े को हटाया दूसरे उससे कम उम्र वाले बूढ़े को सत्ता पर बिठा दिया है, जो भी करना है अब उसे ही करना है। युवाओं का काम तो हो गया, अब बैठ कर झख मारना है, जो करना है उसे करना है, हम फिर पांच साल बाद वोट देंगे, स्याही लगी उंगली दिखा कर फोटो खिंचवाएंगे, मताधिकार बस यही है, लोकतंत्र बस यही है, राष्ट्रीय कर्तव्य बस यही है... 

Wednesday 21 May 2014

संसद-मंदिर की गरिमा बहाली का पहला दिन...

प्रभात रंजन दीन
विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र वाले भारत देश में ऐसा पहली बार हुआ जब कोई सांसद, जो देश का प्रधानमंत्री बनने जा रहा हो, उसने संसद में प्रवेश करते समय संसद की सीढिय़ों पर माथा टेका हो और संविधान की सर्वोच्च पीठ के प्रति सम्मान जताया हो। संसद को मंदिर बताने में तो कोई नेता पीछे नहीं रहा, लेकिन संसद को मंदिर समझने और समझाने के लिए पहली बार कोई नेता सामने दिखा। भारत में जबसे संसदीय चुनाव की परम्परा शुरू हुई तबसे लेकर आज तक नेताओं ने संविधान और संसद को बेच कर ही तो खाया! संविधान का जहां चाहा अपमान किया और जहां चाहा वहां संविधान का इस्तेमाल किया। संविधान नेताओं की सियासत चमकाने का केवल जरिया बन कर रह गया। संसद को नेताओं ने अखाड़ा बना दिया और बाहर जब इन्हें गालियां दी गईं तो सब मिल कर संसद में समवेत रुदालियां गाते रहे। 1952 से लेकर आज तक संसद के अंदर सांसदों ने जो गतिविधियां दिखाईं और जो व्यवहार किया उससे कभी यह नहीं लगा कि संसद भारतीय लोकतंत्र का पवित्र मंदिर है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जब संसद की दहलीज पर मत्था टेक रहे थे, तब देश को लगा कि वाकई संसद लोकतंत्र का पवित्र मंदिर है। जिस तरह के या जिस स्तर के सांसद या विधायक चुन कर आ रहे हैं या हम जिस स्तर के जनप्रतिनिधि चुन कर संसद या विधानसभाओं में भेजते रहे हैं, उनसे और क्या उम्मीद कर सकते हैं! हम सब कहते रहें कि सांसदों की बेजा हरकतों से लोकसभा शर्मसार होती रही या देश शर्म से दोहरा होता रहा। लेकिन इससे क्या फर्क पड़ता है। संसद कभी भी सांसदों की अलोकतांत्रिक हरकतों से नहीं शरमाई। जबसे संसद का गठन हुआ और जबसे विधानसभाएं बनीं, तबसे आज तक जिस तरह की हरकतें जनप्रतिनिधियों ने की हैं, उससे संसद और विधानसभाओं का क्या मान बढ़ा है? संसद या विधानसभाएं जनप्रतिनिधियों के भ्रष्टाचार, चोरी-चकारी, अनैतिक आचरण और घटिया तिकड़मों से नहीं शरमाई तो अब कब शरमाएगी? पिछले दस साल का ही उदाहरण हम सामने रखें, कितने दिन प्रधानमंत्री को शर्म आई, जब संचार, खेल, कोयला, हेलीकॉप्टर जैसे तमाम घोटालों की झड़ी लगी रही? इन घोटालों पर केंद्र सरकार चलाने वाली कांग्रेस पार्टी को कितनी बार शर्म आई? ऐसी करतूतों पर विपक्षी दलों को कितनी बार शर्म आई? सांसदों को कितनी शर्म आई? ...और अगर मंत्रियों के ऐसे निकृष्ट आचरणों पर शर्म आई तो फिर संसद कैसे चलती रही? संसद की सीढिय़ों पर मत्था टेकने के बाद मोदी ने कहा, 'संसद लोकतंत्र का मंदिर है, आप सब पूरी पवित्रता के साथ, पद के लिए नहीं, 125 करोड़ देशवासियों की आशा आकांक्षाओं को समेटकर बैठे हैं, उनकी आशा के अनुरूप जिम्मेदारी से उतरिए। 125 करोड़ देशवासियों की आशा इस पवित्र मंदिर पर टिकी हुई है। पदभार बहुत बड़ी बात होती है, ऐसा मैंने कभी माना नहीं। कार्यभार सबसे बड़ी बात होती है, इसे परिपूर्ण करने के लिए अपने आप को समर्पित करना होगा। इस चुनाव में सबसे बड़ा काम यह हुआ है कि भारत के सामान्य से सामान्य नागरिक की भी लोकतंत्र के प्रति आस्था बढ़ी है। सरकार वह हो जो गरीबों के लिए सोचे, सरकार गरीबों की सुने, गरीबों के लिए जिए, इसलिए नई सरकार देश के गरीबों को समर्पित है। देश के युवाओं, मां-बहनों को समर्पित है। यह सरकार गरीब, शोषित, वंचितों के लिए है। उनकी आशाएं पूरी हों, यही हमारा प्रयास रहेगा।' संसद में देशभर से चुन कर आए सांसदों को सम्बोधित करते हुए मोदी ने यह बात कही और संसद की गरिमा फिर से स्थापित की। अब तक के अनुभवों में देश के लोगों ने जाना और भोगा है कि राष्ट्र को संचालित करने वाली संसद का कतरा-कतरा भ्रष्टाचार में पगा है। निवर्तमान प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की करनी देख कर तो यही लगता रहा कि देश की लोकतांत्रिक व्यवस्था लचर और भ्रष्टाचार के आगे लाचार हो चुकी है। देश के लोगों के हाथ में चोरों को चुनना ही विकल्प रह गया है। सारे चोर चुनकर या पिछले दरवाजे से संसद पहुंच जाएं और ईमानदारी व लोकतंत्र के रक्षक और विधायिका के निर्माता होने का प्रमाणपत्र पा जाएं। अगर लोग पूछते रहे कि संसद भ्रष्टाचार और महंगाई जैसे संवेदनशील मामले पर सक्रिय क्यों नहीं हुई? संसद के अंदर चुनकर गए नेताओं की लम्बी कतार देश को गुमराह करने में क्यों लग जाती रही है? आश्चर्य की बात है कि लोकतंत्र के प्रहरी या लोकतंत्र के मंदिर संसद के अंदर 543 सांसद जनता के सीधे प्रतिनिधि के रूप में चुन कर जाते हैं और 245 सांसद पिछले दरवाजे से संसद में पंहुचते हैं। इन सब ईमानदार और देशभक्तों को भ्रष्टाचार-कालाधन और जनहित से जुड़े मसलों पर सांप क्यों सूंघा रहता है? संसद की गरिमा और इसकी मर्यादा की रक्षा करने के ठेकेदार इन सांसदों पर जब जनता द्वारा विचारों का हमला होता है तो वे संसद की गरिमा की दुहाई देते हैं और इकट्ठा होकर रोते हैं। जब इसी संसद में बैठ कर सांसद जनता के विरोध या आंदोलन पर आपत्तिजनक टिप्पणियां उछालते हैं तो संसद का पवित्र मंदिर होना जनता को पता चलता है। और जब सांसदों पर आक्षेप आता है तो इन्हें संसद की पवित्रता याद आने लगती है। सांसदों के ऐसे चरित्र को लेकर ही मशहूर क्रिकेट खिलाड़ी और पूर्व सांसद नवजोत सिंह सिद्धू ने कहा था कि जब संसद पवित्र मंदिर है तो आईपीएल अपवित्र कैसे! नवजोत सिंह सिद्धू की मंशा अच्छी तरह समझी जा सकती है कि क्रिकेट खेल में भ्रष्टाचार हुआ तो उसकी सर्वत्र निंदा, लेकिन संसद भ्रष्टाचार का जरिया बनी तो पवित्र मंदिर कैसे? भारत को इस विरोधाभास से बचना ही होगा। नरेंद्र मोदी का संसद का पहला दिन कुछ ऐसे ही संकेत दे रहा है...

Tuesday 20 May 2014

मुलायम को कुर्सी सौंप दें और पार्टी के लिए लग जाएं...

प्रभात रंजन दीन
समाजवादी पार्टी के प्रमुख मुलायम सिंह यादव की पीड़ा समझ में आती है। बड़ी महत्वाकांक्षा से उन्होंने अपने पुत्र अखिलेश यादव को उत्तर प्रदेश का मुख्यमंत्री बनाया था। मुलायम को लगता था कि देश का सबसे कम उम्र का मुख्यमंत्री उस अनुपात में उठेगा जिस अनुपात में उम्र की सम्भावनाएं दिखती हैं। विधानसभा चुनाव के परिणाम मुलायम के ध्यान में रहे होंगे और उन्हें यह भी लगता होगा कि विधानसभा चुनाव के परिणाम उनके सुपुत्र के बूते पर ही आए थे। हवा ऐसी ही बनाई गई थी, लिहाजा पिता भी भ्रम में पड़ गए और जब भ्रम टूटा तो सब कुछ जा चुका था। अब मुलायम के पास केवल यह कहने के लिए रह गया था कि जब वे प्रदेश के मुख्यमंत्री थे तो समाजवादी पार्टी के 36 सांसद जीत कर गए थे और जब अखिलेश मुख्यमंत्री हैं तो मात्र पांच सीटें जीते। उसमें भी केवल मुलायम परिवार के। पार्टी का अन्य कोई नेता संसदीय चुनाव में नहीं जीत पाया। स्पष्ट संदेश गया कि इस बार लोकसभा चुनाव में समाजवादी पार्टी का एक भी नेता चुनाव नहीं जीत पाया। इसकी पीड़ा मुलायम को तो होगी ही। लेकिन पुत्र प्रेम में क्या बोलें और क्या न बोलें। सपा सुप्रीमो मुलायम सिंह यादव अपने बेटे पर उस तरह नाराजगी भी नहीं व्यक्त कर सकते क्योंकि उनका बेटा उत्तर प्रदेश का मुख्यमंत्री भी है। मुलायम सिंह ने जब यह पूछा होगा कि 'अब तुम्हीं बताओ मैं लोकसभा में किसके साथ बैठूंगा'... तो अखिलेश की क्या स्थिति हुई होगी, इसकी कल्पना की जा सकती है। दिल्ली में पूछे जाने वाले सवाल तो मुलायम का पीछा करते ही होंगे कि आखिर पांच ही सीटें समाजवादी पार्टी कैसे जीत पाई। उसमें भी सपा प्रमुख मैनपुरी और आजमगढ़ दोनों सीटों से जीते। ऐसे में मुलायम क्या, समाजवादी पार्टी के किसी भी नेता को कोई जवाब नहीं सूझ रहा। ...और कोई जवाब है भी नहीं। बस, सपा नेताओं के मुंह से आरोप-प्रत्यारोप निकले, एक दूसरे पर छींटाकशी हुई और पार्टी के मंच पर नाराजगी अभिव्यक्त हुई। मुलायम ने प्रत्याशियों को हार का कारण लिखित तौर पर बताने को कहा। कुछ प्रत्याशियों ने यह भी आरोप लगाया कि अखिलेश सरकार के मंत्रियों ने धोखा दिया। संभल सीट पर पांच हजार वोट से चुनाव हारने वाले समाजवादी पार्टी के प्रत्याशी शफीकुर्रहमान बर्क ने तो बैठक में ही अखिलेश सरकार के कैबिनेट मंत्री इकबाल महमूद पर खुला आरोप लगाया कि उन्हीं की वजह से वे हारे। इस पर मुलायम ने कहा भी कि मुझे भी पता है, वह लखनऊ में बैठ कर ही बसपा प्रत्याशी का प्रचार कर रहा था। यह पार्टी के लिए और मुख्यमंत्री अखिलेश यादव के लिए भी बड़ी बात थी। कुछ प्रत्याशियों का कहना था कि मोदी लहर में सपा का समर्थक माना जाने वाला पारम्परिक यादव वोटर भी भाजपा के साथ चला गया। तो कुछ ने यह भी कह दिया कि स्थानीय प्रशासन से मदद नहीं मिल पाने के कारण हार गए। अब आप इसका अर्थायन अपनी-अपनी समझ के मुताबिक करते चलें। लेकिन यह भी बहुत सार्थक बात है कि इतनी बड़ी हार के बावजूद मुलायम इस उम्र में भी हताश नहीं हैं। मुख्यमंत्री और पार्टी नेताओं को कोसने के बाद उन्होंने नेताओं-कार्यकर्ताओं का हौसला भी बढ़ाया। उन्होंने कहा कि जो शिकायतें आई हैं उस पर वे सम्बद्ध मंत्रियों से बात करेंगे और आवश्यक कार्रवाई भी करेंगे। मुलायम ने उनसे कहा कि परेशान मत होइए, हार और जीत चुनावी राजनीति का हिस्सा है, लोगों के बीच फिर जाइए और आने वाले चुनावों में जीतने का जतन करिए। उस समय भी अजीबोगरीब स्थिति बनी जब समीक्षा बैठक में मुलायम ने अखिलेश से अन्य राज्यों के मुख्यमंत्रियों के 'परफॉर्मेंस' का हवाला देते हुए पूछा कि तमिलनाडु में जयललिता, पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी, ओड़ीशा में नवीन पटनायक और पंजाब में प्रकाश सिंह बादल ने अपने-अपने राज्यों में सबसे ज्यादा सीटें कैसे जीत लीं? हमारे यहां क्या हो गया? हमलोग क्यों हार गए? कोई मुझे इसकी वजह बता सकता है? जब मुलायम यह सवाल पूछे रहे थे तो उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री चुप थे। वे बोल भी क्या सकते थे। ...और कोई भी क्या बोल सकता है। जैसा हाल उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री का हुआ वैसा ही हाल बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार का भी हुआ। लेकिन नीतीश कुमार ने इस पराजय को अपनी नैतिकता पर लिया और इस्तीफा दे दिया। इस्तीफा हार का कोई इलाज नहीं है, हां लोगों के मुंह बंद करने का एक बड़ा बहाना जरूर बन जाता है। अखिलेश यादव के पास तो बहाने के बजाय कारगर उपाय भी है। नैतिकता के आधार पर इस्तीफा देते और मुख्यमंत्री का पद अपने पिता मुलायम सिंह यादव के समक्ष समर्पित कर देते। मुलायम अगर मुख्यमंत्री का पद सम्भाल लें तो विधानसभा चुनाव में स्थितियां सम्भल सकती हैं और फिर से पार्टी एकसूत्रित हो सकती है। अब समाजवादी पार्टी को कई परिपक्व और कड़े फैसले लेने होंगे अगर पार्टी को जिंदा रखना है तो। केवल दर्जा प्राप्त मंत्रियों या अधिकार प्राप्त मंत्रियों को झटक देने से बात थोड़े ही बनने वाली है। दर्जा प्राप्त अवसरवादियों को सत्ता गलियारे से बाहर निकाले बगैर कुछ नहीं सधने वाला है। समाजवादी पार्टी को यह प्रदर्शित करना होगा कि हार के बावजूद वह व्यक्तिवादी बसपा से मौलिक रूप से अलग है। तीन साल के बाद फिर विधानसभा चुनाव सामने होगा, फिर से जीतने की जद्दोजहद होगी। लोकसभा चुनाव में भरोसे की जो जमीन खो गई है, उसे वापस ले आना होगा। लैपटॉप चुनाव नहीं जिता सकता, इसे पार्टी ने देख लिया। अनाप-शनाप बयानबाजियां चुनाव नहीं जिता सकतीं, यह पार्टी ने और खास तौर पर आजम खान ने देख लिया। हवा-हवाई बातें और जमीन पर कोई काम नहीं से चुनाव नहीं जीता सकता, इसे मुख्यमंत्री ने देख लिया। अब और क्या देखना बाकी रह गया है! इसके आगे कुछ और वीभत्स दिखे उसके पहले समाजवादी पार्टी को सतर्क हो जाना चाहिए। व्यक्ति नहीं, व्यक्तित्व बड़ा होना चाहिए, उसके लिए प्रयास करना चाहिए। अपना और अपने चाटुकारों का हित देखने के बजाय जनता के हितों को देखना और उसे पूरा करना चाहिए। जनता से अंतरंग होना चाहिए। जो नेता जनता से अंतरंग नहीं हुआ, वह तो गया। अखिलेश यादव ने देख लिया। मायावती ने देख लिया। जनता से दूरी का रिजल्ट पांच-पांच साल में मिलता है। जनता से अंतरंगता और संवाद का क्या पुरस्कार मिलता है इसे नरेंद्र मोदी ने भी देख लिया। अखिलेश यादव ने भी विधानसभा चुनाव में देखा था लेकिन सत्ता मिलते ही स्वार्थी चाटुकारों से ऐसे घिरे और आम नागरिकों से ऐसे बिदके कि लोकसभा चुनाव में उसका परिणाम देख रहे हैं और भुगत रहे हैं। अभी भी वक्त है। नेताजी को मुख्यमंत्री का पद सौंप दें और खुद पार्टी के लिए लग जाएं। पार्टी काडर को मजबूत करें, अपने साथ जोड़ें, खुद को उनके साथ जोड़ें, 'बड़प्पन' छोड़ दें और बड़े हो जाएं... जीत फिर से मुट्ठी में होगी। 

Friday 16 May 2014

मोदी जी! विजय मिली, विश्राम न समझो...

प्रभात रंजन दीन
लक्ष्य साधने के हैं जब तक स्वप्न अधूरे, पूरा अपना काम न समझो / विजय मिली, विश्राम न समझो... नरेंद्र मोदी जी हम आपसे ही सम्बोधित हैं। एक अखबार के सम्पादक की हैसियत से नहीं। एक मामूली नागरिक के नाते, जिसकी उम्मीदें उसकी उम्र और भारत के यथार्थ की तरह अधेड़ नहीं हुई हैं, थकी नहीं हैं, उन्हीं उम्मीदों ने खुद को परिवर्तन की आंधी में रूपांतरित कर आपको शीर्ष सत्ता तक पहुंचाया है, इतिहास बनाया है। लेकिन, लहर की इस गतिविधि को परिणाम न समझें। अभी विजय तो मिली है, पर इसे विश्राम न समझें। मोदी जी! आपके प्रति यह सम्बोधन देश के उस आखिरी व्यक्ति का है जिसके साथ हाथ बांधे कतार में असंख्य लोग खड़े हैं, जो लाल किले की प्राचीर से असत्य के 62 सम्बोधनों से बहरे हो चुके हैं, जिन्हें राष्ट्र के नाम संदेश सुना-सुना कर मानसिक तौर पर विक्षिप्त बनाने का जतन तो किया जाता रहा, लेकिन उनकी बात कभी नहीं सुनी गई। उसी तरह अगर यह स्वर आज भी मर जाए, तो कोई फर्क नहीं। हम तो शब्द-स्वर रचते हैं और प्रकृति को समर्पित कर देते हैं। प्रकृति इन्हीं शब्दों को प्रगाढ़ करती करती कभी-कभार आंधी रच देती है, जैसा इस बार रच दिया और सियासत के स्थापत्य को तिनका बना देती है। 
भारतीय लोकतंत्र के पुरोधा अटल बिहारी वाजपेयी ने कहा था, 'जो पाया उसमें खो न जाएं / जो खोया उसका ध्यान करें।' मोदी जी, आप अटल जी की विरासत सम्भालने आए हैं। काम बहुत है। लोगों को उम्मीदें बहुत हैं। लेकिन बिखरना नहीं है। भ्रष्टाचार-अनैतिकता-आत्महीनता, देश की समस्या तो है लेकिन यह व्यक्ति की मानसिक विकृति का समेकित उत्पाद है, जिसमें लिप्त होकर सियासतदानों ने भ्रष्टाचार को फलाया-फुलाया-सड़ाया और समस्या बना दिया। यह गम्भीर बीमारी है, बहुत सख्त दवा से जाएगी, कड़वी कुनैन से जाएगी, सघन सर्जरी से जाएगी। इलाज की प्रक्रिया चलती रहे, लेकिन आपने प्राथमिकता से तीन काम कर दिए तो इतिहास-पुरुष के रूप में नरेंद्र मोदी की स्थापना को कोई रोक नहीं पाएगा। ये तीन लक्ष्य अलग-अलग चुनावों में अपनी प्राथमिकता खोते रहे हैं। अलग-अलग मौकापरस्त वायदों ने आपकी पार्टी को भी कोई अलग दिखने के लायक नहीं रखा। लेकिन अब जन-जनार्दन ने आपको मौका दे दिया है। अभिन्न पूर्वोत्तर, अंतरंग दक्षिण, आत्मिक उत्तर और अनन्य पश्चिम, सबने एक साथ आपको ऐसी शक्ति दी कि आंधी के झूले पर झूलो, सृजन के नभ को तुम लो छू लो। तीन लक्ष्य साधने के लिए त्रिनेत्र खोलने की ताकत आपको इसीलिए दी गई है। यह भ्रांति दूर करिए कि त्रिनेत्र संहार के लिए खुलता है। यह त्रिनेत्र उद्धार के लिए खुले, यह संदेश जाए। धारा 377 पर बहस करने वाले मानसिक-शारीरिक रोगियों के इस देश में यह संदेश तो जाए कि अनुच्छेद 370 देश को बर्बाद करने वाली असली धारा है, इसका नाश पहले होना चाहिए! रामराज राम मंदिर बनाने से नहीं आएगा। और राम मंदिर बनाने से तो नहीं ही आएगा। रामराज तब आएगा जब हर व्यक्ति आचार और व्यवहार के समान धरातल पर समान रूप से खड़ा होगा। कानून सर्वोपरि। संविधान सर्वोपरि। कोई धर्म सर्वोपरि नहीं और धर्म का कानून बेमानी और अतार्किक। सारे नागरिक कानून के तराजू पर बराबर, समान। यही रामराज का सृजन करेगा।
1998 के घोषणा पत्र में भारतीय जनता पार्टी ने संविधान की समीक्षा कर राष्ट्र के अनुरूप संविधान गढऩे की बात प्राथमिकता से कही थी। लेकिन बाद के चुनावों में ये बातें या तो घोषणा पत्र का हिस्सा ही नहीं बनीं, या ताकत के साथ कही नहीं गईं। अनुच्छेद 370 को खारिज करने और समान आचार संहिता की स्थापना की दृढ़ता सियासी अभिव्यक्तियों के साथ ही सही, पर हर बार दिखाई देती रही। 2014 के घोषणा पत्र में भी भाजपाई अलमबरदारों ने समान आचार संहिता पर ध्यान दिया और अनुच्छेद 370 को हटाने के साथ-साथ कश्मीरी पंडितों की सम्मानजनक वापसी के मुद्दे शरीक किए। मोदी जी, आपने सैनिकों का मनोबल बढ़ाने की सार्थक कोशिश की। इससे देश का आत्मसम्मान जागा है। सैनिकों की हत्या और उनका शीश काटे जाने के प्रति बरती गई सत्ताई नपुंसकता से आहत देश की उम्मीदें सुगबुगा कर जाग उठी हैं। सेना के लिए अलग वेतन आयोग बनाने और सैनिकों के वेतन को आयकर के दायरे से अलग रखने की कार्रवाई उन्हीं तीन लक्ष्यों का हिस्सा है, जिसे आपको साधना है। संविधान, सेना और समानता के तीन लक्ष्य आपने बेध लिए तो बाकी सारे काम आसान हो जाएंगे। अपनी ही जन्मभूमि से असम्मानित करके निकाले गए कश्मीरी पंडितों और अन्य नागरिकों की अपने-अपने घर वापसी हो जाएगी। अवांछित घुसपैठिए अपनी-अपनी मांद में जा छुपेंगे। जम्मू-कश्मीर-लद्दाख-पूर्वोत्तर अपने-अपने मौलिक स्वरूप में बहाल हो जाएंगे। कानून की समानता भ्रष्टाचार भगाएगी। संविधान में आवश्यक संशोधन कानून को राष्ट्रभक्ति और राष्ट्रद्रोह में फर्क करने की शक्ति देगा। भ्रष्टाचार जाएगा तो महंगाई भी भागेगी। भीड़, जाति और धर्म को तरजीह देने के बजाय योग्यता को महत्व मिलेगा तो देश उन्नत होगा, विकसित होगा, अमृतमय होगा, तभी एक भारत होगा, श्रेष्ठ भारत होगा।
मोदी जी! एक बात और... नमो-नमो की चाटु-संस्कृति के चलन और फैलाव से बचिएगा। नमो-नमो का जाप करने वालों से परहेज रखिएगा। नमो-नमो केवल राष्ट्र के लिए हो। नमो-नमो केवल राष्ट्र के पवित्र ध्वज के लिए हो। यही सूत्र वाक्य हो आपका, हम सबका। महाकवि दिनकर की पंक्तियां हैं, उनमें काल की मांग के मुताबिक आंशिक संशोधन करके आपके लिए रख रहा हूं, हो सके तो इन्हें हमेशा अपने सामने रखें, यह आईने की तरह काम करेगी, 'नमो स्वतंत्र भारत की ध्वजा, नमो-नमो / कौन देख सकता कुभाव से ध्वजे, तुम्हारी ओर! / हम प्रलय मचा दें चारो ओर / हम करते हैं जय गान, वीर देते अपना बलिदान / तुम्हें अंगारों पर ले चला सारा हिंदुस्तान / प्रताप की विभा / कृषानुजा, नमो, नमो!'
आखिरी में अपने पत्रकारीय धर्म को साक्षी रखते हुए यह कह देना भी जरूरी है कि ...मेरे इस सम्बोधन को तुम अपने यश का गान, न समझो / नाकाम रहे तो बख्शेंगे हम तुम्हें तुम्हारा प्राण, न समझो...

Tuesday 13 May 2014

काशी विवाद के समाधान के लिए खाली कराया जा रहा है मंदिर-मस्जिद का इलाका

अभी से विधानसभा चुनाव की तैयारी / 'रिलीजियस इंजीनियरिंग' का सपाई फार्मूला तैयार
प्रभात रंजन दीन
समाजवादी पार्टी 2017 का विधानसभा चुनाव धार्मिक कार्ड पर नहीं बल्कि धार्मिक अभियांत्रिकी पर लड़ेगी। सपा की 'रिलीजियस इंजीनियरिंग' न केवल बसपा की 'सोशल इंजीनियरिंग' पर भारी रहेगी, बल्कि यह भारतीय जनता पार्टी के हाथ से एक महत्वपूर्ण मसला भी हथिया लेगी। समाजवादी पार्टी की सरकार ने काशी विश्वनाथ मंदिर और ज्ञानवापी मस्जिद विवाद को हमेशा-हमेशा के लिए खत्म करने की योजना पर तेजी से काम शुरू कर दिया है। इस बार लोकसभा चुनाव में इसका राजनीतिक फायदा भले ही नहीं उठाया जा सका, लेकिन 2017 के विधानसभा चुनाव में 'धार्मिक-अभियांत्रिकी' अपना असर जरूर दिखाएगी। भारतीय जनता पार्टी अयोध्या-काशी-मथुरा का विवाद राजनीतिक पटल पर उछालती और उसका फायदा उठाती रही है। अगर सपाई-फार्मूले से काशी का विवाद सुलझ गया तो भाजपा के हाथ से एक मसला गया और इसका श्रेय समाजवादी पार्टी को मिल जाएगा। सरकार ने जो फार्मूला बनाया है, उससे स्पष्ट संकेत मिल रहा है कि हिंदू या मुस्लिम समुदाय के लोगों को कोई आपत्ति नहीं होगी।
काशी विवाद के स्थायी समाधान के लिए प्रदेश सरकार काशी विश्वनाथ मंदिर और ज्ञानवापी मस्जिद के इर्द-गिर्द और उसकी व्यापक परिधि के सारे मकान और जमीनों का अधिग्रहण करने जा रही है। जिनके घर या जिनकी जमीनें ली जाएंगी उन्हें बाजार दर पर उसकी कीमत दी जाएगी। मंशा यह है कि मंदिर और मस्जिद के लिए आने-जाने वाले श्रद्धालुओं को जितनी मुश्किलों और आपसी तनाव का सामना करना पड़ता है, उसका हमेशा के लिए समाधान निकल आए। मंदिर और मस्जिद के पास के व्यापक इलाके को खाली कर मंदिर और मस्जिद के रास्ते अलग-अलग कर दिए जाएंगे। मंदिर और मस्जिद के लिए अलग-अलग विशाल द्वार के निर्माण के साथ ही मंदिर-मस्जिद को भव्य बनाने का काम निर्बाध रूप से हो सकेगा। अत्यंत संकरे रास्ते और मंदिर मस्जिद के रख-रखाव को लेकर होने वाले काम पर आपत्तियां उठाई जाती रही हैं। इस विवाद को हमेशा के लिए खत्म करने के लिए प्रदेश सरकार के धर्मार्थ कार्य विभाग ने एक विस्तृत प्रस्ताव औपचारिक तौर पर मुख्यमंत्री को सुपुर्द किया था जिसे सरकार ने हरी झंडी दे दी और आगे की कार्रवाई भी सक्रियता से शुरू हो गई।
प्रदेश के धर्मार्थ कार्य विभाग एवं सूचना विभाग के सचिव नवनीत सहगल ने काशी विवाद हल करने की इस महत्वपूर्ण योजना की आधिकारिक पुष्टि की। श्री सहगल ने कहा कि योजना का विस्तृत प्रस्ताव सरकार के समक्ष प्रस्तुत किया गया था, जिस पर मंजूरी के बाद इस पर काम तेजी से हो रहा है। काशी विश्वनाथ मंदिर और ज्ञानवापी मस्जिद के चारों तरफ फैले नागरिक-बसाव (सेट्लमेंट) को खाली कराने के लिए लोगों को उनके घरों की कीमतें दी जा रही हैं। इस योजना पर लोगों का समर्थन तो मिल रहा है, लेकिन पैसे की लालच में मालिकाना हक के कुछ विवाद भी खड़े किए जा रहे हैं, लेकिन सरकार उसका भी हल निकाल रही है। श्री सहगल ने उम्मीद जताई कि मंदिर और मस्जिद के रास्तों को अलग-अलग करने और विस्तार देने का काम भी शीघ्र ही शुरू हो सकेगा। उल्लेखनीय है कि श्री काशी विश्वनाथ मंदिर अधिनियम 1983 के प्रावधानों के तहत मंदिर एवं न्यास परिषद के प्रशासन के लिए प्रदेश सरकार की ओर से मुख्य कार्यपालक अधिकारी की नियुक्ति की जाती है। इसके अलावा अपर मुख्य कार्यपालक अधिकारी और सहायक लेखाधिकारी भी सरकार द्वारा ही नियुक्त किया जाता है।
मामला सुलट गया तो इतिहास रह जाएगा काशी विश्वनाथ मंदिर विवाद
कहा जाता है कि काशी में शिव ज्योतिर्लिंग के रूप में प्रगट हुए थे। सम्राट विक्रमादित्य ने मंदिर का जीर्णोद्धार कराया था। मंदिर को लूटने आए महमूद गजनवी के भांजे सालार मसूद को सम्राट सुहेल देव पासी ने मौत के घाट उतारा था। इस मंदिर को 1194 में मुहम्मद गोरी ने तोड़ा। मंदिर फिर से बना। 1447 में जौनपुर के सुल्तान महमूद शाह ने फिर इसे तोड़ा। 1585 में राजा टोडरमल की सहायता से फिर मंदिर बना। 18 अप्रैल 1669 को औरंगजेब ने काशी-विश्वनाथ मन्दिर फिर से ध्वस्त करा दिया और मस्जिद का निर्माण करा दिया। औरंगजेब ने ही मथुरा में मंदिर तोड़वा कर वहां ईदगाह बनवाई थी। 1752 से लेकर 1780 के बीच मराठा सरदार दत्ता जी सिंधिया व मल्हार राव होल्कर ने काशी विश्वनाथ मन्दिर की मुक्ति के प्रयास किए। 7 अगस्त, 1770 में महाद जी सिन्धिया ने दिल्ली के बादशाह शाह आलम से मन्दिर तोडऩे की क्षतिपूर्ति वसूल करने का आदेश जारी करा लिया। लेकिन तब तक काशी पर ईस्ट इंडिया कम्पनी का प्रभाव हो गया था, इसलिए मंदिर का नवीनीकरण रुक गया। इन्दौर की महारानी अहिल्याबाई होल्कर ने 1780 में विश्वनाथ मंदिर बनवाया, जिस पर पंजाब के महाराजा रणजीत सिंह ने 9 क्विंटल सोने का छत्र बनवाया। ग्वालियर की महारानी बैजाबाई ने ज्ञानवापी का मंडप बनवाया और महाराजा नेपाल ने वहां नन्दी की विशाल प्रतिमा स्थापित करवाई।
11 अगस्त, 1936 को दीन मुहम्मद, मुहम्मद हुसैन और मुहम्मद जकारिया ने स्टेट इन काउन्सिल में प्रतिवाद संख्या-62 दाखिल किया और दावा किया कि सम्पूर्ण परिसर वक्फ की सम्पत्ति है। लम्बी गवाहियों एवं ऐतिहासिक प्रमाणों व शास्त्रों के आधार पर यह दावा गलत पाया गया और 24 अगस्त 1937 को वाद खारिज कर दिया गया। इसके खिलाफ इलाहाबाद उच्च न्यायालय में अपील संख्या 466 दायर की गई लेकिन 1942 में उच्च न्यायालय ने इस अपील को भी खारिज कर दिया। कानूनी गुत्थियां साफ होने के बावजूद मंदिर-मस्जिद का मसला आज तक फंसा कर रखा गया है।

Tuesday 6 May 2014

सूरज संकट में है...

प्रभात रंजन दीन
अभी अभी जब भीषण ठंड थी तब भी सूरज से गुस्सा था और अब जब भीषण गरमी है तब भी सूरज से गुस्सा है। जो रौशनी देता है, जो ऊर्जा देता है, जो जीवन देता है, जो ताप देता है, गुस्सा उसी पर आता है... यही शायद प्रकृति ने तय कर रखा है। जो जितना देगा उसके खिलाफ उतनी ही शिकायत होगी, उतनी ही नाराजगी होगी, उतनी ही उम्मीद होगी। यह कथा सब लोगों ने सुनी होगी कि सूरज पर मुकदमा दर्ज हुआ, अंधेरे को प्रताड़ित करने का। खूब बतंगड़ बना। अंत में न्यायालय में सूर्य को पेश होने का सम्मन किया गया। सूर्य के समक्ष आरोप रखे गए। सूर्य ने बड़ी तन्मयता से सारे आरोप सुने, बड़ी शिद्दत से सारी शिकायतें सुनीं। न्यायालय ने सूर्य से पूछा कि तुम्हें क्या अपनी सफाई में कुछ कहना है? सूर्य ने अदालत से कहा कि 'मी-लॉर्ड' अंधेरे को मेरे समक्ष अदालत में बुलाया तो जाए। उसे जरा जी भर कर देख भी तो लूं कि जो मुझपर प्रताड़ना के आरोप लगा रहा है वह देखने में कैसा है, मैंने तो अंधेरे को आज तक देखा भी नहीं है, अंधेरा देखने में कैसा है, उसे जाना ही नहीं तो उसे मैंने प्रताड़ित कैसे कर दिया! अदालत के भी होश उड़ गए। अदालत की जान सांसत में पड़ गई कि सूर्य के सामने अंधेरे को कैसे पेश किया जाए। प्रताड़ना हो या प्रेम, आरोप हो या नालिश, सही तो तभी साबित हो सकते हैं जब दो पक्षों ने एक दूसरे को देखा हो! अदालत का न्याय निलंबित हो गया। लम्बित ही है आज तक। फैसला नहीं हो पाया कि सूरज अंधकार को प्रताड़ित कर रहा है या अंधकार के बहाने साजिश है सूरज के खिलाफ। चलिए अब इस धारा को दूसरी तरफ से देखते हैं। सूर्य जब पूरे आब से निकले तब भी दिक्कत और ठंड में आम लोगों की तरह वह भी दुबक जाए, तब भी दिक्कत। तो आखिर सूरज क्या करे! हर परिस्थिति में वह क्यों झेले कि जनता त्राहिमाम कर रही है तो उसी का दोष और राजा निरंकुश है तो उसी की गलती! मायावती हों तो कह दें कि सब मनुवादी साजिश है। क्योंकि सूरज भी देवता हैं तो उन्हें उनमें भी कहीं मनु दिख जाएं। वे यह भी कह दें कि सूरज सवर्ण है और अंधकार दलित। सच सूर्य संकट में है। सूर्य की ऊंचाई को लांघने की कोशिश में साजिश के कमंद लगा कर उस पर चढ़ने की कोशिशें हो रही हैं। धूप और छांह की दरारों में सुरंगें बिछा दी गई हैं और चारों तरफ उसके पलीते छोड़ दिए गए हैं। धूप के सपनों की यात्रा को धूल में मिलाने की कलयुगी कोशिशें, उसकी उजास शाश्वतता को कैसे छीन लेंगी! यह सवाल खुद ही सूर्य खुद से ही पूछता है और अनुत्तरित रह जाता है। वह यह जानता है कि उसे सूर्य से सूर्य तक की सतत यात्रा करनी है, जलना है, भुनना है, नाराजगी झेलनी है, लेकिन बदले में अंधेरे का छिड़काव नहीं करना है, रौशनी से दुनिया को सराबोर करते रहना है। सुख को नष्ट हो जाना है। दुख को भी नष्ट हो जाना है। लेकिन रौशनी को नष्ट नहीं होना। सुख में खुश होना बहादुरी नहीं। दुख में दुखी होना कायरता नहीं। बहादुरी और कायरता दोनों भौतिक जगत का 'कॉन्सेप्ट' है, इसे झटक कर शाश्वतता के साथ समाहित होने का जतन करना ही अर्थपूर्ण है। सूरज की रौशनी से हमें यह समझ मिलती है, तभी ठंड में भी हम सूरज का महत्व समझेंगे, तभी गरमी में भी हम सूरज का शौर्य जज्ब कर पाएंगे, तभी हम सूर्य पर भरोसा कर सकेंगे, उसके खिलाफ साजिश नहीं करेंगे... 

Wednesday 30 April 2014

सबसे खतरनाक होता है सपनों का मर जाना

प्रभात रंजन दीन
एक मई को श्रम दिवस है। इसमें कुछ भी नया नहीं है। हर साल आता है। हर साल इस दिन के पहले वाली शाम को मजदूरी करती महिलाएं या पुरुषों की फोटो फाइल होती है। हम उसे छापते हैं और श्रम दिवसों के विभिन्न आयोजनों में 'हम होंगे कामयाब एक दिन' गाते हुए अपने आप को गाली देते हुए घर लौट आते हैं। हम ऐसे ही श्रमिक हैं। या कुछ ऐसे भी छद्मी श्रमिक हमारी जमात में शामिल हैं, जो सत्ता-पूंजी-पीठों के दलाल हैं, उन्हीं का खाते हैं, उन्हीं का गाते हैं और हमें भरमाते हैं। हमारे सपने मर रहे हैं, सबसे चिंताजनक बात यही है। आज वोट डालते समय एक मजदूर किस्म का आदमी काफी देर होने पर झुंझला कर बोल पड़ा, 'देर हो रही है, काम नहीं हुआ तो खाएंगे क्या आज, वोट तो हर साल देते हैं, वोट ही देते-देते तो आज खाने खाने को मोहताज हो गए। क्या मिलेगा वोट डालने से। बस कुछ लोगन के चक्कर में आ जाते हैं। अब तो बंद कर देंगे वोट डालना, अगर कुछ भी नहीं बदलना है तो वोट क्यों डालना?' एक  श्रमिक की बोली यह संदेश दे रही थी कि अब देश के श्रमिकों का सपना मर रहा है। पत्रकार भी खुद को श्रमजीवी कहते हैं, गंदे रास्ते से अगर पत्रकारों के वित्तीय स्रोत बंद हो जाएं तो उनकी भी दशा उसी मजदूर की तरह है, जिसे अब सपने देखना भी गवारा नहीं। श्रम दिवस की पूर्व संध्या पर श्रमिक के मरते स्वप्न पर हृदय से श्रद्धांजलि देता हूं। आज के सम्पादकीय में बस श्रद्धांजलि के इन्हीं कुछ शब्दों के साथ महान कवि अवतार सिंह पाश की वह कविता आपके सामने रखता हूं, जो जब तक जिया सपनों के मुरदा होने के खिलाफ जीता रहा और युवा अवस्था में ही जिसे मौत के घाट उतार दिया गया। आप वह कविता भी पढ़ें और हम सब जतन करें कि हमारे सपने जिंदा रहें, ताकि कभी तो हम हों कामयाब एक दिन..!
...मेहनत की लूट सबसे खतरनाक नहीं होती
पुलिस की मार सबसे खतरनाक नहीं होती
गद्दारी और लोभ की मुट्ठी सबसे खतरनाक नहीं होती
बैठे-बिठाए पकड़े जाना- बुरा तो है
सहमी-सी चुप में जकड़े जाना- बुरा तो है
पर सबसे खतरनाक नहीं होता
कपट के शोर में
सही होते हुए भी दब जाना- बुरा तो है
जुगनुओं की लौ में पढऩा- बुरा तो है
मुट्ठियां भींचकर बस वक्त निकाल लेना - बुरा तो है
सबसे खतरनाक नहीं होता
सबसे खतरनाक होता है
मुर्दा शांति से भर जाना
तड़प का न होना सब सहन कर जाना
घर से निकलना काम पर
और काम से लौटकर घर जाना
सबसे खतरनाक होता है
हमारे सपनों का मर जाना
सबसे खतरनाक वो घड़ी होती है
आपकी कलाई पर चलती हुई भी जो
आपकी नजर में रुकी होती है
सबसे खतरनाक वो आंख होती है
जो सबकुछ देखती हुई जमी बर्फ होती है
जिसकी नजर दुनिया को मोहब्बत से चूमना भूल जाती है
जो चीजों से उठती अंधेपन की भाप पर ढुलक जाती है
जो रोजमर्रा के क्रम को पीती हुई
एक लक्ष्यहीन दुहराव के उलटफेर में खो जाती है
सबसे खतरनाक वो चांद होता है
जो हर हत्याकांड के बाद
वीरान हुए आंगन में चढ़ता है
लेकिन आपकी आंखों में मिर्चों की तरह नहीं गड़ता
सबसे खतरनाक वो गीत होता है
आपके कानो तक पहुंचने के लिए
जो मरसिए पढ़ता है
आतंकित लोगों के दरवाजों पर
जो गुंडों की तरह अकड़ता है
सबसे खतरनाक वह रात होती है
जो जिंदा रूह के आसमानों पर ढलती है
जिसमें सिर्फ उल्लू बोलते और हुआं हुआं करते गीदड़
हमेशा के अंधेरे बंद दरवाजों-चौखठों पर चिपक जाते हैं
सबसे खतरनाक वो दिशा होती है
जिसमें आत्मा का सूरज डूब जाए
और जिसकी मुर्दा धूप का कोई टुकड़ा
आपके जिस्म के पूरब में चुभ जाए
मेहनत की लूट सबसे खतरनाक नहीं होती
पुलिस की मार सबसे खतरनाक नहीं होती
गद्दारी और लोभ की मुट्ठी सबसे खतरनाक नहीं होती ।
सबसे खतरनाक होता है, हमारे सपनों का मर जाना...

Tuesday 29 April 2014

'शो-बाज' लोकतंत्र का 'रोड-शो'...

प्रभात रंजन दीन
फैशन की दुनिया की खूबसूरत बालाएं जो आम तौर पर आम रास्तों पर नहीं दिखतीं, फिल्म की दुनिया की खूबसूरत हस्तियां जो आम तौर पर आम रास्तों पर नहीं दिखतीं, सियासत की दुनिया की नायाब हस्तियां जो आम तौर पर आम रास्तों पर नहीं दिखतीं, ये सब अपने-अपने खास मौकों पर अपनी-अपनी शब्दावली में रैम्प पर उतरती हैं। ठुमके लगाती आती हैं, हाथ हवा में उछालती हैं और मटकती हुई विलुप्त हो जाती हैं। ये नेताओं के जो 'रोड-शो' होते हैं, कुछ ऐसी ही जुगुप्सा के भाव भरते हैं। मॉडलों और हीरो-हीरोइनों की नकल पर नेताओं ने जबसे 'रोड-शो' करना शुरू कर दिया है, आम लोगों का श्रृंगार-भाव खटास से भर गया है।
सोमवार को लखनऊ में नेताओं के 'रोड-शो' का आखिरी दिन था। लेकिन इस आखिरी दिन ने भी लखनऊ के लोगों को यह फिर से जताया कि सत्ताशाही के तमाम चोंचले से लबालब 'रोड-शो' ही अब भारतीय लोकतंत्र की असलियत है। यह 'रोड-शो' शब्दावली ही अलोकतांत्रिक और अराजक है। 'शो-बाजी' से सवा सौ करोड़ लोगों के देश की लोकतांत्रिक प्रणाली का क्या लेना-देना? जिस चुनाव प्रक्रिया की शुरुआत 'शो-बाजी' से होती हो और समापन भी 'शो-बाजी' से होता हो तो स्वाभाविक है देश का नेता भी 'शो-बाज' ही होगा। ...इसीलिए तो भारतीय लोकतंत्र महज 'शो-पीस' बन कर रह गया है। 'रोड-शो' पर तत्काल प्रतिबंध लग जाना चाहिए। लेकिन यह चुनाव आयोग को नहीं दिखता और न ही हर बात में जनहित-याचिका लेकर अदालत की तरफ दौड़ पडऩे वाले जनहित-किराना-स्टोर के मालिकों का ध्यान इस ओर जाता है। 'ज्यूडिशियल एक्टिविज्म' का भारत में रिकार्ड बना रही अदालतें भी जन-सुविधा-विरोधी, लोक-तंत्र-विरोधी और कार्य-संस्कृति-विरोधी ऐसे 'रोड-शो' पर प्रतिबंध नहीं लगातीं। जब प्रदेश का मुख्यमंत्री ही घंटों 'रोड-शो' करेगा और नौकरशाही 'रोड-शो' की कामयाबी के लिए 'रोड' पर बिछ जाएगी, तो यह सवाल कौन पूछेगा कि सरकार काम कब कर रही थी? यह सवाल कोई तो पूछेगा कि चुनाव के दरम्यान आखिर सरकार ने क्या काम किया? जब शासन का मुखिया प्रचार में व्यस्त था। जब तमाम विभागों के मुखिया मंत्री अपने-अपने क्षेत्र में चुनाव दायित्व सम्भाल रहे थे तो संवैधानिक-प्रशासनिक दायित्वों का निर्वहन कैसे हो रहा था? सरकार काम कब कर रही थी? प्रशासन काम कब कर रहा था? पुलिस काम कब कर रही थी? प्रशासन का काम क्या सड़क पर लोगों के लिए असुविधाएं बिछाना और नेताओं के लिए वोट की गिनतियां बिछाना रह गया है?
सोमवार को चुनाव प्रचार का आखिरी दिन था। सत्ताधारी दल क्या, सत्ता के लिए मार कर रही सारी पार्टियां लखनऊ के लोगों का दम निकालने पर आमादा थीं। जितने प्रत्याशी थे सब के सब बाहर निकल आए थे। दृश्य कुछ ऐसा ही था कि जैसे वोट की लूट मची हुई हो और सारी पार्टियां एक साथ लूटने के लिए सड़क पर कूद पड़ी हों। फूहड़ फैशन शो की तरह प्रायोजित हो रहे ऐसे 'रोड-शो' से न जनता प्रभावित होने वाली और न जनता वोट डालने वाली है। जनता भीड़ के जुटने-जुटाने का मर्म जानती है। जनता जानती है कि गांव-कस्बों से विलुप्त हो गई नौटंकी कला नेताओं की रगों में किस कदर अपने भौंडे शक्ल में घुस गई है। 'रोड-शो' जैसे आयोजन नेताओं के नौटंकीबाज दिमाग का ही घटिया उत्पाद हैं। नौटंकीबाजों को आखिर यही तो चाहिए! जुटी या जुटाई गई भीड़, भीड़ की तालियां और मुर्दा मुंह से जिंदाबाद के नारे! राजनीति के नौटंकीबाजों को मंच मिल जाता है, रैम्प मिल जाता है, भीड़ मिल जाती है, तालियां मिल जाती हैं तो उसे सर्वस्व मिल जाता है। उसे वह वोट में दिखता है। और हर वोट में नेता को भविष्य का नोट दिखता है, जिसे लूट कर उसे खाना होता है। नेताओं से सफल नौटंकीबाज कोई नहीं। स्वाभाविक तरीके से रटे रटाए डायलॉग बोलना, मुखड़े को कथानक के अनुरूप थिरकाना, हावभाव दिखाना, प्रदर्शन-हड़ताल-समर्पण-पलायन सबका एक साथ स्वांग रचना, सार्वजनिक मंचों पर जन-सरोकारों का अपने भांडों से ढोल बजवाना और अपने चेहरे पर ईश्वर का भाव लाते हुए हाथ हिलाते हुए अंतरध्यान हो जाना... नौटंकी कला की नेताओं की ये सारी योग्यताएं चुनाव के समय प्रदर्शित हो जाती हैं और नागरिकों का प्राण हर लेती हैं।
सोमवार को पूरा शहर 'पैक्ड' था। कोई इधर से उधर हिल नहीं सकता था। लोग नेताओं और प्रायोजित समर्थकों को केवल हिलता हुआ देख सकते थे। चाहे जितना भी जरूरी काम रहा हो, चाहे जितनी भी आपातकालीन स्थिति रही हो, चाहे जितने भी आप बीमार रहे हों, नेताओं को तो वोट चाहिए। उसे लोगों के काम, लोगों की जरूरत, लोगों की सुविधा और लोगों के स्वास्थ्य से क्या लेना-देना! नेता को तो केवल वोट चाहिए। ...लेकिन वोट के लिए हिंस्र और हया की हदें लांघ रहे नेताओं के आश्वासनों की मीठी बोलियां सुनिए तो अचानक नागार्जुन की कुछ पंक्तियां याद आने लगेंगी, 'आश्वासन की मीठी वाणी भूखों को भरमाती / मौसम की गरमी से ज्यादा उनकी बोली है गरमाती / नेताजन को आडम्बर प्रिय है, प्रिय है उसको नाटक / खोल दिए हैं तुमने कैसे इंद्रसभा के फाटक / अब तो बंद करो हे देवी, यह चुनाव का प्रहसन...!'

जिन क्षेत्रों में 30 अप्रैल को चुनाव होना है, उन जगहों पर नेताओं के चुनाव-पूर्व प्रहसन का दौर तो समाप्त हुआ। बाकी बची नौटंकियों का मंचन भी अब जल्दी ही पूरा होना वाला है। चुनाव भी हो जाएगा और सत्ता भी बन जाएगी। लेकिन आम नागरिक को क्या मिल जाएगा! फिर से नेता देने लगेंगे मोबाइल लैपटॉप और आश्वासन। भूख और अनाज के सवाल फिर से अनुत्तरित ही रह जाएंगे। फिर मन में उठेंगे सवाल कि शुद्ध हवा और शुद्ध पानी तक इस लोकतंत्र में मुहाल है, अभी तो आजादी का छियासठवां ही तो साल है। वोट डालने जो सब अपने-अपने गांव आए हैं, वे उंगली में लोकतंत्र का दाग लगवा कर फिर भागेंगे दिल्ली मुम्बई पंजाब और कोलकाता। भात खाने के लिए फिर से खाएंगे लात। फसल उगने से पहले किसानों को मरना होगा फिर से! गन्ने की फसलें आग के हवाले और भूख का भविष्य चीनी मिल मालिकों के हवाले होगा फिर से! अपनी धरती अपने गांव में सिर्फ रह जाएंगे पागल और बुड्ढे। घरनियां रह जाएंगी देहरी और चौखट पकड़े हुए राह देखती अपने कमाऊ पूत और पति की। यही तो होगा फिर से चुनाव के बाद! हेलीकॉप्टरों पर उड़ते स्वप्न देखने के बाद आश्वासनों की तपती रेत पर नंगे पैर ही तो सफर करना होगा चुनाव के बाद फिर से!

Sunday 27 April 2014

बड़े बुजुर्गों के अपमान का आयोग न बनाएं बिष्ट जी!

प्रभात रंजन दीन
कैसे लोकतंत्र चलेगा बिष्ट जी! पत्रकार आम लोगों के लिए प्रतिबद्ध होने का दावा तो करता है लेकिन सत्ता जैसे ही किसी पत्रकार को अपने तंत्र में शामिल कर लेती है, पत्रकार नेताओं से ज्यादा सत्तादंभी हो जाता है। नेताओं ने यही कुचक्र तो किया है। पत्रकार समुदाय को विधिक रूप से समाज में स्थापित करने के बजाय उसने पत्रकारों को व्यक्तिगत रूप से उपकृत किया और इस उपकार की वजह से समाज का भारी नुकसान और संविधान का भीषण अपमान हो रहा है। अरविंद सिंह बिष्ट उत्तर प्रदेश राज्य सूचना आयोग के एक आयुक्त चुने गए हैं। पुराने पत्रकार रहे हैं। जब पत्रकार थे तब मित्र भी थे। ऐसे पत्रकारों के सरकारी तंत्र में आने से सरकार में चारित्रिक परिवर्तन की सम्भावना बननी चाहिए, लेकिन होता उल्टा है। पत्रकार में ही सरकारी चरित्र ठाठें मारने लगता है और मूल उद्देश्य नैतिक होने के बजाय 'नेताइक' हो जाता है। सूचना आयुक्त बनना तो एक अवसर था बिष्ट साहब, कि इतिहास में आपका नाम दर्ज हो जाता। सूचना का संवैधानिक अधिकार चाहने वाले आम लोगों की भीड़ आपका नाम सम्मान से लेती, लेकिन आपमें जन-सम्मान पाने की वह धार्यता नहीं है। मैं कभी भी कोई लेख व्यक्तिपरक नहीं लिखता, लेकिन आपने बुजुर्ग आरटीआई ऐक्टिविस्ट अशोक कुमार गोयल को जिस तरह अपमानित कर उन्हें जेल भिजवाया वह संवैधानिक-धर्म-चरित्र की घोर अवहेलना है और इसके खिलाफ पूरे समाज को खड़े होने की आवश्यकता है। एक बुजुर्ग समाजसेवी का अपमान व्यक्ति-केंद्रित नहीं, समाज केंद्रित है, लिहाजा एक सामान्य नागरिक का संवैधानिक दायित्व निभाते हुए मैं यह तकलीफ लिख रहा हूं। श्री गोयल ने सूचना ही तो मांगी थी! अगर सरकार से जुड़ी सूचनाएं आम लोगों तक नहीं पहुंचाने के लिए ही आप कटिबद्ध थे तो सूचना आयुक्त बनने के लिए इतने उत्साहित क्यों थे! या सरकार के उपकार का आप इसी तरह प्रति-उपकार सधाना चाह रहे हैं? बिष्ट जी! अभी ज्यादा दिन भी नहीं बीते हैं। घंटों दफ्तर में बैठ कर मेरे साथ आप सामाजिक सरोकारों पर बातें करते थे, आमजन की समस्याओं पर लिखी खबरों पर आप खास तौर पर बधाई देते थे। अब वो क्या आप ही हैं बिष्ट साहब? अशोक कुमार गोयल जब अखबार के दफ्तर में आते हैं तो हम पत्रकार कुर्सी से खड़े होकर उनका सम्मान करते हैं। समाज के दुख-दर्द के प्रति गोयल साहब इतने संजीदा हैं कि हम पत्रकार उनके सामने खुद को बहुत ही छोटा महसूस करें। ऐसे सज्जन सम्मानित व्यक्ति को धक्के मार कर कक्ष से बाहर निकाल देने का फरमान आपने कौन सा बिष्ट होते हुए जारी किया होगा, यह समझने में मैं असमर्थ नहीं हूं। आपने कभी आम आदमी की तरह समाज में गलियों-नुक्कड़ों पर आम सुविधाओं के लिए धक्के खाए हैं? कभी भी? अगर एक-दो धक्के भी खाए होते तो धक्के खा-खाकर उम्र के हाशिए पर जा चुके गोयल साहब को धक्का मार कर बाहर कर देने का आदेश देने वाले अरविंद सिंह तुगलक आप न बने होते। ...और सामाजिक संस्कारों की सीख भी अगर ध्यान में हो तो किसी बुजुर्ग ने थोड़ा तल्खी से कह भी दिया तो क्या पिता को हम धक्के मार कर घर से बाहर कर देंगे? बिष्ट जी, सत्ता अधैर्य देती है, इसीलिए तो चरित्रहीन मानी जाती है। सूचना आयुक्त की संवैधानिक पीठ पर बैठे व्यक्ति का सत्ता-अधैर्य अशोभनीय और क्षोभनीय दोनों है। आपने तो गोयल साहब को धक्के मार कर अपने कक्ष से बाहर निकलवा दिया और देर रात में भारी पुलिस-फौज भेजकर उन्हें घर से भी उठवा लिया। रातभर उन्हें हजरतगंज कोतवाली में बिठाए रखा गया। ऐसा क्या गोपनीय था कि इस 'महान-गिरफ्तारी' के बारे में एसएसपी से भी छुपाया गया? बुजुर्ग गोयल साहब अचानक रातोरात इतने बड़े अपराधी कैसे बन गए कि पुलिस ने तमाम संगीन धाराओं के साथ-साथ 'क्रिमिनल लॉ अमेंडमेंट ऐक्ट' के तहत भी उनपर मुकदमा ठोक दिया? आपने और कुछ पुलिस अधिकारियों ने मिल कर पूरे प्रदेश को क्या अपनी जमींदारी समझ ली है? बिष्ट जी, आप जब पत्रकार थे तब आपने भी लिखा ही होगा पुलिस की ऐसी बेहूदा हरकतों के खिलाफ! तब और अब में व्यवहार का नजरिया कैसे बदल गया कि आपने यह महसूस भी नहीं किया कि 'हाई ब्लड प्रेशर' और 'ब्लड शुगर' के मरीज बुजुर्ग को पुलिस ने रात भर दवा भी नहीं लेने दी तो उन पर क्या गुजरी होगी! इसे श्री गोयल की सुनियोजित हत्या की कोशिश क्यों नहीं माना जाए? आप आज पत्रकार होते तो क्या आप यह सामाजिक कोण अपनी दृष्टि में नहीं रखते? अभी भी वक्त है बिष्ट जी, विचार करिए, बुजुर्गों के सम्मान का समाज को संस्कारिक संदेश दीजिए और बड़े हो जाइये...  

Thursday 24 April 2014

इस हृदयहीन युद्ध में खो गया है बुद्ध...

प्रभात रंजन दीन
एक बार बुद्ध ने अपने प्रवचन में कहा, जागो, समय हाथ से निकला जा रहा है। इस संदेश का सब ने अपने अपने तरीके और अपनी-अपनी समझ से मतलब निकाला। नर्तकी ने अपने तरीके से, डकैत ने अपने तरीके से और वृद्ध ने अपनी समझ से बुद्ध के उस संदेश का अर्थ निकाला... बुद्ध ने बाद में अपने शिष्य से कहा कि जिसकी जितनी झोली होती है, उतना ही वह समेट पाता है। झोली बड़ी हो इसके लिए मन का शुद्ध होना बहुत जरूरी है। ...और सारी बात इसी एक बात पर आकर टिक जाती है। जिसकी आत्मा शुद्ध हो, उसी की झोली बड़ी हो सकती है, वही बुद्ध को समझ सकता है। सारे सामाजिक सरोकार इसीलिए तो संकट में हैं, क्योंकि सारे सम्बन्ध अशुद्ध हैं, सारे भाव अशुद्ध हैं, सारे ताव अशुद्ध हैं। केवल आडम्बर है छाया हुआ। केवल अवसरवाद है हर तरफ रंभाया हुआ। इसीलिए तो न कहीं शुद्ध है, न कहीं बुद्ध है। इस पर कई बार बात हो चुकी। इस पर कई बार सम्पादीय लिखे जा चुके। इस पर कई बार और बार-बार लेख लिखे जाते रहे, लेकिन किसने लिख कर किसके मन को धो दिया? किसने अक्षर उकेर कर किसमें शुद्ध प्रेम का भाव भर दिया? किसने बोल कर किसकी झोली बड़ी कर दी? क्या बुद्ध ने कर दी? फिर क्यों हर तरफ वही सब है जिसे बुद्ध ने नहीं चाहा? जिसे कबीर ने नहीं चाहा? जिसे तमाम सूफी संतों ने नहीं चाहा? क्यों हर हाथ में चाकू है और हर आंख को पीठ की तलाश है? क्यों हर व्यक्ति दूसरे को मरी हुई सीढ़ी समझता है, इस्तेमाल करता है और ऊंचा चढ़ कर उसी सीढ़ी को हेयता की नजर से देखता है? हेलीकॉप्टर मिल गया तो क्या वह कभी जमीन पर उतरेगा ही नहीं? हेलीकॉप्टर उड़ाने वाला कहां आसमान पर सफलताओं को टिका देगा और घर बना देगा? अगर जमीन और जमीन पर टिकी सीढिय़ों की उपेक्षा कर आसमान पर सफलताओं के आशियाने बनते होते तो हेलीकॉप्टर उड़ाने वालों या हेलीकॉप्टर से उडऩे वालों के तमाम कामयाबियों के आशियाने आकाश पर छा नहीं गए होते? कितना सटीक कहा गया, 'जिसकी रही भावना जैसी प्रभु मूरत देखी तिन तैसी'... लेकिन हम आधुनिक लोग कहावतों की लाइनें उठा कर इस्तेमाल तो करते हैं लेकिन आचरण में भावना के बजाय केवल सम्भावना तलाशते हैं। लोगों ने सीखा है केवल अपने उस्तुरे पैने करना और दूसरे के पंख तलाशना। अब तो सब तरफ व्यापार है बुद्ध का, शुद्ध का, युद्ध का। अब तो सब तरफ व्यापार है प्रेम का, शांति का, सच्चाई का। अब तो सब तरफ व्यापार है सियासत का, नफासत का, सदारत का। अब तो सब तरफ व्यापार है जिंदों का, मुर्दों का और दोनों के बीच की कौमों का, जो न जिंदा हैं और न मरे हुए।

आधी रात के भी घंटे डेढ़ घंटे बाद जब अखबार छूटता है, अंधेरी रात को तब सन्नाटा सड़क पर साथ-साथ चलता है। लेकर चलता है साथ में और दिखाता है बोझिल सपनों के खंडहरों के तमाम स्मारक। थोपे हुए महापुरुषों की रात में खड़ी पथराई लाशों के आदमकद भूतों के डेरे से गुजरते हुए अपना बबूल सा व्यक्तित्व बहुत चुभने लगता है। सूखी हुई गंधाती गोमती बहुत रुलाती है, पर वह उल्टे सांत्वना भी देती है कि अकेले तुम ही नहीं हो, मैं भी हूं। जिस जीवित के जीवंत बहने पर कफ्र्यू है, जिसकी धारा पर धारा 144 है और जिसकी कृषकाया पर देखो कैसे विशालकाय पुल जीवन के आलीशान छद्म की तरह धड़धड़ाता हुआ गुजरता है। जैसे गोमती की उपेक्षा करता यह नया पुल न हो, नया कुल हो, जो अपनी सारी धारा को, आत्मा को 'री-साइकिल बिन' में डाल देता है, उसे यह समझ में नहीं आता कि जीवन के इस 'डस्ट बिन' में 'री-साइकिल' कुछ भी नहीं होता। विश्वास ही नहीं होता कि जीवन इस तरह की भी हृदयहीन आकृति लेता है! यकीन ही नहीं होता कि सत्य की यह भी आकृति होती है, सत्य का यह भी स्वरूप होता है! क्या यही सत्य है जो मुझे जन्मों जन्मों से भरमाए है और मैं गहरे तेज घूमते भंवर सा भ्रमित हूं जन्म जन्मांतर से! अब तो सारे भ्रम छोड़ कर मैंने अपनी व्यस्त और बदहवास जिंदगी की जेबों से निकाल निकाल कर पुरानी चीजें फेंकनी शुरू कर दी हैं। आधुनिक संवेदनहीन भाषा में कहें तो मैंने अपनी सारी स्मृतियां जीवन रहते 'डिलीट' करनी शुरू कर दी हैं। अरे क्या हैं उनमें! वही पुराने तुड़े मुड़े सिमटे लुग्दी हो चुके कागज उम्मीदों के, जुड़ाव की स्मृतियों के और सुकून के टूटे हुए कुछ बटन जो जीवन की शेरवानी पर कभी संवर कर टंक न सके, ये मेरे उसी बदनुमा-बदशक्ल जीवन की जेब से मिले हैं... टूटे हुए काज वाले बटन...