Tuesday 29 April 2014

'शो-बाज' लोकतंत्र का 'रोड-शो'...

प्रभात रंजन दीन
फैशन की दुनिया की खूबसूरत बालाएं जो आम तौर पर आम रास्तों पर नहीं दिखतीं, फिल्म की दुनिया की खूबसूरत हस्तियां जो आम तौर पर आम रास्तों पर नहीं दिखतीं, सियासत की दुनिया की नायाब हस्तियां जो आम तौर पर आम रास्तों पर नहीं दिखतीं, ये सब अपने-अपने खास मौकों पर अपनी-अपनी शब्दावली में रैम्प पर उतरती हैं। ठुमके लगाती आती हैं, हाथ हवा में उछालती हैं और मटकती हुई विलुप्त हो जाती हैं। ये नेताओं के जो 'रोड-शो' होते हैं, कुछ ऐसी ही जुगुप्सा के भाव भरते हैं। मॉडलों और हीरो-हीरोइनों की नकल पर नेताओं ने जबसे 'रोड-शो' करना शुरू कर दिया है, आम लोगों का श्रृंगार-भाव खटास से भर गया है।
सोमवार को लखनऊ में नेताओं के 'रोड-शो' का आखिरी दिन था। लेकिन इस आखिरी दिन ने भी लखनऊ के लोगों को यह फिर से जताया कि सत्ताशाही के तमाम चोंचले से लबालब 'रोड-शो' ही अब भारतीय लोकतंत्र की असलियत है। यह 'रोड-शो' शब्दावली ही अलोकतांत्रिक और अराजक है। 'शो-बाजी' से सवा सौ करोड़ लोगों के देश की लोकतांत्रिक प्रणाली का क्या लेना-देना? जिस चुनाव प्रक्रिया की शुरुआत 'शो-बाजी' से होती हो और समापन भी 'शो-बाजी' से होता हो तो स्वाभाविक है देश का नेता भी 'शो-बाज' ही होगा। ...इसीलिए तो भारतीय लोकतंत्र महज 'शो-पीस' बन कर रह गया है। 'रोड-शो' पर तत्काल प्रतिबंध लग जाना चाहिए। लेकिन यह चुनाव आयोग को नहीं दिखता और न ही हर बात में जनहित-याचिका लेकर अदालत की तरफ दौड़ पडऩे वाले जनहित-किराना-स्टोर के मालिकों का ध्यान इस ओर जाता है। 'ज्यूडिशियल एक्टिविज्म' का भारत में रिकार्ड बना रही अदालतें भी जन-सुविधा-विरोधी, लोक-तंत्र-विरोधी और कार्य-संस्कृति-विरोधी ऐसे 'रोड-शो' पर प्रतिबंध नहीं लगातीं। जब प्रदेश का मुख्यमंत्री ही घंटों 'रोड-शो' करेगा और नौकरशाही 'रोड-शो' की कामयाबी के लिए 'रोड' पर बिछ जाएगी, तो यह सवाल कौन पूछेगा कि सरकार काम कब कर रही थी? यह सवाल कोई तो पूछेगा कि चुनाव के दरम्यान आखिर सरकार ने क्या काम किया? जब शासन का मुखिया प्रचार में व्यस्त था। जब तमाम विभागों के मुखिया मंत्री अपने-अपने क्षेत्र में चुनाव दायित्व सम्भाल रहे थे तो संवैधानिक-प्रशासनिक दायित्वों का निर्वहन कैसे हो रहा था? सरकार काम कब कर रही थी? प्रशासन काम कब कर रहा था? पुलिस काम कब कर रही थी? प्रशासन का काम क्या सड़क पर लोगों के लिए असुविधाएं बिछाना और नेताओं के लिए वोट की गिनतियां बिछाना रह गया है?
सोमवार को चुनाव प्रचार का आखिरी दिन था। सत्ताधारी दल क्या, सत्ता के लिए मार कर रही सारी पार्टियां लखनऊ के लोगों का दम निकालने पर आमादा थीं। जितने प्रत्याशी थे सब के सब बाहर निकल आए थे। दृश्य कुछ ऐसा ही था कि जैसे वोट की लूट मची हुई हो और सारी पार्टियां एक साथ लूटने के लिए सड़क पर कूद पड़ी हों। फूहड़ फैशन शो की तरह प्रायोजित हो रहे ऐसे 'रोड-शो' से न जनता प्रभावित होने वाली और न जनता वोट डालने वाली है। जनता भीड़ के जुटने-जुटाने का मर्म जानती है। जनता जानती है कि गांव-कस्बों से विलुप्त हो गई नौटंकी कला नेताओं की रगों में किस कदर अपने भौंडे शक्ल में घुस गई है। 'रोड-शो' जैसे आयोजन नेताओं के नौटंकीबाज दिमाग का ही घटिया उत्पाद हैं। नौटंकीबाजों को आखिर यही तो चाहिए! जुटी या जुटाई गई भीड़, भीड़ की तालियां और मुर्दा मुंह से जिंदाबाद के नारे! राजनीति के नौटंकीबाजों को मंच मिल जाता है, रैम्प मिल जाता है, भीड़ मिल जाती है, तालियां मिल जाती हैं तो उसे सर्वस्व मिल जाता है। उसे वह वोट में दिखता है। और हर वोट में नेता को भविष्य का नोट दिखता है, जिसे लूट कर उसे खाना होता है। नेताओं से सफल नौटंकीबाज कोई नहीं। स्वाभाविक तरीके से रटे रटाए डायलॉग बोलना, मुखड़े को कथानक के अनुरूप थिरकाना, हावभाव दिखाना, प्रदर्शन-हड़ताल-समर्पण-पलायन सबका एक साथ स्वांग रचना, सार्वजनिक मंचों पर जन-सरोकारों का अपने भांडों से ढोल बजवाना और अपने चेहरे पर ईश्वर का भाव लाते हुए हाथ हिलाते हुए अंतरध्यान हो जाना... नौटंकी कला की नेताओं की ये सारी योग्यताएं चुनाव के समय प्रदर्शित हो जाती हैं और नागरिकों का प्राण हर लेती हैं।
सोमवार को पूरा शहर 'पैक्ड' था। कोई इधर से उधर हिल नहीं सकता था। लोग नेताओं और प्रायोजित समर्थकों को केवल हिलता हुआ देख सकते थे। चाहे जितना भी जरूरी काम रहा हो, चाहे जितनी भी आपातकालीन स्थिति रही हो, चाहे जितने भी आप बीमार रहे हों, नेताओं को तो वोट चाहिए। उसे लोगों के काम, लोगों की जरूरत, लोगों की सुविधा और लोगों के स्वास्थ्य से क्या लेना-देना! नेता को तो केवल वोट चाहिए। ...लेकिन वोट के लिए हिंस्र और हया की हदें लांघ रहे नेताओं के आश्वासनों की मीठी बोलियां सुनिए तो अचानक नागार्जुन की कुछ पंक्तियां याद आने लगेंगी, 'आश्वासन की मीठी वाणी भूखों को भरमाती / मौसम की गरमी से ज्यादा उनकी बोली है गरमाती / नेताजन को आडम्बर प्रिय है, प्रिय है उसको नाटक / खोल दिए हैं तुमने कैसे इंद्रसभा के फाटक / अब तो बंद करो हे देवी, यह चुनाव का प्रहसन...!'

जिन क्षेत्रों में 30 अप्रैल को चुनाव होना है, उन जगहों पर नेताओं के चुनाव-पूर्व प्रहसन का दौर तो समाप्त हुआ। बाकी बची नौटंकियों का मंचन भी अब जल्दी ही पूरा होना वाला है। चुनाव भी हो जाएगा और सत्ता भी बन जाएगी। लेकिन आम नागरिक को क्या मिल जाएगा! फिर से नेता देने लगेंगे मोबाइल लैपटॉप और आश्वासन। भूख और अनाज के सवाल फिर से अनुत्तरित ही रह जाएंगे। फिर मन में उठेंगे सवाल कि शुद्ध हवा और शुद्ध पानी तक इस लोकतंत्र में मुहाल है, अभी तो आजादी का छियासठवां ही तो साल है। वोट डालने जो सब अपने-अपने गांव आए हैं, वे उंगली में लोकतंत्र का दाग लगवा कर फिर भागेंगे दिल्ली मुम्बई पंजाब और कोलकाता। भात खाने के लिए फिर से खाएंगे लात। फसल उगने से पहले किसानों को मरना होगा फिर से! गन्ने की फसलें आग के हवाले और भूख का भविष्य चीनी मिल मालिकों के हवाले होगा फिर से! अपनी धरती अपने गांव में सिर्फ रह जाएंगे पागल और बुड्ढे। घरनियां रह जाएंगी देहरी और चौखट पकड़े हुए राह देखती अपने कमाऊ पूत और पति की। यही तो होगा फिर से चुनाव के बाद! हेलीकॉप्टरों पर उड़ते स्वप्न देखने के बाद आश्वासनों की तपती रेत पर नंगे पैर ही तो सफर करना होगा चुनाव के बाद फिर से!

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