Tuesday 8 April 2014

हम जीवन के मंच पर क्यों करते हैं प्रपंच...

प्रभात रंजन दीन
जीवन माया है, नाटक है, छद्म है, और मनुष्य इसे समझता भी है, तो फिर वह स्वार्थी क्यों होता है! इस नाटक में लिप्त क्यों रहता है! क्यों चुनाव लड़ता है! क्यों वोट देता है! किस बात की मारामारी है, किस बात की छीनाझपटी है, किस बात का घमंड है, किस बात का पाखंड है! कहते हैं कि सारे नाटकों का निर्देशन-दिग्दर्शन प्रकृति करती है... तो स्वार्थ से सने इस नाटक का निर्देशन भी क्या प्रकृति करती है? नहीं। इस जीवन में दो नाटक चलते रहते हैं साथ-साथ। होते हैं दोनों नाटक ही। एक जाना पहचाना होता है क्योंकि वह अपने से ही मंचित और अभिनित होता है। दूसरा नाटक जीवन में अनजाना सा घटता रहता है। दोनों नाटक चलते रहते हैं जिंदगी के साथ-साथ, लेकिन हम एक को असली और दूसरे को फिजूल मान कर मंच रौंदते रहते हैं। यह मौजूदा दौर भी और ही है, कितना बनावट और छद्म से भरा हुआ! किसी को भाव से पूछो तो वह भाव देता है। किसी को प्यार करो तो वह दांव देता है। किसी का मान रखो तो वह अपमान करता है। यह कौन सा दौर है? क्या कभी ऐसा हुआ होगा कि सब पात्र अपने निर्धारित समय पर निर्धारित मंच पर बिना किसी प्रपंच के आते होंगे और ईमानदार अभिनय करके चले जाते होंगे! सुना तो है कभी ऐसा हुआ करता था। पता नहीं। पर अब तो हम इतने दम्भी, स्वहितकेंद्री और उपद्रवी हो चुके हैं कि मंच पर लाए जाने का अवसर दिए जाने के प्रति आभार का भाव भी नहीं रखते। इस जाने पहचाने नाटक में अभिनय करने में भी फेल हो रहे हैं हम। तो फिर उस अनजाने अपरिचित से अचानक कभी घटित हो जाने वाले नाटक में कैसे सब कुछ स्वाभाविक मिल जाएगा? जब जाने पहचाने नाटक में मंच पर हमने कर्कशता का सृजन किया, कचरे फैलाए, घृणा फैलाई, स्वार्थपरता फैलाई, दम्भ दिखाया, दूसरे को तुच्छ और खुद को महान समझा तो वह अनजाना नाटक जब घटेगा तो हम कैसे उम्मीद करें कि उस वक्त सुरीले गीत उठेंगे, मंच पर नाद अपने सप्तम सुर में गूंजेगा और इंद्रधनुष अपनी सुंदर आकृति में पोर-पोर खिल जाएगा! हम अपने अभिनय को वास्तविक मानते हुए खुद को उसका असली पात्र मानने लगते हैं। एंठने लगते हैं। खोखला अभिनय ही हमारे जीवन का नशा बन जाता है। हम चुनाव लडऩे लगते हैं। हम कुर्सियां छीनने लगते हैं। हम भावनाएं छीलने लगते हैं। हम दूसरे को अपने स्वार्थ साधने का जरिया समझने लगते हैं। हम दूसरे को धोखा देने के मुगालते में जीते हुए खुद की पात्रता को धोखा देते चले जाते हैं, अपने अभिनय का समय समाप्त होने तक। नेता खुद को वाकई नेता समझने लगता है। जज खुद को असली जज समझने लगता है। मुख्तार खुद को असलियत में मुख्तार ही समझने लगता है। एक व्यक्ति खुद को समष्टि मानने लगता है। पत्रकार तो सबसे गया बीता है, वह खुद को सबकुछ समझने लगता है। जो अभिनय है उससे परे की पहचान करने की हम सब जद्दोजहद शुरू कर दें तो सब कुछ बदल जाए। मंच पर अभिनय ही हो तो जीवंत हो, पर निस्पृह हो, निरपेक्ष हो, असम्बद्ध हो। ...कि मंच से नेपथ्य में लौटें तो आत्मा में सुकून हो कि अभिनय तो खूब किया पर उसे अपने से छूने नहीं दिया। खुद को मंच का ही व्यक्ति न समझ बैठे। हम मंच पर दीवार खड़ी कर दीया न जलाएं। अंधेरा है तो सब के लिए है। उजाला है तो सबके लिए है। आप समझें कि इस सम्पादकीय में आज क्या लिखा गया। कुछ मनन करें। कुछ मंथन करें। नहीं समझें तो इसे अपने जीवन के जाने-समझे नाटक का घटित हिस्सा मान कर भूल जाएं और मस्त हो जाएं...

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