Friday 18 April 2014

जब मौन जीवन में उतर आए...

प्रभात रंजन दीन
यह सवाल एक व्यक्ति क्या पूरी मानव सभ्यता को ही बार-बार कुरेदता रहा है कि हमारे ही बीच के लोग अचानक मौन क्यों साध लेते हैं। अचानक चुप्पी के संसार में क्यों चले जाते हैं। बोलने के प्रति अचानक कोई आकर्षण क्यों नहीं रह जाता। इस पर तमाम बहसें चलती हैं। तमाम बौद्धिकियां होती हैं। दिमाग खपाए जाते हैं, फिर भी कोई आखिरी निष्कर्ष नहीं निकलता, फिर भी बहस चलती ही रहती है, फिर भी निरर्थक वाक-उत्पाद होता ही रहता है, और फिर भी जीवन में रहते हुए ही मौन साध लेने का अभ्यास भी चलता रहता है। इतने भाषण, इतनी बोलियां, इतनी घोषणाएं, इतने वायदे, इतने आश्वासन, इतने नारे, इतने सिद्धांत, इतनी नैतिकताएं, इन सबका इतना शोर-गुल, फिर भी ये सब असलियत में कहीं नहीं। असल में केवल छद्म। असम में केवल अवसरवाद। असल में केवल एक दूसरे को धोखा। बोली से भी। आचरण से भी। क्या इन्हीं वजहों से लोग मौन साधते रहे! क्या इसी वजह से भगवान बुद्ध ने भी कभी चुप रहने का संकल्प ले लिया था! क्या इन्हीं वजहों से कभी चाणक्य ने मौन को सबसे अधिक प्राथमिकता दी थी! क्या इन्हीं वजहों से रमन्ना महर्षि समेत तमाम संत-फकीरों ने शेष जीवन में मौन ही साध लिया! चाणक्य का संस्कृत में एक श्लोक है। पिता भोजन करने के समय चुप रहने की सीख देते हुए यह श्लोक सुनाया करते थे। बिना अर्थ जाने बालहट में श्लोक को रट भी लिया था, 'ये तु संवत्सरं पूर्ण नित्यं मौनेन भुंजते। युगकोटिसहस्त्रं तु स्वर्गलोके महीयते... पिता ने उसका अर्थ भी बताया था, लेकिन समय रहते अर्थ कहां पता चलता है, कहां समझ में आता है, कहां आत्मसात हो पाता है! बहुत दिनों के बाद इसका अर्थ जान पाया। वह है, 'जो मनुष्य एक वर्ष तक मौन रहकर भोजन करता है, वह अवश्य ही जीवन में मान सम्मान प्राप्त करने के अतिरिक्त जीवन काल के बाद भी स्वर्ग भोगता है।' मृत्यु के बाद तो जीव-शरीर यह नहीं जानता कि क्या होता होगा, लेकिन मौन रहने से अगर इसी जीवन में शांति मिले, तो इसका अभ्यास तो करना ही चाहिए। चाणक्य ने जीवनपर्यंत मौन को प्राथमिकता दी। भोजन के वक्त चुप रहने को तो उन्होंने अनिवार्य बताया था। चाणक्य के दर्शन से प्रभावित अंग्रेज दार्शनिकों ने भी कहा 'साइलेंस इज़ गोल्ड'। अब तो आधुनिक चिकित्साशास्त्री भी खाते वक्त चुप रहने को स्वास्थ्यप्रद बताते हैं। प्रकृति ने मनुष्यों को बुद्धि और विवेक की असीमित शक्ति दी है। नतीजा यह हुआ कि उस ताकत ने मनुष्य में अहंकार और अवसरवाद का भाव भी खूब भर दिया। अपनी श्रेष्ठता साबित करने के लिए उसे बोली मिल गई तो वह इसका अनाप-शनाप उपयोग करने लगा। बोलने के लिए जीभ का इस्तेमाल है और सुनने के लिए कान हैं। लेकिन दोनों का कोई संतुलन नहीं। सुनने से तो कोई वास्ता ही नहीं। सुनना भौतिक लाभ नहीं देता। बोलना त्वरित लाभ देता है। बस देखिए, सब अपनी-अपनी बात कर रहे हैं। कोई किसी की सुन नहीं रहा है। सब अपनी-अपनी बात बोले चला जा रहा है। कुछ भी पा लेने की इतनी आपाधापी है कि बस हम अपनी कह दें और दूसरा सुन ले। एक दूसरे से सब कुछ छीन लेने के मौकापरस्त शोर में मौन पर कोई कुछ लिखे तो बड़ा अटपटा लगता है। मौन साधना बड़ा कष्ट देता है, बड़ी छटपटाहट देता है, बड़ी बेचैनी देता है। जुबान चुप रहती है, लेकिन मन बोलता ही रहता है। मन भी जब चुप हो जाए तब समझिए जीवन में मौन उतरा। यह जैसे ही उतरा, जीवन का सारा झंझट ही समाप्त। फिर इससे क्या फर्क पड़ता कि किसने किसका दिल दुखा दिया, किसने किस रिश्ते को सीढ़ी की तरह इस्तेमाल कर लिया, किसने जीवंतता को मृत्युता में तब्दील करने में क्षणभर भी संकोच नहीं किया! मौन उतरा तो फिर संसार देखने का कोण ही बदल जाएगा। शब्दहीनता सूक्ष्म स्पंदन की तरह शरीर में सितार बजाएगी। प्रकृति का अस्तित्व अलग से रूप में सांसों से उतरेगा। कुरूप कुछ भी नहीं दिखेगा, शील स्वरूप वातावरण पर आच्छादित हो जाएगा, सत्य की गुनगुनी धूप तन-मन में मुस्काएगी। फिर आप बुद्ध की शरण में जाने की घोषणा किए बगैर उसमें आत्मसात हो जाएंगे, चुपचाप, बिल्कुल मौन...

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