Thursday 17 April 2014

...तो जीवन के सरोकार जघन्य बन ही जाएंगे

प्रभात रंजन दीन
जब समय हाथ से निकलता हुआ दिखता है तो दर्शन खूब दिखता है। दर्शन का मतलब ही है दिखना। जीवनभर यह कहां दिखता है। जब उम्र और ऊर्जा जोर पर रहती है तो कामनाएं ठाठें मारती है, तब दर्शन कहां और शास्त्र कहां। तब यह नहीं समझ में आता कि जीवन का यही शास्त्र एक दिन दर्शन की ताकत देगा। जब यह ताकत आएगी तभी यह समझ में आएगा कि जीवन की क्या अनिवार्यताएं हैं और जीवन की क्या वर्जनाएं हैं। अब तो वर्जनाएं ही सब अनिवार्यताएं हो गई हैं। अब तो छोटी-छोटी कामनाएं पूरी हो जाएं उसके लिए बड़े-बड़े प्रगाढ़ सम्बन्ध लाश बन जाएं, क्या फर्क पड़ता है। कामनाओं की इस आपाधापी में कब वक्त मिलता है कि यह सोच भी सकें कि जीवन में जो किया उसमें क्या भला था और क्या बुरा! जब से होश आता है, लेकिन होश आता कहां है, यह तो केवल मुगालता है। होश आने का मुगालता। होश में आने का मुगालता और अधिक तेजी से बेहोशी में ले जाता है। वह इसी मुगालते वाले होश में देखता है कि दुनिया के बाजार में हर एक व्यक्ति एक दूसरे को भुलाने में और भुनाने में लगा है। सब अपनी-अपनी ले और अपनी-अपनी दे में लगा है। फिर वह भी उसी रेले में बहना शुरू कर देता है। भीतर के भावों से फिर मतलब नहीं रहता। फिर उसे कहां पता रहता है कि अनिवार्यताएं क्या हैं और वर्जनाएं क्या! तब कहां दिखता है कि जीवन का बाजार जितना भड़कीला और रंग-रंगीला था वह केवल रंग-बिरंगी चकाचौंधी चुनरियों में लिपटी वर्जनाएं थीं। तब परहेज नहीं किया, अब तो उसकी लत लग चुकी है। अब तो हृदय से हृदय का राग नहीं, अब सारी सफेदी में दाग ही दाग हैं और जिसके हाथ में जो मिला उसे लेकर ही भागमभाग है। कौन क्या सोचेगा, किसकी आंख में क्या खटकेगा, किसके मन में क्या सीधा जा कर चुभ जाएगा और आंखों से खून रिसाएगा, इसकी परवाह किसे है? और परवाह क्यों रहे? सब तो यही सुनता आया है कि सब अकेला आया है और अकेला जाएगा, फिर वह सिर्फ अकेले की ही क्यों न सुने? फिर वह अपने ही इर्द-गिर्द क्यों न नाचे? फिर क्यों न वह अपनी ही देह-गाथा बांचे? 1984 के सिख विरोधी दंगे की एक विचित्र घटना हमेशा याद रहती है। दंगा मचा था। लूटपाट मची थी। मुहल्ले का एक लड़का एक टायर लुढ़काता हुआ चला जा रहा था। पूछा तो कहा कि टायर की दुकान में लूट हुई थी वहीं से एक टायर मिल गया। दो कौड़ी का टायर। मिल गया तो उसे ही उठा लिया। छोटा सा टायर मिल गया तो सारी वर्जनाएं समाप्त। बड़ा मिल जाए तो खुद का अस्तित्व दे दे। अब टायर ही जीवन का फलसफा बन गया। हम सब उसी टायर-फलसफे के शिकार हैं। हमारा शास्त्र अवसर पाते ही टायर लूट लेना है, तो हमारा दर्शन बड़ा कैसे हो सकता है। लूट के फलसफे पर टिका जीवन कभी छोटा टायर लूट लेगा तो कभी बड़ा हवाई जहाज। लूट तो लूट ही है, लूट तो त्यज्य ही है, कामना तो हेय ही है, क्षुद्र महत्वाकांक्षाएं तो क्षुद्र ही हैं, यह विचार जीवन के दर्शन में कहां! यह जीवन-दर्शन कहां कि 'अपना तो अस्तित्व सजग है, यह सोच बड़ी-बड़ी चट्टानों से जा टकराना'! अब तो जीवन-दर्शन है, मंत्री ने कंधे पर हाथ रख दिया तो जीवन धन्य। औकात वाले ने मुस्कुरा कर पूछ दिया तो धन्य-धन्य। हम इतने ही हैं मूर्धन्य। ...तो जीवन के सारे सरोकार जघन्य बन ही जाएंगे।

No comments:

Post a Comment