प्रभात
रंजन दीन
गुरुवार
को अचानक मौसम बदल गया। तेज आंधी चलने लगी, चारो तरफ धूल ही
धूल, पेड़ उखडऩे लगे, फसलें उजडऩे लगीं,
बिजली के तार टूटने लगे, दीवारें गिरने लगीं,
लोग मरने लगे, जख्मी होने लगे, थोड़ी देर में सब शांत हो गया। प्रकृति जैसे अपनी नाराजगी जता कर कहीं चली
गई। झूठ और लफ्फाजी का जो चरम है भारतवर्ष में अभी, उससे लोग
भले ही नाराज न होते हों, प्रकृति तो संवेदनशील है, उसे नाराजगी हो जाती है और वह उसे अभिव्यक्त भी कर देती है। लेकिन हम लोग अपनी
नाराजगी अभिव्यक्त नहीं कर पाते, हम लोग तो अब नाराज भी नहीं
हो पाते। यथास्थितिवाद को हमने स्वीकार कर लिया है। नाराज होते तो यह व्यवस्था थोड़े
ही रहती। हम भी तूफान की तरह आते और नेताओं और उनकी लफ्फाजियों को धूल की तरह उड़ा
कर फेंक देते। लेकिन हम में वह ताकत कहां। या हमें अपनी ही ताकत का एहसास कहां। बुजुर्गों
ने कहा कि क्रोध विनाश का कारण है। यह बात जब कही गई, तब काल
और परिस्थिति तब जैसी थी। आज स्थिति बदल गई है। आज विनाश ही जरूरी हो गया है। इसलिए
क्रोध जरूरी हो गया है। किसी भी काल खंड में जिसे क्रोध नहीं आया या अब नहीं आता उसके
जिंदा होने में संदेह है। जो जिंदा है वह ठहाके लगाएगा, वह रोएगा,
वह प्रेम करेगा, वह गुस्सा होगा, वह प्रकृति की धारा में बहेगा। जो मुर्दा होगा या जो मुर्दा होने की प्रक्रिया
में रहेगा वह हंसेगा नहीं, रोएगा नहीं, प्रेम नहीं करेगा, वह गुस्सा नहीं करेगा, वह सारे कृत्य करेगा जो प्रकृति के विपरीत हों, मसलन
झूठ बोलेगा, धोखा देगा, सम्बन्धों में मक्कारी
करेगा, चेहरे पर कई किस्म के चेहरे लगा कर घूमेगा, कोई जरूरी नहीं कि वह पहले नेता ही हो जाए, हां,
जब सारे अप्राकृतिक आचरण उसके व्यक्तित्व में समाहित हो जाएंगे तो वह
एकबारगी नेता के रूप में खिल कर सामने आएगा। जब तक सत्ता में रहेगा देश को लूटेगा और
नागरिकों को चूसेगा। जब विपक्ष में रहेगा तो सत्ता के लिए तिकड़म करेगा, माहौल सड़ाएगा। जब मंच पर चढ़ेगा तो उसके चेहरे पर जैसे सारी इंसानियत और सारा
देवत्व एक साथ चढ़ आएगा। जब जरूरत पड़ी तो खीसें निपोरेगा और काम निकल गया तो देखेगा
भी नहीं। स्वार्थसिद्ध वाला कोई भी दिख गया तो अपने किसी सगे को भी नहीं पहचानेगा।
सारी नकली मासूमियत और सारी असली जानवरीयत जिस एक ही देह में आकार लेती हो,
ऐसा उत्पाद भारतीय लोकतंत्र में ही हो सकता है। सूरत में कुछ और... सीरत
में बिल्कुल कुछ और। इन सूरतों के मारे हुए उजड़े हुए घरों को देखिए तो पूरा लोकतंत्र
गिरे हुए पेड़ों के खौफनाक मंजर की तरह दिखता है। सारे जंगल जब शहर के कानून में बसा
दिए गए तो स्वाभाविक है सारे सांप शहर में ही आ कर बस गए। इन्हीं सांपों का अभी मौसम
है। इन्हीं सांपों को अभी दूध पिलाने का मौसम है। फिर शुरू होगा उनका मौसम,
वे लहूं पीएंगे और हम उन्हीं का जहर।
...शोर
मचाया लफ्जों ने, थोथे सब्र बंधाए खूब / बातें उनकी,
वादे उनके, उजड़े-उजड़े सूखे दूब / चेहरे पर जो
भाव लिखा सब लफ्फाजों पर भारी है / सूरत में है यारी जिसकी, सीरत
में गद्दारी है...
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