प्रभात रंजन दीन
एक बार बुद्ध ने अपने प्रवचन
में कहा, जागो, समय हाथ से निकला जा रहा है।
इस संदेश का सब ने अपने अपने तरीके और अपनी-अपनी समझ से मतलब निकाला। नर्तकी ने अपने
तरीके से, डकैत
ने अपने तरीके से और वृद्ध ने अपनी समझ से बुद्ध के उस संदेश का अर्थ निकाला... बुद्ध
ने बाद में अपने शिष्य से कहा कि जिसकी जितनी झोली होती है, उतना ही वह समेट पाता है। झोली
बड़ी हो इसके लिए मन का शुद्ध होना बहुत जरूरी है। ...और सारी बात इसी एक बात पर आकर
टिक जाती है। जिसकी आत्मा शुद्ध हो, उसी की झोली बड़ी हो सकती है, वही बुद्ध को समझ सकता है। सारे
सामाजिक सरोकार इसीलिए तो संकट में हैं, क्योंकि सारे सम्बन्ध अशुद्ध हैं, सारे भाव अशुद्ध हैं, सारे ताव अशुद्ध हैं। केवल आडम्बर
है छाया हुआ। केवल अवसरवाद है हर तरफ रंभाया हुआ। इसीलिए तो न कहीं शुद्ध है, न कहीं बुद्ध है। इस पर कई बार
बात हो चुकी। इस पर कई बार सम्पादीय लिखे जा चुके। इस पर कई बार और बार-बार लेख लिखे
जाते रहे, लेकिन
किसने लिख कर किसके मन को धो दिया? किसने अक्षर उकेर कर किसमें शुद्ध प्रेम
का भाव भर दिया? किसने बोल कर किसकी झोली बड़ी कर दी? क्या बुद्ध ने कर दी? फिर क्यों हर तरफ वही सब है जिसे
बुद्ध ने नहीं चाहा? जिसे कबीर ने नहीं चाहा? जिसे तमाम सूफी संतों ने नहीं चाहा? क्यों हर हाथ में चाकू है और
हर आंख को पीठ की तलाश है? क्यों हर व्यक्ति दूसरे को मरी हुई सीढ़ी समझता है, इस्तेमाल करता है और ऊंचा चढ़
कर उसी सीढ़ी को हेयता की नजर से देखता है? हेलीकॉप्टर मिल गया तो क्या वह कभी जमीन
पर उतरेगा ही नहीं? हेलीकॉप्टर उड़ाने वाला कहां आसमान पर सफलताओं को टिका देगा और
घर बना देगा? अगर जमीन
और जमीन पर टिकी सीढिय़ों की उपेक्षा कर आसमान पर सफलताओं के आशियाने बनते होते तो
हेलीकॉप्टर उड़ाने वालों या हेलीकॉप्टर से उडऩे वालों के तमाम कामयाबियों के आशियाने
आकाश पर छा नहीं गए होते? कितना सटीक कहा गया, 'जिसकी रही भावना जैसी प्रभु मूरत देखी
तिन तैसी'...
लेकिन हम आधुनिक
लोग कहावतों की लाइनें उठा कर इस्तेमाल तो करते हैं लेकिन आचरण में भावना के बजाय केवल
सम्भावना तलाशते हैं। लोगों ने सीखा है केवल अपने उस्तुरे पैने करना और दूसरे के पंख
तलाशना। अब तो सब तरफ व्यापार है बुद्ध का, शुद्ध का, युद्ध का। अब तो सब तरफ व्यापार है प्रेम का, शांति का, सच्चाई का। अब तो सब तरफ व्यापार
है सियासत का, नफासत का, सदारत का। अब तो सब तरफ व्यापार
है जिंदों का, मुर्दों का और दोनों के बीच की कौमों का, जो न जिंदा हैं और न मरे हुए।
आधी रात के भी घंटे डेढ़ घंटे
बाद जब अखबार छूटता है, अंधेरी रात को तब सन्नाटा सड़क
पर साथ-साथ चलता है। लेकर चलता है साथ में और दिखाता है बोझिल सपनों के खंडहरों के
तमाम स्मारक। थोपे हुए महापुरुषों की रात में खड़ी पथराई लाशों के आदमकद भूतों के डेरे
से गुजरते हुए अपना बबूल सा व्यक्तित्व बहुत चुभने लगता है। सूखी हुई गंधाती गोमती
बहुत रुलाती है, पर वह उल्टे सांत्वना भी देती
है कि अकेले तुम ही नहीं हो, मैं भी हूं। जिस जीवित के जीवंत
बहने पर कफ्र्यू है, जिसकी धारा पर धारा 144 है और
जिसकी कृषकाया पर देखो कैसे विशालकाय पुल जीवन के आलीशान छद्म की तरह धड़धड़ाता हुआ
गुजरता है। जैसे गोमती की उपेक्षा करता यह नया पुल न हो, नया कुल हो, जो अपनी सारी धारा को, आत्मा को 'री-साइकिल बिन' में डाल देता है, उसे यह समझ में नहीं आता कि जीवन के इस 'डस्ट बिन' में 'री-साइकिल' कुछ भी नहीं होता। विश्वास ही
नहीं होता कि जीवन इस तरह की भी हृदयहीन आकृति लेता है! यकीन ही नहीं होता कि सत्य
की यह भी आकृति होती है, सत्य का यह भी स्वरूप होता है!
क्या यही सत्य है जो मुझे जन्मों जन्मों से भरमाए है और मैं गहरे तेज घूमते भंवर सा
भ्रमित हूं जन्म जन्मांतर से! अब तो सारे भ्रम छोड़ कर मैंने अपनी व्यस्त और बदहवास
जिंदगी की जेबों से निकाल निकाल कर पुरानी चीजें फेंकनी शुरू कर दी हैं। आधुनिक संवेदनहीन
भाषा में कहें तो मैंने अपनी सारी स्मृतियां जीवन रहते 'डिलीट' करनी शुरू कर दी हैं। अरे क्या हैं उनमें! वही पुराने तुड़े मुड़े सिमटे लुग्दी
हो चुके कागज उम्मीदों के, जुड़ाव की स्मृतियों के और सुकून
के टूटे हुए कुछ बटन जो जीवन की शेरवानी पर कभी संवर कर टंक न सके, ये मेरे उसी बदनुमा-बदशक्ल जीवन की जेब से मिले हैं... टूटे हुए
काज वाले बटन...
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