Tuesday 30 May 2017

खुल रहा नगा समझौते का रहस्य, दे रहे विद्रोहियों को आज़ादी

प्रभात रंजन दीन क्या मोदी सरकार पूर्वोत्तर में एक और कश्मीर स्थापित करने की कोशिश में है, जिसका अपना संविधान होगा, अपनी न्यायिक व्यवस्था होगी, अपना झंडा होगा, अपनी मुद्रा होगी, अपना पासपोर्ट होगा और अपनी सेना होगी, जो भारतीय सेना के साथ साझा तौर पर काम करेगी! भारतीय सेना के शीर्ष अफसर यह संकेत दे रहे हैं कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी नगाओं को ‘आजादी’ देने जा रहे हैं, जो आने वाले समय में कश्मीर से ज्यादा खतरनाक साबित होने वाला है. पूर्वोत्तर के साथ-साथ शेष भारत के आम लोग भी पीएम मोदी से पूछ रहे हैं कि कश्मीरी अलगाववादियों की ‘आजादी’ की मांग राष्ट्र-द्रोह और नगा विद्रोहियों की ‘आजादी’ की मांग राष्ट्रवाद कैसे है? यह वाजिब लोकतांत्रिक सवाल है, इसका जवाब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को देना ही चाहिए. केंद्र की सत्ता में आने के सालभर बाद ही तीन अगस्त 2015 को नरेंद्र मोदी सरकार ने नेशनल सोशलिस्ट काउंसिल ऑफ नगालैंड ‘ईसाक-मुइवा’ (एनएससीएन-आईएम) गुट के साथ एक समझौता किया, लेकिन देश के सामने इसका ब्यौरा नहीं रखा. केंद्र सरकार की तरफ से यह कहा गया कि पहले इसका विवरण संसद के समक्ष रखा जाएगा, फिर बाद में इसे सार्वजनिक किया जाएगा. लेकिन केंद्र सरकार ने दोनों काम नहीं किया. न संसद में रखा और न जन-संसद को इस लायक समझा. समझौते के दो साल होने को आए, लेकिन केंद्र सरकार ने देश को यह बताने की जरूरत नहीं समझी कि समझौते के कौन-कौन से मुख्य बिंदु हैं और केंद्र सरकार ने एनएससीएन की क्या-क्या शर्तें मानी हैं. केंद्र ने इसे गोपनीय बना कर रखा है लेकिन पूर्वोत्तर मामलों के विशेषज्ञ वरिष्ठ सेनाधिकारी केंद्र सरकार द्वारा मानी गई शर्तों की परतें खोलते हैं और उन पर अपना क्षोभ जाहिर करते हैं. गृह मंत्रालय के एक आला अधिकारी ने कहा कि एनएससीएन (आईएम) के स्वयंभू लेफ्टिनेंट जनरल और विदेश मंत्री अंथोनी निंगखन शिमरे ने जमानत पर छूटने के बाद जो बातें कहीं, उसके बाद समझौते की गोपनीयता कहां रह गई. शिमरे के बयान को ध्यान से देखें, उसने तो बता ही दिया है कि क्या होने जा रहा है. शिमरे एनएससीएन प्रमुख मुइवा का भांजा है. शीर्ष सत्ता गलियारे में जिस तरह की सुगबुगाहटें हैं, उससे केंद्र सरकार के एनएससीएन (आईएम) के आगे दंडवत होने के कई उदाहरण सामने दिखने लगे हैं. विदेशों से बड़ी तादाद में हथियारों का जखीरा जमा करने के आरोप में गिरफ्तार किए गए अंथोनी शिमरे की जमानत अर्जी पर नेशनल इन्वेस्टिगेशन एजेंसी (एनआईए) का कोई आपत्ति दर्ज नहीं करना और शिमरे को बड़े आराम से जमानत मिल जाना, केंद्र सरकार की दंडवत-कथा के बारे में काफी-कुछ कहता है. दिल्ली के पटियाला हाउस स्पेशल कोर्ट के जज अमरनाथ के समक्ष एनआईए के स्पेशल पब्लिक प्रॉसीक्यूटर ने ‘ऑन-रिकॉर्ड’ कहा था कि उन्हें ई-मेल पर एनआईए से निर्देश मिला है कि शिमरे की जमानत अर्जी पर कोई आपत्ति दाखिल न की जाए. एनआईए के वकील ने अदालत से यह भी कहा कि शिमरे की जमानत एनएससीएन (आईएम) के साथ चल रही शांति वार्ता के कार्यान्वयन के लिए जरूरी है. शिमरे को सितम्बर 2010 में काठमांडू में गिरफ्तार दिखाया गया था. उसे चीन के साथ हथियारों की बड़ी डील करने के आरोप में गिरफ्तार किया गया था, लेकिन चार अगस्त 2016 को एनआईए ने ही शिमरे की रिहाई का रास्ता खोल दिया. रिहा होने के बाद अंथोनी शिमरे ने कहा कि बृहत्तर नगालिम की स्वायत्तता, अलग संविधान, अलग न्यायिक और प्रशासनिक व्यवस्था, अलग मुद्रा और साझा सेना समझौते की मुख्य शर्त है. शिमरे ने इसकी पुष्टि की कि समझौते के आधार पर नए नगा राज्य की अपनी अलग न्यायिक व्यवस्था, कानून व्यवस्था और प्रशासनिक व्यवस्था होगी. रक्षा मसले पर नॉर्थ-ईस्ट फ्रंटियर आर्मी, भारतीय सेना और नगा सेना साझा तौर पर काम करेगी. नगालैंड और भारत की अपनी अलग-अलग स्वतंत्र पहचान होगी. नगालैंड की जमीन और संसाधनों का इस्तेमाल सिर्फ नगा ही करेंगे. पूर्वोत्तर मामलों के विशेषज्ञ और पूर्वोत्तर में कोर कमांडर रहे लेफ्टिनेंट जनरल (रि) जेआर मुखर्जी का कहना है कि अब तक जो सुराग मिले हैं उसके मुताबिक केंद्र सरकार नगाओं को अलग संविधान, अलग झंडा, अलग मुद्रा और अलग पासपोर्ट का अधिकार देने पर रजामंद हो गई है. जनरल मुखर्जी कहते हैं कि इस समझौते से नगालैंड का संयुक्त राष्ट्र में अपना प्रतिनिधि तैनात होना तय हो जाएगा. नगालैंड का विदेश और रक्षा का मसला भारत सरकार के साथ संयुक्त विषय होगा. नगालैंड की अपनी सेना होगी जो भारतीय सेना के साथ साझा तौर पर काम करेगी. समझौते के तहत नगा बसावट के सभी क्षेत्र बृहत्तर नगालैंड में शामिल किए जाने की भी अंदर-अंदर तैयारी चल रही है. बृहत्तर नगालिम में नगालैंड के साथ-साथ मणिपुर, अरुणाचल प्रदेश और असम के नगा बसावट के इलाके भी शामिल होंगे. इस प्रस्ताव का मणिपुर राज्य की तरफ से पहले से पुरजोर विरोध हो रहा है. लेकिन यह विडंबना ही है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी एक तरफ मणिपुर की अस्मिता को अक्षुण्ण रखने की तकरीरें देते हैं तो दूसरी तरफ बृहत्तर नगालिम की स्थापना के समझौते करते हैं. सेना की पूर्वी कमान से सम्बद्ध एक वरिष्ठ सेनाधिकारी कहते हैं कि नगा समझौते में केंद्र सरकार की सहमति के ये मुद्दे अगर सच हैं, तो नगालैंड को हाथ से निकला ही समझिए. इसके अलावा जम्मू-कश्मीर, तमिलनाडु और प्रादेशिक राष्ट्रवाद की भावना से ओतप्रोत कई अन्य राज्यों में हिंसक आंदोलनों के भड़कने की भी आंशकाओं को खारिज नहीं किया जा सकता. प्रधानमंत्री मोदी ने एनएससीएन के थुइंगलेंग मुइवा और ईसाक चीसी स्वू के नेतृत्व वाले गुट से शांति समझौता किया, लेकिन एनएससीएन के एसएस खापलांग और खोले कोन्याक के नेतृत्व वाले गुट समेत कई प्रमुख गुटों को शांति वार्ता से अलग रखा. दिलचस्प यह है कि नगालैंड की अलग सेना रखने की सहमति इस तर्क पर दी गई कि खापलांग गुट का मुकाबला करने के लिए मुइवा गुट को अलग से हथियार और सेना की जरूरत होगी. समझौते पर एनएससीएन की तरफ से मुइवा ने हस्ताक्षर किए हैं. विचित्र किंतु सत्य यह है कि नगा शांति समझौते में केंद्र सरकार द्वारा मानी जाने वाली शर्तों पर गृह मंत्रालय ने गहरी आपत्ति जताई थी, लेकिन प्रधानमंत्री और उनके सिपहसालारों ने इस आपत्ति को दरकिनार कर दिया. गृह मंत्री से बड़ी औकात सुरक्षा सलाहकार अजित डोवाल की साबित हुई जिनकी सिफारिश पर आरएन रवि नगा शांति समझौते के मुख्य वार्ताकार नियुक्त कर लिए गए. शांति वार्ता में मध्यस्थता के लिए पूर्व खुफिया अधिकारी आरएन रवि का नाम प्रस्तावित किए जाने का भी गृह मंत्रालय ने विरोध किया था. गृह मंत्री ने संयुक्त खुफिया कमेटी के चेयरमैन अजित लाल का नाम प्रस्तावित किया था, लेकिन मोदी ने अपने गृह मंत्री राजनाथ सिंह की नहीं सुनी और डोवाल का कहना मान कर पूर्व खुफिया अधिकारी आरएन रवि को मुख्य वार्ताकार बना डाला. मुख्य वार्ताकार की दौड़ में लेफ्टिनेंट जनरल (रि) आरएन कपूर और असम पुलिस के पूर्व प्रमुख जीएम श्रीवास्तव का भी नाम था, लेकिन पीएमओ में उनकी नहीं चली. गृह मंत्रालय और पूर्वोत्तर मामलों के विशेषज्ञों की आपत्तियों को नजरअंदाज कर शांति वार्ता में केवल ईसाक-मुइवा गुट को ही क्यों शामिल किया गया और खापलांग गुट को क्यों अलग-थलग रखा गया? यह गंभीर सवाल है और समझौते की संदेहास्पद-अंतरकथा का संकेत देता है. वर्ष 2015 के अगस्त महीने में केंद्र सरकार एनएससीएन ईसाक-मुइवा गुट के साथ गुप्त समझौता करती है और 16 सितम्बर को एनएससीएन खापलांग गुट पर बैन लगाने का आदेश जारी कर देती है. केंद्र सरकार जून 2015 में मणिपुर में सुरक्षा बल के 18 जवानों के मारे जाने की घटना से खापलांग गुट को जोड़ कर, चार महीने बाद उसे आतंकवादी संगठन घोषित कर उस पर प्रतिबंध लगाती है. प्रतिबंध लगाने के पहले ही म्यांमार सीमा में घुस कर खापलांग गुट के आंतिकयों को मार डालने और ठिकानों को नष्ट किए जाने के ‘मिलिट्री-स्ट्राइक’ का खूब प्रचार-प्रसार किया जाता है. लेकिन यह असलियत देश को नहीं बताई जाती कि म्यांमार (बर्मा) सरकार ने अपने यहां सागाइंग डिवीजन को बाकायदा नगा सेल्फ-एडमिनिस्टर्ड ज़ोन घोषित कर रखा है, जिसमें म्यांमार के छह जिले तामू, मोलाइक, फुऑनपिन, होमालिन, खामटी और तानाई जिले शामिल हैं. हाल में म्यांमार सरकार ने तीन जिले वापस लिए. अन्य तीन जिलों लाएशी, लाहे और नामयुंग में खापलांग गुट का ऑटोनोमस डिस्ट्रिक्ट काउंसिल स्थापित है. खापलांग गुट लगातार यह मांग करता रहा है कि शांति वार्ताओं में उसे भी शामिल रखा जाए. लेकिन कुछ ‘अज्ञात’ वजहों से मोदी और उनके खास नुमाइंदों ने इस ताकतवर गुट को दूध की मक्खी बना कर बाहर कर दिया. पूरब के नगाओं को इस बात का गहरा मलाल है कि मोदी सरकार ने उनकी उपेक्षा की जबकि पश्चिम के नगाओं की खूब सुनी. खापलांग गुट न केवल नगालैंड बल्कि अरुणाचल प्रदेश और म्यांमार तक नगाओं के बीच खासा प्रभावी और लोकप्रिय है. इससे समझा जा सकता है कि एक गुट के साथ शांति समझौता करके केंद्र सरकार ने पूरे क्षेत्र को किस हिंसक विद्वेष की आग में झोंकने की पृष्ठभूमि तैयार कर दी है. वर्ष 1956 की बात है जब नगालैंड की स्वतंत्र पहचान की मांग हिंसक युद्ध की शक्ल में बदल गई थी और फीजो ने नगा नेशनल काउंसिल (एनएनसी) को पूरी तरह अपने नियंत्रण में ले लिया था. इसके बाद ही नगा पर्वतीय क्षेत्र को अशांत घोषित किया गया और उसे सेना के हवाले कर दिया गया था. तब से यह क्षेत्र लगातार अशांत ही है. तब नेहरू ने कहा था कि सेना कुछ ही महीनों में हटा ली जाएगी, लेकिन ऐसा नहीं हुआ और विभिन्न कारणों से सेना की मौजूदगी वहां लगातार बनी हुई है. थल सेना की तीसरी कोर का मुख्यालय दीमापुर में स्थापित है. ईशाक-मुइवा गुट के नेशनल सोशलिस्ट काउंसिल ऑफ नगालैंड (एनएससीएन) के साथ 1997 से युद्ध विराम लागू है. तबसे लगातार भारत सरकार और एनएससीएन के साथ समझौता वार्ता भी जारी है. हम यह भी याद करते चलें कि नगा नेशनल काउंसिल और केंद्र सरकार के बीच 1975 में हुए शिलांग समझौते के विरोध में 31 जनवरी 1980 को ईसाक चिसी स्वू, थुइंगलेंग मुइवा और एसएस खापलांग ने मिल कर नेशनल सोशलिस्ट काउंसिल ऑफ नगालैड का गठन किया था. 1988 में खापलांग ने टूट कर अपना अलग गुट बना लिया. 25 जुलाई 1997 को केंद्र सरकार और एनएससीएन (आईएम) के साथ समझौता हुआ और दोनों तरफ से युद्ध विराम की घोषणा हुई. लेकिन इस दरम्यान कोई स्थायी समाधान नहीं ढूंढ़ा जा सका. 28 जून 2016 को ईसाक चिसी स्वू की मृत्यु के बाद थुइंगलेंग मुइवा एनएससीएन (आईएम) के अकेले प्रमुख हो गए. तीन अगस्त 2015 को मोदी सरकार ने एनएससीएन (आईएम) के साथ नगा शांति समझौता किया और दावा किया कि इस समझौते से 60 साल पुराने विवाद का हल निकल आया है. लेकिन क्या हल निकला, इस बारे में केंद्र सरकार ने देश को कुछ नहीं बताया. यह सवाल देश के सामने खड़ा ही रह गया कि आखिर नगा शांति समझौते का क्या परिणाम निकला? प्रधानमंत्री बनने के बाद से नरेंद्र मोदी खास तौर पर पूर्वोत्तर को लेकर संजीदा दिखते रहे और पूर्वोत्तर की तमाम योजनाओं का पूरा प्रचार-प्रसार भी होता रहा. लेकिन लोगों को यह समझ में नहीं आ रहा कि नगा शांति समझौते को लेकर मोदी ने चुप्पी क्यों साध रखी है. यह भी आधिकारिक तौर पर स्पष्ट नहीं किया गया है कि नगा शांति समझौता स्वतंत्र संप्रभु नगालिम राष्ट्र के लिए हुआ है या बृहत्तर नगालिम राज्य के लिए. सेना के सूत्र और खुद एनएससीएन (आईएम) के शीर्ष कमांडर शिमरे जिस तरह की बातें कर रहे हैं, वह नगा आजादी की तरफ बढ़ने का ही संकेत है. केंद्र को यह तो बताना ही चाहिए स्वतंत्र संप्रभु नगालिम की मांग करने वाले एनएससीएन (आईएम) को आखिर किन शर्तों पर समझौते के लिए राजी किया जा सका. ऐसी गोपनीयता पहली बार बरती गई है. सरकार ने केवल इतना कहा है कि इस समझौते से पिछले 60 साल से चला आ रहा गतिरोध लगभग समाप्त हो गया है. एनएससीएन समेत कई संगठन लंबे अर्से से बृहत्तर नगालिम या ग्रेटर नागालैंड की मांग करते चले आ रहे हैं. इसके तहत मणिपुर, अरुणाचल प्रदेश और असम के नगा समुदाय की बहुलता वाले पहाड़ी जिलों को मिलाकर ग्रेटर नागालैंड बनाने की मांग की जाती रही है. केंद्र सरकार एनएससीएन (आईएम) को स्वायत्तता देने पर राजी हो गई है, लेकिन इसकी प्रक्रिया क्या होगी और यह कैसे लागू होगी, इस पर सस्पेंस बना हुआ है. नगा शांति वार्ता की प्रक्रिया से जुड़े गृह मंत्रालय के एक अधिकारी कहते हैं कि नगा बहुल क्षेत्रों के बृहत्तर नगालैंड में शामिल करने के मसले को फिलहाल किनारे रख कर बाकी मसलों पर दोनों पक्षों में सहमति बन गई है. दोनों पक्ष खापलांग गुट और उसका साथ देने वाले गुटों का पूरी तरह सफाया करने पर रजामंद हैं. केंद्र ने नागालिम की मांग को सिरे से खारिज नहीं किया है. इसे फिलहाल भविष्य पर छोड़ दिया गया है क्योंकि असम, अरुणाचल प्रदेश और मणिपुर में हो रहे तीखे विरोध के कारण ऐसा करना खतरे से खाली नहीं है. लेकिन नगा समझौते की मूल मांग नगा बहुल क्षेत्रों को एक साथ करने की है. एनएससीएन (आईएम) प्रमुख थुइंगलेंग मुइवा मणिपुर के उखरूल जिले के शोनग्राम (सोमडाल) गांव के रहने वाले हैं, इसलिए नगा बहुल इलाकों के विलय की मांग उनकी प्रतिष्ठा से जुड़ा मसला है. बहरहाल, एनएससीएन प्रमुख थुइंगलेंग मुइवा के भांजे अंथोनी शिमरे की गिरफ्तारी और फिर नाटकीय रिहाई से सैन्य और खुफिया एजेंसियों का ‘एंटीना’ सजग हुआ, लेकिन इस सजगता का कोई सकारात्मक नतीजा नहीं निकला. निरंकुश पीएमओ और ताकतवर सुरक्षा सलाहकार के कारण सेना और खुफिया एजेंसियों के आला अधिकारी खुले तौर पर भले ही कुछ न कहें, लेकिन उनके अपने दायरे में इस बात को लेकर चर्चा और गहरी चिंता है कि चीन सम्बन्धों के संदर्भ में नगा समझौता भारत के लिए एक और खतरे का मुहाना खोलने जैसा होगा. पूर्वोत्तर में आतंकवाद भड़काने के लिए चीन हथियारों की अंधाधुंध सप्लाई में लगा है. शिमरे की गिरफ्तारी इसकी आधिकारिक पुष्टि है. हथियार के एवज में चीन पैसा कम भारत की जासूसी अधिक चाहता है, ताकि उसे पूर्वोत्तर में तैनात हो रही मिसाइल प्रणालियों और सैन्य ठिकानों का पता चलता रहे. कुछ वर्ष पहले यह आधिकारिक खुलासा हुआ था कि चीनी अधिकारियों ने मणिपुर के यूएनएलएफ नेताओं से भारतीय मिसाइलों की तैनाती और सैनिकों की आवाजाही के बारे में जानकारियां मांगी थीं. लेकिन भारत सरकार ने इस मसले को नहीं उठाया और न अपना विरोध जताया. शिमरे ने एनएससीएन की तरफ से चीन के सबसे बड़े हथियार निर्माता नोरिंको को एक लाख डॉलर का अग्रिम भुगतान किया था. चीन के हथियार निर्माता को शिमरे ने बैंकॉक में पैसा दिया था. नोरिंको के चाइना नॉर्थ इंडस्ट्रीज़ कॉरपोरेशन और एनएससीएन (आईएम) के बीच 10 हजार असॉल्ट राइफलें, पिस्तौलें, रॉकेट प्रक्षेपित हथगोलों और गोला-बारूद की खरीद के लिए डील हुई थी. यह सूचनाएं सूत्रों के हवाले से नहीं, बल्कि गृह मंत्रालय के आधिकारिक दस्तावेजों के हवाले से लिखी जा रही हैं. सैन्य खुफिया एजेंसी के अधिकारी कहते हैं कि नोरिंको चीनी सेना का ही एक ‘कवर-फेस’ है. नोरिंको और एनएससीएन (आईएम) का काफी पुराना रिश्ता है. यानि, एनएससीएन (आईएम) चीन का ही एक मुहरा है. कुछ वर्ष पहले बांग्लादेश में जो हथियारों का बड़ा भारी जखीरा पकड़ा गया था, वह एनएससीएन (आईएम) के लिए ही आया था. उसी समय नोरिंको का नाम उजागर हुआ था. विडंबना यह है कि चीन द्वारा इस तरह हथियारों की निर्बाध सप्लाई का मसला भारत सरकार ने द्विपक्षीय संवाद में या अंतरराष्ट्रीय फोरम पर कभी नहीं उठाया. नगालैंड और पूर्वोत्तर के आतंकवादी आराम से चीन जाकर हथियारों की डील कर लेते हैं. चीन पूर्वोत्तर के आतंकी संगठनों को अपनी धरती पर ठिकाने बनाने की इजाजत भी देता है. एनएससीएन और उल्फा समेत कई संगठन चीन के यून्नान समेत कई अन्य सीमाई प्रांतों से संगठन चलाते रहे हैं. यहां तक कि चीन की सेना द्वारा आतंकियों को ट्रेनिंग देने की खबरें भी मिलती रही हैं और पीएमओ में दबती रही हैं. चीन में ट्रेनिंग लेने वाले आतंकियों में मणिपुर के यूनाइटेड नेशनल लिबरेशन फ्रंट (यूएनएलएफ) के प्रमुख मेघेन का भी नाम है जिसे बाद में गिरफ्तार किया गया था. मेघेन मणिपुर राजघराने से सम्बद्ध है. उसके पास से चीन की हरकतों के जुड़े तमाम दस्तावेज बरामद किए गए थे. अटल-मोदी लोकप्रिय, पर किन शर्तों पर! पूर्वोत्तर राज्यों में खास तौर पर नगालैंड का मसला इतना उलझा रहा है कि आजादी के बाद से लेकर आज तक किसी भी प्रधानमंत्री को नगालैंड की धरती पर उपेक्षा और असम्मान ही प्राप्त हुआ है. पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी और मौजूदा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी इसके अपवाद हैं. वाजपेयी ने नगाओं की दुर्लभ ऐतिहासिक संस्कृति की प्रशंसा की थी और केंद्र सरकार द्वारा की गई गलतियों को सार्वजनिक रूप से स्वीकार किया था. अटल ने 1962 से लेकर 1965, 1971 और करगिल युद्ध तक नगालैंड के सैनिकों के योगदान और बलिदान को खास तौर पर रेखांकित किया था. इसीलिए नगाओं में अटल काफी लोकप्रिय प्रधानमंत्री हुए. कोहिमा में 28 अक्टूबर 2003 को हुए अटल बिहारी वाजपेयी के ऐतिहासिक भाषण को आज भी नगालैंड के लोग याद करते हैं. अगस्त 2015 में नगाओं के साथ शांति समझौता कर नरेंद्र मोदी भी खासे लोकप्रिय हो गए, लेकिन इस समझौते को लेकर अरुणाचल, मणिपुर और असम में उनकी निंदा भी हो रही है. कांग्रेस के शासनकाल में इंदिरा गांधी और राजीव गांधी ने तो कभी भी कोहिमा की यात्रा ही नहीं की. 30 मार्च 1953 को जवाहरलाल नेहरू कोहिमा गए थे, लेकिन उनकी सभा में पांच हजार नगा नागरिक नेहरू की तरफ पीठ घुमा कर बैठ गए थे. इससे नेहरू ने काफी अपमानित महसूस किया था. मोरारजी देसाई और एचडी देवेगौड़ा भी नगालैंड गए, लेकिन उनकी यात्रा कहीं भी किसी भी प्रसंग में उल्लेखनीय नहीं है. ‘संदेहास्पद’ समझौते में पेट्रोल का ‘संदेहास्पद’ रोल एनएससीएन (आईएम) और मोदी सरकार के बीच हुए ‘संदेहास्पद’ समझौते के पीछे तेल का भी खेल है. एनएससीएन (आईएम) तेल-ब्लॉक का पूरा ठेका अपने हाथ में लेना चाहता है, जबकि कई प्रमुख उद्योगपति इसे हथियाने की फिराक में हैं. 2012 के नगालैंड पेट्रोलियम एंड नैचुरल गैस रेगुलेशंस के तहत नगालैंड के तेल-फील्ड नगालैंड सरकार के अधिकार क्षेत्र में आ गए और सरकार ने तेल का ठेका निजी कंपनियों को दे दिया. एनएससीएन व अन्य संगठनों के हिंसक विरोध को देखते हुए जब ऑयल एंड नैचुरल गैस कमीशन ने नगालैंड में तेल और गैस के स्रोत तलाशने का काम छोड़ दिया, तब ओएनजीसी द्वारा छोड़े गए तेल-फील्ड पर भी नगालैंड सरकार ने कब्जा कर लिया. धन का सबसे मजबूत स्रोत होने के कारण पूर्वोत्तर के तेल-ब्लॉक नगा शांति समझौते की जड़ में हैं. विशेषज्ञ मानते हैं कि ये तेल-ब्लॉक अगर भारत सरकार के हाथ से निकल गए तो बड़ा पूंजी स्रोत एनएससीएन के हाथ लग जाएगा, जिसके दूरगामी नकारात्मक नतीजे निकल सकते हैं. सरकारी आकलन है कि अकेले नगालैंड में 60 करोड़ (छह सौ मिलियन) टन तेल और प्राकृतिक गैस का भंडार है. अगर इसका पूरा दोहन हुआ तो देश के तेल-गैस उत्पादन में 75 प्रतिशत की बढ़ोत्तरी हो जाएगी. केंद्र ने बहुत दिनों के बाद एक बार फिर नई नीति बना कर ओएनजीसी और ऑयल इंडिया लिमिटेड के अधिकार क्षेत्र में रहे तेल-ब्लॉक्स को नीलाम करने का फैसला किया, लेकिन वह फैसला भी नगा शांति समझौते के पेंच में फंस गया है. नगाओं के कई गुट सक्रिय तो एक से इतना प्यार क्यों! बहुप्रचारित नगा शांति समझौते को लेकर यह भी सवाल उठ रहे हैं कि केंद्र सरकार ने शांति वार्ता में केवल एनएससीएन के ईसाक-मुइवा गुट को ही क्यों शामिल रखा? केंद्र सरकार ने खापलांग गुट को प्रतिबंधित करके ईसाक-मुइवा गुट का हित क्यों साधा? बृहत्तर नगालैंड को लेकर पूर्वोत्तर के कई संगठन लंबे अर्से से आंदोलन चला रहे हैं, फिर समझौता वार्ता में उन संगठनों को शामिल क्यों नहीं किया गया? ईसाक-मुइवा गुट के साथ समझौता करने के एक महीने बाद ही केंद्र ने गैरकानूनी गतिविधियां निषेध कानून के तहत खापलांग गुट को बैन करने की अधिसूचना किस दबाव में जारी की. केंद्र सरकार का कहना है कि मार्च 2015 में खापलांग गुट ने ही शांति वार्ता में शरीक होने से मना कर दिया था. बहरहाल, नगालैंड में खापलांग गुट के अलावा फेडरल गवर्नमेंट ऑफ नगालैंड ‘नॉन-एकॉर्डिस्ट’ (एफजीएन-एनए), फेडरल गवर्नमेंट ऑफ नगालैंड ‘एकॉर्डिस्ट’ (एफजीएन-ए), नॉन एकॉर्डिस्ट फैक्शन ऑफ नगा नेशनल काउंसिल (एनएनसी-एनए), नगा नेशनल काउंसिल ‘एकॉर्डिस्ट’ (एनएनसी-एकॉर्डिस्ट) और झेलिआंगरोंग यूनाइटेड फ्रंट (ज़ेडयूएफ) जैसे संगठन काफी सक्रिय हैं. इनके अलावा नगा नेशनल काउंसिल ‘अडीनो’ (एनएनसी-अडीनो), नेशनल सोशलिस्ट काउंसिल ऑफ नगालैंड ‘यूनिफिकेशन’ (एनएससीएन-यू), नेशनलिस्ट सोशलिस्ट काउंसिल ऑफ नगालैंड ‘खोल-किटोवी’ (एनएससीएन-केके) और नेशनलिस्ट सोशलिस्ट काउंसिल ऑफ नगालैंड ‘रिफॉर्मेशन’ (एनएससीएन-आर) जैसे गुट भी अपनी सक्रियता बनाए हुए हैं. खापलांग गुट न केवल नगालैंड बल्कि मणिपुर, अरुणाचल प्रदेश और असम के कुछ जिलों में भी सक्रिय है. खापलांग गुट को पूर्वोत्तर का सबसे खतरनाक और ताकवर गुट कहा जाता है. नगा आदिवासियों की करीब 17 प्रमुख जातियां और 20 उप जातियां हैं. नगा संगठन इन्हीं प्रमुख जातियों का अलग-अलग प्रतिनिधित्व करते हैं. इन सभी संगठनों में इस बात की गहरी नाराजगी है कि समझौता वार्ता में उन्हें शामिल नहीं किया गया. खापलांग गुट शांति वार्ता में शरीक होने की फिर से पहल कर रहा है. खापलांग गुट के डिप्टी कमांडर इन चीफ नीकी सूमी ने सार्वजनिक बयान दिया कि खापलांग गुट के सैन्य प्रमुख ईसाक सूमी ने म्यांमार में भारत के राजदूत विक्रम मिसरी से मिल कर शांति वार्ता में शरीक किए जाने का औपचारिक आग्रह किया. राजदूत ने भारत सरकार को इस बारे में इत्तिला भी कर दी, लेकिन केंद्र ने इस पर कोई ध्यान नहीं दिया. खापलांग गुट द्वारा युद्ध विराम संधि तोड़े जाने को लेकर केंद्र की नाराजगी भी अपनी जगह जायज है. समझौता कहीं आत्मघाती न साबित हो पूर्वोत्तर और चीन मामलों के विशेषज्ञ अधिकारी इस बात से आशंकित हैं कि एनएससीएन (आईएम) से हुआ समझौता भारत के लिए कहीं आत्मघाती न साबित हो जाए. उनका मानना है कि एनएससीएन हमेशा से चीन-परस्त रहा है, उसकी प्रतिबद्धता चीन के प्रति अधिक है. कहीं ऐसा तो नहीं कि एनएससीएन भारत सरकार के साथ समझौता करके चीन की रणनीति को ही अमल में ला रहा हो. खुफिया एजेंसियों को चीन की प्लानिंग से जुड़े कुछ दस्तावेज मिले थे. ये दस्तावेज चीन से ट्रेनिंग लेकर आए आतंकियों की गिरफ्तारी में बरामद हुए थे. चीन का प्लान रहा है कि भारत पर पहले तिब्बत के दक्षिण की तरफ से 'सिलीगुड़ी गलियारे' पर धावा बोला जाए, जिससे पूरे पूर्वोत्तर को शेष भारत से काटा जा सके. फिर विद्रोही गुटों की मदद से भारतीय सेना को लंबे समय तक उलझाए रखा जाए और आराम से अरुणाचल प्रदेश के विस्तृत इलाके पर कब्जा कर लिया जाए. इसी रणनीति के तहत चीन लगातार नगा, मिजो, मणिपुरी, उल्फा समेत कई अन्य आतंकी गुटों को न केवल आधुनिक हथियार मुहैया करा रहा है बल्कि उन्हें अपने यहां सुरक्षित अड्डे और सैन्य प्रशिक्षण भी उपलब्ध करा रहा है. लेकिन मोदी सरकार के लिए यह विचारणीय प्रश्न नहीं है. एनएससीएन (आईएम) को हथियार लाने ले जाने की छूट भारत सरकार ने एनएससीएन (आईएम) को हथियार खरीदने, रखने और साथ लेकर चलने की खुली छूट दे दी है. लेकिन शर्त यह है कि उन्हें हथियार भारत सरकार से ही खरीदने होंगे. भारत सरकार ने एनएससीएन के कुछ खास कैंपों को भी हथियार रखने की छूट दे दी है. एनएससीएन (आईएम) के सदस्यों को लाल, पीला और हरा कार्ड दिया गया है. एनएससीएन (आईएम) के जिन सदस्यों या कमांडरों के पास लाल कार्ड होगा, उन्हें अपने साथ हथियार लेकर चलने की छूट रहेगी. लाल कार्ड धारी सदस्य या कमांडर अपने साथ हथियार ला और ले जा सकेंगे. भारत सरकार ने यह ‘गैर-कानूनी’ सुविधा केवल एनएससीएन (आईएम) के लिए दी है. इस कार्ड के जरिए एनएससीएन (आईएम) के कमांडर और सदस्य हथियार लेकर कहीं भी आ-जा सकेंगे. सेना के एक अधिकारी ने कहा कि नगा शांति समझौते की यह प्राथमिक शर्त है. अलग-अलग रंग के कार्ड अलग-अलग सुविधाओं के लिए दिए गए हैं. इन कार्डों पर बाकायदा भारत सरकार और एनएससीएन (आईएम) की आधिकारिक मुहर है. ये कार्ड इस बात की सनद भी हैं कि भारत सरकार और एनएससीएन (आईएम) के बीच समझौता लागू होने की प्रक्रिया में आ चुका है. पीएमओ ने एनआईए पर दबाव डालकर शिमरे को छुड़वाया नगा शांति समझौते में विचित्रताएं भरी पड़ी हैं. इसमें शांति कहीं नहीं है, केवल समझौता है. आज स्थिति यह है कि एनएससीएन (आईएम) देश की राष्ट्रीय जांच एजेंसी (एनआईए) को अपना दुश्मन मानता है. चीन के साथ हथियारों की बड़ी डील करने के आरोप में बड़ी मशक्कतों से पकड़े गए एनएससीएन (आईएम) के कथित लेफ्टिनेंट जनरल अंथोनी शिमरे को एनआईए छोड़ना नहीं चाहता था. लेकिन पीएमओ की तरफ से एनआईए पर भीषण दबाव था. एनआईए का आधिकारिक तौर पर कहना था कि एनएससीएन (आईएम) एक आतंकवादी संगठन है और उसके एक शीर्ष सरगना का छोड़ा जाना देश के लिए कतई उचित नहीं है. लेकिन मोदी सरकार के सामने एनआईए की नहीं चली. पीएमओ के दबाव में एनआईए ने शिमरे की जमानत अर्जी पर कोई आपत्ति दाखिल नहीं की और शिमरे को जमानत मिल गई. दुखद पहलू यह है कि जिस संगठन के आगे भारत सरकार नतमस्तक है, वह संगठन भारत में आतंकवादी संगठनों के बारे में खुफिया जानकारियां हासिल करने वाली नेशनल इन्वेस्टिगेशन एजेंसी को अपना दुश्मन बताता है. एनएससीएन (आईएम) का कमांडर शिमरे खुलेआम कहता है कि एनआईए नगा शांति समझौते की वार्ता प्रक्रिया को बाधित करने की साजिश कर रहा था. भारत सरकार इस पर तीखी प्रतिक्रिया जाहिर करने के बजाय चुप्पी साधे रह जाती है. शिमरे कहता है कि उसे काठमांडू से गिरफ्तार नहीं किया गया था, बल्कि उसे अगवा किया गया था. शिमरे को इस बात का भी गुस्सा है कि एनआईए ने हथियारों के कुख्यात डीलर विल्ली नारू को क्यों गिरफ्तार किया. जमानत मिलने के बाद केंद्र सरकार ने अंथोनी शिमरे को शांति वार्ता प्रक्रिया का स्थायी सदस्य बना दिया और एनआईए खंभा नोचती रह गई. आपको यह भी बता दें कि केंद्र सरकार द्वारा नियुक्त नगा समझौता वार्ता के मुख्य मध्यस्थ आरएन रवि एनएससीएन (आईएम) कमांडर अंथोनी शिमरे के गहरे दोस्त भी हैं. इसी दोस्ती का नतीजा है कि उन्होंने एनएससीएन (आईएम) के प्रमुख थुइंगलेंग मुइवा के समक्ष उनके पांच हजार हथियारबंद कैडरों को पुनर्वास योजना के तहत बीएसएफ में भर्ती कराने का आश्वासन दे डाला. सरकार की तरफ से नियुक्त मुख्य वार्ताकार आरएन रवि के इस आश्वासन पर जब विवाद गहराया, तब केंद्र सरकार को सामने आकर इससे इन्कार करना पड़ा. केंद्र ने इस खबर को गलत बता कर सिरे से पल्ला झाड़ लिया. नेशनल इन्वेस्टिगेशन एजेंसी (एनआईए) नगालैंड सरकार और वहां के आतंकी संगठनों की साठगांठ का आधिकारिक खुलासा कर चुकी है. नगालैंड के कई सरकारी अधिकारी एनआईए के हाथों गिरफ्तार भी किए जा चुके हैं. यही वजह है कि एनएससीएन (आईएम) समेत अन्य कई आतंकी संगठन एनआईए को फूटी आंख नहीं देखना चाहते. राज्य के विकास की विभिन्न योजनाओं का धन सरकारी अधिकारियों के जरिए आतंकी संगठनों के पास पहुंचता है. एनआईए ने केंद्र सरकार को इस बात के सबूत दिए हैं कि नगालैंड सरकार आतंकी संगठनों को विकास के फंड डायवर्ट कर देती है. एनआईए ने नगालैंड में कई जगह छापामारी अभियान चलाए और महत्वपूर्ण दस्तावेज बरामद किए, जिनसे यह खुलासा हुआ कि नगालैंड सरकार एनएससीएन (आईएम), खापलांग व कुछ अन्य गुटों को धन देती है. एनआईए ने आतंकी संगठनों को देने के लिए रखे कुछ सरकारी धन भी बरामद किए और कई सरकारी अधिकारियों से पूछताछ भी की. यह भी पता चला कि सरकारी मुलाजिमों के वेतन से 24 प्रतिशत अंश काट कर सीधे आतंकी संगठनों को पहुंचाया जाता है. सरकारी कर्मचारियों के वेतन से 24 प्रतिशत हिस्सा काटने का काम खुद सरकार करती है. नगालैंड से सरकारी कर्मचारियों से यह अघोषित टैक्स काटा जा रहा है. सरकारी महकमों में भ्रष्टाचार और सरकारी कर्मचारियों का वेतन काटकर उसे आतंकी संगठनों को दिए जाने के खिलाफ व्यापक स्तर पर अभियान चलाने वाले सामाजिक संगठन ‘अगैंस्ट करप्शन एंड अनऐबेटेड टैक्सेशन’ (एसीयूटी) ने नगालैंड के कई वरिष्ठ अधिकारियों के खिलाफ एफआईआर तक दर्ज कराई और इस बारे में राज्य सरकार से लेकर केंद्र सरकार तक को पत्र लिखा. लेकिन कोई कार्रवाई नहीं हुई. एसीयूटी ने केंद्र सरकार को बार-बार लिखा कि सरकारी कर्मचारियों के वेतन का जबरन काटा गया ‘टैक्स’ एनएससीएन (ईसाक-मुइवा) गुट वसूलता है, लेकिन इसका केंद्र सरकार पर कोई असर ही नहीं पड़ा. उल्टा संगठन के सदस्य एनएससीएन से जान बचाए फिर रहे हैं. एनआईए ने एनएससीएन खापलांग गुट से साठगांठ रखने वाले समाज कल्याण विभाग के संयुक्त निदेशक तुलुला पोंजेन, भूसंसाधन विभाग के संयुक्त निदेशक (डीडीओ) एलेन्बा पैंगजुंग और उसी विभाग के कैशियर के. लाशितो शेकी को गिरफ्तार किया था. ये अधिकारी भी एनएससीएन के लिए विभिन्न सरकारी विभागों से व्यापक पैमाने पर वसूली और गैर कानूनी टैक्स काटा करते थे. इन अधिकारियों के जरिए एनएससीएन समेत कई अन्य आतंकी संगठन धन कमा रहे थे. याद रहे कि नगालैंड के आतंकी संगठनों को सरकारी कर्मचारियों द्वारा दिए जा रहे धन के बारे में ‘चौथी दुनिया’ ने पहले भी ध्यान दिलाया था. कूकी और मैतेयी की कोई सुनने वाला नहीं केंद्र से शांति समझौता करने वाले एनएससीएन (आईएम) ने पहले से ही घोषणा कर रखी है कि स्वायत्त नगालैंड राज्य आधिकारिक तौर पर ईसाई राज्य नहीं बल्कि धर्म-निरपेक्ष राज्य रहेगा, लेकिन अन्य धर्म के लोगों को उनकी जमीनों का मालिकाना हक नहीं दिया जाएगा. अगर बृहत्तर नगालिम बना तो कूकी जनजाति जैसी कई जनजातियां बेमौत मारी जाएंगी. एनएससीएन (आईएम) के शीर्ष कमांडर अंथोनी सिमरे ने स्पष्ट कहा है कि कूकी जनजाति के लोग चाहें तो नगालैंड में रह सकते हैं, लेकिन उन्हें उनकी जमीन का स्वामित्व नहीं मिलेगा. मणिपुर के कूकी और मैतेयी समुदाय और नगा समुदाय के बीच जो खाई गहराई है, उसे राज्य और केंद्र ने और गहरा करने का काम किया है. यह आने वाले समय में भीषण हिंसक शक्ल लेने वाला है. कूकी जनजाति भी नगाओं की तरह ही नगालैंड, मणिपुर, असम, मेघालय जैसे जिलों में बसी हुई है. कूकी जनजाति के लोग भी लंबे अर्से से अलग राज्य की मांग कर रहे हैं. मणिपुर में कूकी जनजाति की संख्या अधिक है. मणिपुर में छोटे बड़े करीब तीन दर्जन उग्रवादी संगठन सक्रिय हैं. इनमें कूकी नेशनल आर्मी (केएनए), कूकी नेशनल फ्रंट (केएनएफ), कूकी लिबरेशन आर्मी (केएलए) और कूकी नेशनल ऑर्गेनाइजेशन (केएनओ) प्रमुख हैं. दूसरे सक्रिय संगठनों में यूनाइटेड रेवोल्यूशनरी फ्रंट (यूआरएफ), पीपुल्स रेवोल्यूशनरी पार्टी ऑफ कांगलीपाक (पीआरपीके) और कांगलेई यावोल कानलुप (केवाईके) और कंगलीपाक कम्युनिस्ट पार्टी पखांगलाक्पा (केसीपी-पी) प्रमुख हैं. कूकी जनजाति के लोगों की पुरानी मांग है कि सेनापति जिले के सदर हिल्स अनुमंडल को एक अलग जिला बना दिया जाए जबकि नगा जनजाति के लोग इस मांग का शुरू से ही विरोध कर रहे हैं. कूकी जनजाति के संगठन कई बार अलग राज्य की मांग पर व्यापक आंदोलन कर चुके हैं. कूकी और नगाओं में परस्पर हिंसा भी खूब होती रही है. एनएससीएन (आईएम) और भारत सरकार के बीच हुए नगा शांति समझौते में कूकी जनजाति या ऐसी कई अन्य उपेक्षित जनजातियों के उत्थान और उनकी सुरक्षा के बारे में कोई विचार नहीं हुआ है. हालांकि मणिपुर के मुख्यमंत्री बीरेन सिंह ने यह वादा किया है कि वे कुछ चमत्कार कर दिखाएंगे. जबकि सच यह है कि मणिपुर की मौजूदा राजनीति भी भारत सरकार और एनएससीएन (आईएम) के बीच हुए समझौते की परिधि में ही घूम रही है. मणिपुर के लोगों को आशंका है कि केंद्र सरकार ने समझौते में राज्य की क्षेत्रीय अखंडता से समझौता किया है. मुख्यमंत्री ने अपनी तरफ से कहा है कि मणिपुर के लोगों को डरने की कोई जरूरत नहीं है. मणिपुर के लोग इससे आशंकित हैं कि बृहत्तर नगालिम में कहीं मणिपुर, असम और अरुणाचल प्रदेश के नगा बहुल क्षेत्रों का विलय न कर दिया जाए. बीरेन सिंह ने कहा है कि यह भारत सरकार और मणिपुर सरकार को तय करना है कि नगा बसावट के क्षेत्र उन्हें दिए जाएं या नहीं. मुख्यमंत्री ने आश्वासन दिया है कि मैदानी क्षेत्र में रहने वाले मैतेयी समुदाय के लोगों और पहाड़ पर रहने वाले नगा और कुकी समुदाय के लोगों को करीब लाने का प्रयास किया जा रहा है. राज्य में तीन प्रमुख जनजातियां नगा, कूकी और मैतेयी हैं. मैतेयी लोग वैष्णव हिंदू धर्म को मानते हैं. लंबे समय से चले आ रहे नगा कूकी संघर्ष का खामियाजा मणिपुर के लोगों को भुगतना पड़ा है. बीरेन सिंह ने यह भी आश्वासन दिया है कि जेल में बंद यूनाइटेड नगा काउंसिल के नेता रिहा कर दिए जाएंगे. उन्होंने कहा कि मणिपुर में म्यांमार और बांग्लादेश से काफी लोग आकर बस गए हैं. लिहाजा, अब इस बेरोकटोक आगमन को रोकने के लिए एक अधिनियम लाने की आवश्यकता है. यह कानून भविष्य में होने वाले आगमन को नियंत्रित करेगा.

Thursday 4 May 2017

दलाईलामा की अरुणाचल यात्रा के छह दिन पहले बर्मा तक घुस आया था चीन

प्रभात रंजन दीन
बहुत लोगों को यह पता नहीं है कि तिब्बत के निर्वासित धर्मगुरु दलाईलामा की अरुणाचल यात्रा के ठीक एक महीने पहले चीन की सेना भारत में घुसने की तैयारियां कर रही थी. दलाईलामा की तवांग यात्रा पर पूरी दुनिया की निगाह थी, इसलिए चीन बाधा तो नहीं पहुंचा पाया, लेकिन अपनी हरकतों से बाज भी नहीं आया. भारतीय सैन्य खुफिया एजेंसी ने केंद्र को यह रिपोर्ट दी है कि चीन की सेना मार्च महीने में भारत के पड़ोसी देश बर्मा में काफी अंदर तक घुस आई थी. चीन ने बाकायदा भारतीय सेना को दिखाते हुए एकतरफा युद्धाभ्यास किया और म्यांमार सरकार की घिघ्घी बंधी रही. भारत सरकार ने भी इस पर गोपनीयता बनाए रखी. भारत सरकार ने इस मसले पर कूटनीतिक चुप्पी साध कर दलाईलामा के तवांग दौरे में कोई खलल नहीं आने दी. इससे चीन और बौखला गया और उसने अरुणाचल प्रदेश के जिलों का चीनी नामकरण करने और युद्ध की धमकियां देने की बचकानी हरकतें शुरू कर दीं. चीन यह समझने लगा है कि तिब्बत को लेकर विश्व-जनमत उसके खिलाफ खड़ा हो गया है और यह तिब्बत का भविष्य तय करेगा. चीन की बौखलाहट भारत की सैन्य शक्ति से नहीं, बल्कि उसकी लगातार बढ़ती कूटनीतिक ताकत से है. इस वजह से अब वह सीधी धमकियों पर उतर आया है. सैन्य विशेषज्ञ कहते हैं कि चीन की धमकियों को गंभीरता से लेने की जरूरत है, क्योंकि लापरवाही का खामियाजा हम 1962 के युद्ध में भुगत चुके हैं. भारतीय सेना की युद्धक-शक्ति बढ़ाने पर भारत सरकार कोई ध्यान नहीं दे रही है, यह भाजपा सरकार के राष्ट्रवाद की असलियत है. पर्वतीय क्षेत्र में कारगर तरीके से मार करने में विशेषज्ञ ‘माउंटेन स्ट्राइक कोर’ के गठन का प्रस्ताव केंद्र सरकार दबाए बैठी है. जबकि यह देश की आपातकालीन सुरक्षा अनिवार्यता की श्रेणी में आता है. सेना के आयुध, उपकरण, तोपखाने और वाहन तक पुराने हो चुके हैं. इन्हें तत्काल बदलने के लिए सेना की तरफ से केंद्र को बार-बार तकनीकी रिपोर्ट भेजी जाती है, लेकिन प्रधानमंत्री और रक्षा मंत्री इस पर ध्यान नहीं देते और वित्त मंत्री हमेशा अड़ंगा डाल देते हैं.
मिलिट्री इंटेलिजेंस की रिपोर्ट के जरिए पहले हम चीन की हालिया हरकतों का जायजा लेते चलें जो उसने बर्मा (म्यांमार) में की है. उसके बाद हम अपनी सैन्य शक्ति की असलियत खंगालेंगे. इस साल मार्च महीने में बर्मा सीमा क्षेत्र में काफी अंदर तक चीनी सैनिकों को युद्धाभ्यास करते हुए देखा गया. इसमें चीन का युद्धाभ्यास कम, उसकी युद्ध-तत्परता अधिक दिख रही थी. मिलिट्री इंटेलिजेंस की रिपोर्ट ने रक्षा मंत्रालय से पीएमओ तक सनसनी फैला दी, पर इसे सार्वजनिक नहीं किया गया. मिलिट्री इंटेलिजेंस ने 28 मार्च को बर्मा में हुए चीनी सेना के युद्धाभ्यास की तस्वीरें भी दीं, जिनमें चीनी सैनिक पूरी तैयारियों के साथ बख्तरबंद होकर युद्धाभ्यास कर रहे हैं. खूबी यह है कि दूसरे देश की धरती पर किया गया चीन का यह युद्धाभ्यास साझा नहीं था. इसमें केवल चीनी सैनिक शामिल थे और इसके लिए म्यांमार सरकार से कोई औपचारिक इजाजत नहीं ली गई. अंतरराष्ट्रीय सैन्य कानून के तहत यह चीन का अपराध है. किसी भी देश में साझा युद्धाभ्यास का कार्यक्रम दोनों देशों की सरकार की सहमति से ही किया जा सकता है. एक देश की सेना किसी दूसरे देश में अकेले युद्धाभ्यास नहीं कर सकती, इसके लिए कोई भी देश दूसरे देश को इजाजत नहीं देता. लेकिन चीन की इस दादागीरी के सामने बर्मा (म्यांमार) झुक गया. अंतरराष्ट्रीय फोरम पर बर्मा को यह मसला उठाना चाहिए था, लेकिन उसने चुप्पी साध ली. यह भारत के लिए अत्यंत चिंताजनक स्थिति (अलार्मिंग सिचुएशन) है. रक्षा मंत्रालय के एक अधिकारी ने कहा कि बर्मा के जंगल में घुस कर भारतीय सेना ने जून 2015 में आतंकियों के खिलाफ जो ऑपरेशन चलाया था, चीन ने उसी का जवाब दिया है. बर्मा के जंगलों में घुस कर आतंकवादियों के खिलाफ चलाए गए ऑपरेशन में भारतीय सेना ने एनएससीएन के खापलांग गुट के बागियों की मदद ली थी. उसी तरह बर्मा में घुसने के लिए चीन चीनी मूल के कोकांग समुदाय का साथ ले रहा है. सैन्य खुफिया शाखा के एक आला अधिकारी कहते हैं कि चीन एक तरफ बर्मा सेना के साथ सहानुभूति जताता है, लेकिन दूसरी तरफ बर्मा सेना के साथ लंबे अर्से से युद्ध लड़ रहे कोकांग आर्मी का साथ दे रहा और अपनी धरती पर पनाह भी दे रहा है. कोकांग आर्मी के सदस्यों को शरणार्थी बता कर चीन अपने यहां सुरक्षित ठिकाने मुहैया कराता है. कोकांग आर्मी का चेयरमैन फेंग क्या शिन चीन में ही रहता है. कोकांग समुदाय के लोगों को सुरक्षा देने की हिदायत देकर चीन म्यांमार सरकार को हड़काता भी रहता है. चीन सरकार बर्मा से स्वायत्ता चाह रहे कैरेन समुदाय और उनकी कैरेन नेशनल लिबरेशन आर्मी की भी पीठ सहलाता रहता है, ताकि बर्मा उसके सामने हमेशा कमजोर बना रहे. कोकांग आर्मी में चीन के लोगों की लगातार भर्ती हो रही है. भारतीय सैन्य खुफिया एजेंसी को प्राप्त रिपोर्ट के मुताबिक चीन की पीपुल्स लिबरेशन आर्मी से रिटायर हुए सैनिकों को म्यांमार नेशनल डेमोक्रैटिक एलाएंस आर्मी में आकर्षक पैकेज का ‘ऑफर’ देकर भर्ती किया जा रहा है. रक्षा विशेषज्ञ मानते हैं कि भारत को टार्गेट करने के लिए चीन बर्मा, भूटान, बांग्लादेश और नेपाल को पंगु और भयभीत बना कर रखना चाहता है. 1962 के भारत-चीन युद्ध के बाद अमेरिकी खुफिया एजेंसी सीआईए ने कहा था चीन भारत पर अगला आक्रमण बर्मा के रास्ते से ही करेगा. बर्मा में चीन की मौजूदा हरकत सीआईए की 55 साल पुरानी रिपोर्ट को आज प्रासंगिक बनाती है. 
बहरहाल, दलाईलामा के अपने जन्मस्थान तवांग का दौरा कर जाने के बाद चीन ने बौखलाहट में अरुणाचल प्रदेश के छह इलाकों का चीनी नामकरण कर दिया. दरअसल, भारत और चीन की सीमा पर 3,488 किलोमीटर लंबी वास्तविक नियंत्रण रेखा विवाद में है. चीन अरुणाचल प्रदेश को दक्षिण तिब्बत बताता है. दूसरी तरफ भारत का कहना है कि विवादित क्षेत्र अक्सई चिन तक है जिस पर 1962 के युद्ध के दौरान चीन ने कब्जा कर लिया था. चीन ने अपना दावा मजबूत करने के इरादे से 14 अप्रैल को ‘दक्षिण तिब्बत’ के छह स्थानों का नाम चीनी, तिब्बती और रोमन लिपि में मानकीकृत कर दिए. चीन ने गुलिंग गोंपा को नया नाम वोग्येनलिंग दिया है. यह इलाका तवांग के बाहरी क्षेत्र में स्थित है. छठे दलाई लामा का जन्म यहीं हुआ था. ऊपरी सुबानसिरी जिले में स्थित देपोरीजो का नाम मीला री रखा गया है. यह सुबानसिरी नदी के पास स्थित है जो अरुणाचल प्रदेश की प्रमुख नदियों में से एक है और ब्रह्मपुत्र की बड़ी सहायक नदी है. भारी सैन्य मौजूदगी वाले मेचूका का नाम बदलकर मेनकूका करके चीन ने इस क्षेत्र पर भारत के दावे को सीधी चुनौती दी है. भारतीय वायुसेना का यहां आधुनिक लैंडिंग ग्राउंड है. यह पश्चिमी सियांग जिले में है. बुमला वह जगह है, जहां दलाई लामा अरुणाचल प्रदेश की चार अप्रैल 2017 से 13 अप्रैल 2017 तक की यात्रा के दौरान पहले ठहराव में रुके थे. चीन ने इसका नाम बदलकर बुमोला कर दिया है. इस क्षेत्र पर वर्ष 1962 में चीनी सैनिकों ने हमला किया था और भारतीय सेना ने उन्हें खदेड़ भगाया था. चीन ने नमाका चू क्षेत्र का नाम बदलकर नमकापब री कर दिया है. इस क्षेत्र में पन-बिजली की अपार संभावनाएं हैं. चीन ने छठे स्थान का नाम बदलकर कोइदेनगारबो री किया है, लेकिन यह स्पष्ट नहीं है कि यह नाम किस क्षेत्र का रखा गया है. चीनी नामांतरण मसले पर भारत ने कहा कि भारत के आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप करने का चीन को कोई अधिकार नहीं है. भारत ने कटाक्ष भी किया कि बीजिंग का नाम बदल कर मुंबई कर दिया जाए तो क्या वह भारत का हो जाएगा!
रक्षा मामलों के विशेषज्ञ कहते हैं कि मार्च महीने में म्यांमार में चीनी सेना की सीधी घुसपैठ और अप्रैल महीने में चीनी राष्ट्रपति शी चिनफिंग के चीनी सेना से किए गए युद्ध-आह्वान को काफी सतर्कता से देखे जाने की जरूरत है. चीन के राष्ट्रपति ने पीएलए के नवगठित ‘84 लार्ज मिलिट्री यूनिट’ के जवानों से कहा है कि वे लड़ाई के लिए तैयार रहें और इलेक्ट्रॉनिक, सूचना और स्पेस युद्ध जैसे नए प्रकार की युद्ध-क्षमता विकसित करें. दलाईलामा के तवांग दौरे के बाद चीन भारत को सीधे तौर पर परिणाम भुगतने की धमकी दे चुका है. 
यूपीए सरकार की ही तरह राजग सरकार के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी माउंटेन स्ट्राइक कोर को सक्रिय करने के लिए जरूरी 64 हजार रुपए मंजूर नहीं किए हैं. इस वजह से न सेना मजबूत हो सकी और न चीन से लगी अंतरराष्ट्रीय सीमा पर सुरक्षा बंदोबस्त पुख्ता हो सका. मोदी ने तो माउंटेन स्ट्राइक कोर के गठन के प्रस्ताव को ही दोबारा पुनरीक्षण (रिव्यू) में डाल दिया और सुरक्षा सलाहकार अजित डोवाल को इसकी जिम्मेदारी दे दी. डोवाल ने भी 17वीं कोर को निष्क्रिय करने की सिफारिश कर दी. दिलचस्प यह रहा कि तत्कालीन रक्षा मंत्री मनोहर पर्रीकर ने पहले तो कहा था कि माउंटेन स्ट्राइक कोर पर आने वाले खर्च को आधा कर दिया जाएगा और उसमें से 35 हजार सैनिक भी कम कर दिए जाएंगे. फिर पर्रीकर अपनी बात से पलटे और कहा कि कोर के गठन का काम धीमी गति से, लेकिन चल रहा है. यह भारत सरकार की अंदरूनी अराजक स्थिति है. उधर, चीन अपनी सैन्य क्षमता लगातार बढ़ाता जा रहा है.
अब हम अपनी युद्ध-शक्ति के प्रति सरकार की रुचि का भी विश्लेषण करते चलें. चीन से युद्ध में कारगर तरीके से मुकाबला करने के लिए माउंटेन स्ट्राइक कोर को शीघ्र अस्तित्व में लाने के लिए भारत सरकार कोई दिलचस्पी नहीं दिखा रही है. सेना के आधुनिकीकरण और सेना की बढ़ोत्तरी की दिशा में भारत सरकार की बेरुखी आने वाले समय में भारतीय सेना के लिए खतरनाक साबित हो सकती है. 90 हजार विशेषज्ञ सैनिकों की क्षमता वाले माउंटेन स्ट्राइक कोर को सक्रिय करने का काम 2013 से ही चल रहा है, लेकिन सरकार की ढिलाई से यह थम गया है. जबकि चीन से खतरा तेजी से बढ़ रहा है. केवल मौजूदा सरकार ही नहीं, पूर्ववर्ती कांग्रेस सरकार ने भी माउंटेन स्ट्राइक कोर के गठन के लिए 64 हजार करोड़ रुपए की मंजूरी नहीं दी थी. हालांकि माउंटेन स्ट्राइक कोर के गठन के प्रस्ताव को वर्ष 2013 में यूपीए सरकार से ही हरी झंडी मिली थी. इस कोर को खास तौर पर हिमालय क्षेत्र में और तिब्बत के पठारी क्षेत्र में कारगर युद्ध की विशेषज्ञता के लिए तैयार किया जा रहा था. उम्मीद थी कि सरकार से बजट की मंजूरी मिल जाएगी, लेकिन वह नहीं मिली और मौजूदा राजग सरकार भी उस पर कुंडली मार कर बैठ गई. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी सेना के कमांडरों के सम्मेलन में इस मसले पर अपनी अनिच्छा जाहिर की थी और तत्कालीन सेनाध्यक्ष जनरल दलबीर सिंह सोहाग को यह कहना पड़ा था कि माउंटेन स्ट्राइक कोर अब वर्ष 2021 के पहले सक्रिय नहीं हो पाएगा. हालात यह है कि देश के चार स्ट्राइक कोर में से एक 17वीं स्ट्राइक कोर झारखंड में निष्क्रिय पड़ी हुई है. तीन अन्य कोर पाकिस्तान की विभिन्न सीमाओं पर तैनात हैं. स्ट्राइक कोर को पीस एरिया में डालना बेवकूफाना सामरिक-नीति का नतीजा माना जाता है. एक आला सेनाधिकारी ने 17वीं स्ट्राइक कोर को ‘नाकारा’ और ‘अधूरा’ बताया. उनका कहना था कि एक कोर में न्यूनतम दो डिवीजन होने चाहिए, जबकि 17वीं स्ट्राइक कोर के पास केवल एक ही डिवीजन है. उक्त अधिकारी सुरक्षा के मद्देनजर भारत के भविष्य को आशंका की नजर से देखते हैं. केंद्र सरकार की उपेक्षापूर्ण नीति के बावजूद भारतीय सेना ने पश्चिम बंगाल के पानागढ़ में 59-माउंटेन डिवीजन तो गठित कर लिया, लेकिन पठानकोट में 72वीं माउंटेन डिवीजन के गठन का काम जहां का तहां रुका रह गया. 59-माउंटेन डिवीजन में मात्र 16 हजार विशेषज्ञ सैनिक हैं. 
भारतीय सेना के लिए केंद्र सरकार ने जो अर्थशास्त्र रचा है, वह भी कम हास्यास्पद नहीं है. 2.47 लाख करोड़ के सैन्य बजट का 70 फीसदी हिस्सा सेना के वेतन और अनुरक्षण पर खर्च हो जाता है. महज 20 प्रतिशत हिस्सा सैन्य उपकरणों की खरीद के लिए बचता है. सेना को हर साल केवल उपकरणों की खरीद के लिए कम से कम 10 हजार करोड़ रुपए की जरूरत है, जबकि उसके पास बचते हैं मात्र 15 सौ करोड़ रुपए. भारतीय सेना के लिए राइफलें, वाहन, मिसाइलें, तोपें और हेलीकॉप्टर खरीदने की अनिवार्यता चार लाख करोड़ रुपए के लिए लंबित पड़ी हुई है. जबकि सेना की युद्ध क्षमता को विश्व मानक पर दुरुस्त रखने के लिए यह काम निहायत जरूरी है. अब तो पाकिस्तान के साथ-साथ चीन की ओर से भी खतरा तेजी से घिरता जा रहा है. ऐसे में यह काम पहली प्राथमिकता पर होना चाहिए.
स्ट्राइक कोर की खासियत शत्रु पर सीधे प्रहार की होती है. 1962 के युद्ध में भारतीय सेना ने रक्षात्मक प्रणाली का खामियाजा भुगत लिया था. इसलिए दुश्मन पर सीधा प्रहार करने और दुश्मन के इलाके में घुस कर तबाही मचाने की रणनीति पर काम शुरू हुआ. स्ट्राइक कोर इसी परिवर्तित रणनीति का हिस्सा है, लेकिन सरकार की अदूरदर्शिता के कारण इस पर ग्रहण लगा हुआ है. विडंबना यह है कि करगिल युद्ध में भी भारत को सैन्य आक्रामकता का लाभ मिला और अभी हाल ही में पाकिस्तान के खिलाफ सर्जिकल स्ट्राइक करके भारतीय सेना ने प्रहार की रणनीति को कारगर तरीके से आजमाया. सर्जिकल स्ट्राइक पर भाजपानीत केंद्र सरकार राजनीति तो खूब चमकाती रही, लेकिन सेना को चमकाने की प्राथमिकता पर कोई ध्यान नहीं दिया. भारतीय सेना बदली हुई स्थितियों में तोपखाने (आर्टिलरी), ब्रह्मोस मिसाइलें, हल्के टैंक, विशेष बल और हेलीकॉप्टर की ताकत लेकर स्ट्राइक कोर को अधिक से अधिक धारदार और आक्रामक बनाना चाहती है, लेकिन मोदी सरकार की धार भोथरी साबित हो रही है. 
‘चौथी दुनिया’ के प्रधान संपादक श्री संतोष भारतीय ने 2015 में ही अपने संपादकीय स्तंभ ‘जब तोप मुकाबिल हो’ में लिखा था कि हम पाकिस्तान के सामने तो दहाड़ते हैं लेकिन चीन के सामने हमारी हालत बिल्ली के सामने पड़े चूहे जैसी क्यों हो जाती है! उसकी अहम वजह यह है कि चीन के सामने भारत के बाजार को खोल कर रख देने में हम इस तरह उपकृत हुए हैं कि हमारे मुंह पर चीन का उपकार चिपक गया है. बोलचाल की भाषा में कहें तो चीन से घूस खाने वाले भारत के सत्ता अलमबरदारों की चीन के आगे चूं नहीं सरकती. कठोर सच यही है कि नेताओं-नौकरशाहों ने भारतीय बाज़ार को बर्बाद करने में चीनी हितों का साथ दिया है. भारत का संचार क्षेत्र इसका सबसे वीभत्स उदाहरण है, जिसे पूरी तरह चीन के हाथों गिरवी रख दिया गया है. चीन से उपकृत होने वाले हमारे सत्ता-सियासतदानों ने भारतीय सेना को भी पंगु बना कर रखा है, ताकि वे चीन के सामने खड़े न हो पाएं. भारतीय थलसेना के पूर्व सेनाध्यक्ष जनरल वीके सिंह ने तत्कालीन प्रधानमंत्री और रक्षा मंत्री को कम से कम आधा दर्जन चिट्ठियां लिखी होंगी कि भारतीय सेना जर्जर हालत में है, उसे सुधारें. लेकिन उस सेनाध्यक्ष के साथ प्रधानमंत्री से लेकर पूरी सत्ता तक नीच सियासत पर उतर आई थी. जनरल सिंह ने लिखा था कि युद्ध की स्थिति में भारतीय सेना के पास अधिकतम एक हफ्ते तक लड़ने के आयुध हैं, उससे अधिक नहीं, वह भी काफी पुराने, जिनमें से अधिकांश के फुस्स हो जाने की ही आशंका है. तत्कालीन केंद्र सरकार ने थलसेनाध्यक्ष की उस चिट्ठी को ही फुस्स कर दिया. ऐसे उदाहरण भरे पड़े हैं कि जब चीन ने भारत का खुलेआम अपमान किया और हमने उसे उतनी ही बेशर्मी से जाने दिया. वायुसेना के मध्य स्तर के अधिकारी से लेकर थलसेना के शीर्ष अधिकारी तक को वीज़ा देने से चीन बड़ी बदतमीजी से मना कर चुका है, लेकिन हम उसका समान प्रतिकार भी नहीं कर पाते. हमारे देश के अंदर घुस कर चीनी सैनिक चौकियां बना लेते हैं, बैनर-पोस्टर लगाते हैं, एक-एक पखवाड़े तक भारतीय सीमा में घुस कर पिकनिक मनाते हैं, भारतीय सैनिकों का मजाक उड़ाते हैं, उनके साथ धक्का-मुक्की खेलते हैं और हमें खुलेआम अपमानित करके चले जाते हैं. तब हम अपना मजबूत सीना क्यों नहीं नापते और ठोकते? इसी सवाल पर लाकर हम अपनी बात रोक देते हैं...
आपको याद दिलाते चलें कि वर्ष 1986 में अरुणाचल प्रदेश के सुमडोरोंग चू घाटी में चीनी सेना के साथ हुई तनातनी में तत्कालीन थलसेना अध्यक्ष जनरल के सुंदरजी ने ‘ऑपरेशन फाल्कन’ के तहत पूरी एक इन्फैंट्री ब्रिगेड को वायुसेना के हवाई जहाजों के जरिए उतार दिया था. उसके बाद ही स्ट्राइक कोर की योजना पर सैन्य रणनीतिकार तेजी से काम करने लगे. वर्ष 2003 में तत्कालीन सेनाध्यक्ष जनरल एनसी विज के कार्यकाल में पाकिस्तान और चीन, दोनों सीमाओं पर नई सुरक्षा रणनीति अपनाने की योजना बनी. तभी यह योजना बन गई कि 12वीं पंचवर्षीय योजना (2012-2017) में माउंटेन स्ट्राइक कोर को अस्तित्व में लाया जाएगा. इसके बाद भी भारत को चीन की तरफ से कई तीखे और अपमानजनक व्यवहार झेलने पड़े. चीनी सेना भारतीय क्षेत्र में 19 किलोमीटर अंदर तक घुस आई, पर हम कुछ नहीं कर पाए. अप्रैल-मई 2013 की घटना से खुद भारतीय सेना भी शर्मसार हुई. सेनाध्यक्ष जनरल बिक्रम सिंह ने सुरक्षा मामलों की कैबिनेट कमेटी के समक्ष खुद उपस्थित होकर सीमा की विषम स्थिति के बारे में तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह व अन्य वरिष्ठ मंत्रियों को अवगत कराया. तब जाकर जुलाई 2013 में यूपीए सरकार ने माउंटेन स्ट्राइक कोर के प्रस्ताव को औपचारिक मंजूरी दे दी. लेकिन कोर को सक्रिय करने के लिए जरूरी धन की मंजूरी नहीं दी. यूपीए के बाद केंद्र की सत्ता में आई राजग की सरकार ने भी इसकी मंजूरी नहीं दी और उल्टा कोर गठन के प्रस्ताव को ही पेंच में उलझा दिया. रक्षा मंत्रालय के कुछ अधिकारी अब माउंटेन स्ट्राइक कोर के 2021 में अस्तित्व में आने की उम्मीद जताते हैं, लेकिन इसे पक्का नहीं बताते. वे यह भी आशंका जताते हैं कि तबतक कहीं देर न हो जाए. चीन से लगने वाली संवेदनशील सीमा में सेना के सुगमता से आने-जाने के लिए ढांचागत विकास की रफ्तार ही इतनी ढीली है कि चीन बड़ी आसानी से इधर आकर भारतीय रक्षा प्रणाली को तहस-नहस कर सकता है. आप आश्चर्य करेंगे कि विस्तृत चीन सीमा तक पहुंचने वाली अत्यंत संवेदनशील 75 सड़कों में से केवल 21 सड़कें ही अब तक तैयार हो पाई हैं. 54 सड़कों के निर्माण का काम अभी शुरू भी नहीं हुआ है. वर्ष 2010 में ही चीन सीमा क्षेत्र में 28 रेलवे लाइनें बिछाने का प्रस्ताव मंजूर किया गया था. लेकिन आज तक इस प्रोजेक्ट पर काम शुरू नहीं हुआ. यह संसद में रखे गए आधिकारिक दस्तावेज से ली गई सूचना है. 
चीन के आगे हम ‘फट्टू’ क्यों?
‘फट्टू’ शब्द अब कोई असंवैधानिक शब्द नहीं है, क्योंकि बोल-चाल से लेकर कहानी-उपन्यासों और फिल्मों के संवाद लेखन में इस शब्द का खूब चलन होता है. अगर यह शब्द-संबोधन असंवैधानिक होता तो सेंसर बोर्ड उन ढेर सारी फिल्मों को पास नहीं करता, जिनमें यह शब्द बार-बार कई बार आता है. बहरहाल, भारत-चीन के सम्बन्धों के परिप्रेक्ष्य में ‘फट्टू’ शब्द का संदर्भ बनता है. यही शब्द भारत-पाकिस्तान सम्बन्धों के संदर्भ में माकूल नहीं है. 1962 से लेकर आज तक हम चीन की हरकतों के जवाब में कोई माकूल मौखिक जवाब भी नहीं दे पाए हैं, कार्मिक जवाब की तो बात छोड़ ही दें. 
अक्सई चिन तो छिन गया, अब लद्दाख की सुरक्षा जरूरी
देश की सुरक्षा के प्रति भारत सरकार की लापरवाही के कारण ही पूर्वी लद्दाख का अक्सई चिन का हिस्सा चीन ने अपने कब्जे में ले लिया. उस समय एक सेनाधिकारी ने अक्सई चिन हाईवे पर चीन के कब्जे की फोटो भी सेना मुख्यालय को पेश की थी, लेकिन पहले सेना मुख्यालय ने इसे सही नहीं माना था. बाद में वही कठोर सत्य साबित हुआ. यह भी साबित हुआ कि उस संवेदनशील क्षेत्र में भारतीय सुरक्षा बल की तरफ से कोई गश्त नहीं होती थी. उस घटना के बाद भी भारत सरकार होश में नहीं आई. तब सेना के तीन अतिरिक्त डिवीजन को सक्रिय करने का प्रस्ताव केंद्र सरकार को भेजा गया था. इनमें से चार ताकतवर ब्रिगेड के साथ एक डिवीजन को खास तौर पर लद्दाख में तैनात करने की जरूरत पर जोर दिया गया था. लेकिन केंद्र सरकार ने बेहद लचर रवैया अख्तियार करते हुए बहुत मीन-मेख के बाद पूर्वोत्तर (नेफा) के लिए एक डिवीजन और लद्दाख के लिए महज एक ब्रिगेड की मंजूरी दी थी. इसका खामियाजा भारतीय सेना ने 1962 के युद्ध में भुगत लिया. चीन की तैयारियों को भांपते हुए सेना ने 114वीं ब्रिगेड के लिए पांच अतिरिक्त बटालियन देने की मांग की थी, लेकिन सरकार ने केवल दो बटालियनों की मंजूरी दी थी. तत्कालीन सरकार में इतनी अराजकता थी कि मंजूरी के बावजूद एक बटालियन सीमा पर पहुंची ही नहीं. 
1962 के युद्ध में चीन से मार खाने के बाद लेह में तीसरी इन्फैंट्री डिवीजन के मुख्यालय की स्थापना की गई. 114वीं ब्रिगेड मुख्यालय को चुशुल भेजा गया. 70वीं ब्रिगेड का मुख्यालय पश्चिमी कश्मीर से भेजा गया और 163वीं ब्रिगेड को भी तैनात किया गया. ‘दूरदर्शी’ भारत सरकार ने 1971 युद्ध के पहले पाकिस्तान सीमा से 163वीं ब्रिगेड वापस बुला ली थी और इसका कोई वैकल्पिक इंतजाम भी नहीं किया था. 21वीं सदी के पहले दशक तक भारतीय सेना की केवल चार नियमित इन्फैंट्री बटालियनें चीन सीमा पर तैनात थीं. चीन की सीमा पर सेना की पुख्ता तैनाती से भारत सरकार हमेशा हिचकती रही है. नेहरू के समय भी, कांग्रेस के शासनकाल के दौरान भी और मोदी के काल में भी. वर्ष 2008 से लेकर 2013 के बीच अप्रत्याशित रूप से तेजी से बढ़ी चीनी घुसपैठ को रोकने की दिशा में भी भारत सरकार ने कोई सख्त कदम उठाने से परहेज किया. जबकि भारतीय सेना के रणनीतिक विशेषज्ञ हमेशा अरुणाचल प्रदेश, लद्दाख और कश्मीर में माउंटेन स्ट्राइक कोर को अस्तित्व में लाने की हिमायत करते रहे. भारत-चीन सीमा पर जिस ‘दौलत बेग ओल्डी’ क्षेत्र में चीनी सैनिकों ने घुस कर काफी दिनों तक दादागीरी दिखाई थी, वहां ब्रिगेड की तैनाती के आपातकालीन प्रस्ताव पर भी केंद्र सरकार ने कोई ध्यान नहीं दिया. सेना पूर्वी लद्दाख में भी एक टैंक ब्रिगेड तैनात करने की सिफारिश लगातार करती आ रही है. 
बिखरा हुआ ‘कमांड एंड कंट्रोल सिस्टम’  
देश की सुरक्षा से जुड़ा यह अजीबोगरीब पहलू है कि चीन की पीपुल्स लिबरेशन आर्मी के साइबर रेजीमेंट के साथ मिल कर विभिन्न देशों के संचार तंत्र पर साइबर हमला करने में कुख्यात रही हचिसन-वैम्पोआ को न केवल भारत में निवेश की इजाजत दी गई बल्कि भारत की जमीन पर ही हचिसन ग्रुप और चीनी सेना (पीएलए) के बीच कम्युनिकेशन-लिंक स्थापित करने की भी इजाजत मिल गई. हैरत है कि 90 के दशक से लेकर आज तक भारत सरकार इस मसले पर आंख मूंदे है. जाहिर है कि पूरे व्यवस्था-तंत्र को अपने ही देश के दीमक चाट रहे हैं और उसे खोखला कर रहे हैं. हचिसन के वेश में चीनी सेना को देश के घर-घर में घुसने का रास्ता भारत सरकार ने ही खोला और उसे लिबरल पॉलिसी और ग्लोबलाइज्ड इकोनॉमी बता-बता कर अपनी पीठ खुद ही ठोकती रही. आज की असलियत यही है कि हमारे चप्पे-चप्पे पर चीनी सेना की नजर है. देश का एक-एक नागरिक चीन के लिए जासूसी का उपकरण शाओमी फोन की शक्ल में अपने हाथ में लिए घूम रहा है. हचिसन और उसकी साझीदार शाओमी और रेडमी के स्मार्ट फोन्स व स्मैश-एप और वी-चैट जैसे स्मार्ट एप्लिकेशंस के जरिए चीन ने भारत के खिलाफ खूब जासूसी की और अब भी कर रहा है. भारतीय वायुसेना रक्षा मंत्रालय से लगातार यह कहती रही कि चीन का बना स्मार्ट फोन शाओमी और रेडमी जासूसी के काम आ रहा है. लेकिन वायुसेना की सूचना को भारत सरकार ने गंभीरता से लिया ही नहीं. संसद में मामला भी उठा, फिर भी केंद्र सरकार ने विवादास्पद चाइनीज़ स्मार्ट फोन्स को प्रतिबंधित करने या मामले की खुफिया पड़ताल कराने की जरूरत नहीं समझी. सर्च इंजन गूगल ने स्मैश-एप जैसे एप्लिकेशन को अपने प्ले-स्टोर से हटा दिया और यह माना कि एप्लिकेशन का इस्तेमाल पाकिस्तानी खुफिया एजेंसी भारत के खिलाफ जासूसी के लिए कर रही थी. 
भारत के सामने चुनौतियां बहुआयामी हैं. भारतीय सेना एक तरफ जम्मू कश्मीर में जूझ रही है तो दूसरी तरफ पाकिस्तान के साथ उसकी भिड़ंत लगातार हो रही है. युद्ध विराम संधि बेमानी है. पाकिस्तान को युद्ध नैतिकता से कोई लेना-देना नहीं रह गया है. लिहाजा, पाकिस्तान सीमा के उत्तरी और पश्चिमी सेक्टर दोनों हिस्सों में पुख्ता सुरक्षा बंदोबस्त बेहद अनिवार्य है. तीसरा मुहाना चीन सीमा की तरफ से खुल रहा है. चीन की हरकतों और भारत सरकार की आपराधिक-लापरवाही के कारण देश पर उस दिशा से भी खतरा लगातार बढ़ता जा रहा है. चीन की पूरी मौलिकता मक्कारी और नीति-हीनता है. वह भी भारत में कई तरफ से घुसने का रास्ता बना रहा है. भारतीय भूमि अक्सई चिन पर वह पहले से कब्जा जमाए बैठा है. लद्दाख उसकी ज़द में है. अरुणाचल प्रदेश का विस्तृत क्षेत्र चीन की तरफ खुला हुआ है. सिक्किम की तरफ से भी चीनी घुसपैठ हो सकती है. इधर, उत्तराखंड के रास्ते से भी चीन की सेना भारतीय सीमा में घुस सकती है. दक्षिण के समुद्र मार्ग से भी चीन की हरकतें देखी जा सकती हैं. साउथ चाइना सी में चीन की दादागीरी पूरी दुनिया देख रही है. साउथ चाइना सी पर चीन के कब्जे को संयुक्त राष्ट्र पूरी तरह अवैध घोषित कर चुका है, लेकिन चीन अंतरराष्ट्रीय कानून को ठेंगे पर रख कर चल रहा है. भारत का सीमा-क्षेत्र चारों ओर से खुला हुआ है. पाकिस्तान और चीन की शह पर बांग्लादेश भी एक समय भारत के खिलाफ खुराफात में लगा था, लेकिन शेख हसीना के सत्ता में आने के बाद वहां की स्थितियां बदलीं और भारत-विरोधी माहौल थमा. रक्षा संवेदनशीलता के नजरिए से देखें तो चीन से लगी सीमा पर पुख्ता सुरक्षा किलेबंदी हमारी सबसे पहली प्राथमिकता पर होनी चाहिए. चीन ने अपनी तरफ से पुख्ता व्यवस्था कर रखी है. चीन की पीपुल्स लिबरेशन आर्मी (पीएलए) को भारतीय सीमा तक पहुंचने में कोई दिक्कत नहीं होगी क्योंकि तिब्बत और सिक्किम से लगे ‘लाइन ऑफ एक्चुअल कंट्रोल’ (एलएसी) तक चीन ने सड़कें और रेल लाइन बिछा रखी हैं. जबकि भारतीय सेना को वहां तक पहुंचने में काफी मशक्कत करनी पड़ेगी, क्योंकि भारत सरकार ने इस दिशा में कोई दिलचस्पी नहीं ली है. सैन्य रणनीति के विशेषज्ञ माने जाने वाले एक वरिष्ठ सेनाधिकारी ने ‘चौथी दुनिया’ से कहा कि ढांचागत दिक्कतों के साथ-साथ भारतीय सुरक्षा प्रणाली के अलग-अलग ‘कंट्रोल एंड कमांड’ भी सेना के लिए भारी मुश्किलें खड़ी करते हैं, जबकि चीन की सेना एक ही ‘कंट्रोल एंड कमांड’ से निर्देशित होती है. भारत में अलग-अलग बल सीमा पर चौकसी का काम देखते हैं. पाकिस्तान सीमा पर सीमा सुरक्षा बल (बीएसएफ), बांग्लादेश और नेपाल सीमा पर सशस्त्र सीमा बल (एसएसबी) और चीन सीमा पर भारत-तिब्बत सीमा पुलिस (आईटीबीपी) तैनात है. इसके अलावा असम राइफल्स जैसी क्षेत्रीय सेनाएं भी हैं. इन सबकी नियंत्रण-प्रणाली अलग-अलग है. सेना भी अलग-अलग ‘कंट्रोल एंड कमांड सिस्टम’ से बंधी है. थलसेना के लिए अलग तो वायुसेना और नौसेना के लिए अलग-अलग ‘कंट्रोल एंड कमांड सिस्टम’ है. युद्ध के समय एक समेकित नियंत्रण प्रणाली की जरूरत होती है. भारत में सेना की तीनों शाखाओं को मिला कर एक ‘यूनिफायड कमांड’ बनाने की अर्से से मांग हो रही है, लेकिन भारत सरकार इस पर कान में तेल डाले बैठी है. यानि, चीनी सेना एक ही आदेश पर भारत पर हमला कर सकती है, जबकि भारतीय सेना को ऐसा करने में आदेश की कई प्रक्रियाओं से गुजरना पड़ेगा और इसमें देरी होने की पूरी गुंजाइश रहती है. 
भारत के सैन्य संचार-तंत्र पर चीन का कब्जा!
चीन ने अपनी रक्षा प्रणाली में इलेक्ट्रॉनिक्स और साइबर ऑपरेशन प्रणाली को भी इतना विकसित कर रखा है कि इसमें कोई आश्चर्य नहीं कि चीनी सेना भारत में घुस जाए और भारतीय सेना का ‘कंट्रोल एंड कमांड सिस्टम’ चीनी सेना के साइबर-रेजीमेंट द्वारा ‘हैक’ कर लिया जाए. इस वजह से भारतीय सेना का पूरा संचार-तंत्र ऐन मौके पर कहीं ‘हैंग’ न हो जाए. इस बात की पूरी आशंका है. पिछले ही साल यह बात आधिकारिक तौर पर उजागर हुई कि चीन की कुख्यात कंपनी हचिसन और मोबाइल फोन कंपनी शाओमी (Xiaomi) ने भारतीय सेना और सुरक्षा तंत्र की जासूसी कराई, जिस वजह से भारतीय सेना को स्मार्ट फोन्स और स्मार्ट ऐप्स पर रोक लगानी पड़ी. पाकिस्तानी खुफिया एजेंसी आईएसआई को पठानकोट बेस के बारे में महत्वपूर्ण सूचनाएं चीन ने ही मुहैया कराई थीं. चीन अब भी अपने कुछ खास स्मार्ट फोन्स और स्मार्ट एप्लिकेशंस के जरिए भारतीय सेना की संवेदनशील सूचनाएं हासिल कर रहा है. चाइनीज़ कंपनियां हचिसन-वैमपोआ और शाओमी स्मार्ट फोन चीन की मदद कर रही हैं. चीन की पीपुल्स लिबरेशन आर्मी (पीएलए) के साथ मिल कर दुनियाभर में साइबर-जासूसी करने में हचिसन-वैमपोआ कुख्यात रही है. पाकिस्तान के बंदरगाहों पर चीन ने हचिसन-वैमपोआ के जरिए ही दखल बनाई है. इस कंपनी से पाकिस्तान को भारी आर्थिक मदद मिल रही है. हचिसन कंपनी कुछ अर्सा पहले तक भारत में काम करती रही, लेकिन 2005-07 में अचानक उसने भारत का कारोबार बंद कर दिया. वोडाफोन ने उसे खरीद लिया. हच के इस तरह भारत से काम समेट लेने के पीछे भारी कर चोरी के अतिरिक्त कई और संदेहास्पद वजहें थीं, लेकिन भारत सरकार ने और भारत की खुफिया एजेंसियों ने उस पर कोई ध्यान नहीं दिया. वही हचिसन प्रतिष्ठान अपनी साझीदार शाओमी के साथ भारतीय सेना की जासूसी में फिर से सक्रिय है. ‘चौथी दुनिया’ इसके पहले भी यह महत्वपूर्ण सवाल उठा चुका है कि हचिसन को भारत में घुसने की इजाजत किसने दी थी? हचिसन के जरिए भारत के चप्पे-चप्पे में चीनी सेना के कम्युनिकेशन-नेटवर्क स्थापित होने का मौका आखिर किसने दिया था? क्या भारत सरकार को यह नहीं पता था कि हचिसन-वैमपोआ और चीन की सेना साथ मिल कर क्या काम करती है? हचिसन कंपनी का भारत में निवेश किन शर्तों पर हुआ था? उस निवेश को फॉरेन इन्वेस्टमेंट प्रमोशन बोर्ड ने ठीक से मॉनिटर क्यों नहीं किया और कंपनी जब भारत से काम समेट कर जाने लगी तो उसकी (असली) वजहें जानने की भारत सरकार ने कोशिश क्यों नहीं की? ये ऐसे सवाल हैं, जिसका जवाब देश के समक्ष आना ही चाहिए, जिसे केंद्र सरकार दबाए बैठी है.
भारतीय जमीन से चल रहा है चीनी सेना का कम्युनिकेशन लिंक
चीन के कारण अरुणाचल प्रदेश की शांत सुंदर वादियों में भारतीय सेना को ब्रह्मोस जैसी खतरनाक सुपरसोनिक क्रूज़ मिसाइलें तैनात करनी पड़ रही हैं. केंद्र की मंजूरी के बाद भारतीय सेना के 40वीं आर्टिलरी डिवीजन के 864 रेजीमेंट ने अरुणाचल प्रदेश के तवांग से लेकर विजयनगर क्षेत्र तक ब्रह्मोस ब्लॉक-3 क्रूज मिसाइलें तैनात करने का काम तेज कर दिया है. आठ मई 2015 को ब्रह्मोस मिसाइल के कामयाब परीक्षण के बाद वर्ष 2016 में ही केंद्र सरकार ने इसकी तैनाती की मंजूरी दे दी थी. यह मिसाइल पर्वत क्षेत्र में युद्ध के लिए सटीक मार करने वाली मिसाइल मानी जाती है. ब्रह्मोस को चीन के डॉन्गफेंग-21डी बैलिस्टिक मिसाइल की कारगर काट माना जाता है. ब्रह्मोस मिसाइल की कारगर मारक क्षमता पांच सौ किलोमीटर तक है लेकिन ‘मिसाइल टेक्नोलॉजी कंट्रोल रेजीम’ (एमटीसीआर) संधि के कारण इसकी मारक क्षमता को 290 किलोमीटर तक बांधा गया है. विडंबना यह है कि एमटीसीआर संधि से जुड़े 35 देशों में भारत शामिल है, लेकिन चीन इसमें शामिल नहीं है. 
चीन के बने मोबाइल फोन्स की करतूतों पर भारत सरकार को चुप्पी साधे देख आखिरकार भारतीय सेना की तीनों इकाइयों ने स्मार्ट फोन्स के इस्तेमाल पर ही पाबंदी लगा दी. भारतवर्ष की लचर साइबर सुरक्षा व्यवस्था का खामियाजा आखिरकार सेना को ही भुगतना पड़ा. थलसेना, वायुसेना और नौसेना में स्मार्ट फोन्स के इस्तेमाल पर रोक के साथ-साथ फेसबुक, ट्‌विटर, व्हाट्सफएप, स्मैश-एप, वी-चैट, लाइन-एप जैसे स्मार्ट फोन एप्लिकेशंस, मैसेंजर एप्लिकेशंस और सोशल नेटवर्किंग साइट्स के इस्तेमाल पर भी पूरी तरह पाबंदी लगा दी. सेना की तीनों इकाइयों के सैनिकों, जूनियर कमीशंड अफसरों और कमीशंड अफसरों से कहा गया कि वे अपना ई-मेल आईडी भी तत्काल प्रभाव से बदल लें. फिर भी केंद्र सरकार बेशर्मी की चादर ओढ़े रही. सरकार को शाओमी फोन्स के बड़े-बड़े विज्ञापन नजर नहीं आते. चीनी स्मार्ट फोन्स और एप्लिकेशंस के जरिए यूज़र का पूरा डाटा पाकिस्तानी खुफिया एजेंसी को मुहैया कराया जा रहा था. स्मैश-एप का सर्वर जर्मनी में था, जिसे कराची का रहने वाला पाकिस्तानी एजेंट साजिद राना पीबीएक्समोबीफ्लेक्स.कॉम के नाम से चला रहा था. इस एप्लिकेशन की तकनीक चीन द्वारा विकसित की गई थी. इसे इतने शातिराना तरीके से तैयार किया गया था कि उसे डाउनलोड करते ही यूज़र के फोन में दर्ज सारे डीटेल्स, एसएमएस रिकॉर्ड, फोटो, वीडियो और यहां तक कि किन-किन लोगों से उसकी बातें हो रही हैं, उसका ब्यौरा भी सर्वर को मिल जाता था. इसी तरह शाओमी और रेडमी फोन्स द्वारा भी यूज़र-डाटा चीन में स्थापित सर्वर्स को भेजे जा रहे थे. स्मार्ट फोन के स्मार्ट एप्लिकेशन के इस्तेमाल से सेना के कर्मचारी या अफसर अनजाने में ही खुद ब खुद जासूसी के ‘टूल’ के रूप में इस्तेमाल हो रहे थे. सेना के सामान्य अफसर या सैनिक तकनीकी तौर पर विशेषज्ञ नहीं होते, लिहाजा वे समझ नहीं पा रहे थे कि उनकी सूचनाएं किस तरह बाहर लीक हो रही थीं. भारतीय सेना के डायरेक्टर जनरल (मिलिट्री ऑपरेशंस) ने सेना के सारे कमानों को बाकायदा यह निर्देश दिया कि सैनिक (अफसर और जवान) या उनके परिवार के कोई भी सदस्य वी-चैट जैसे एप्लिकेशन का इस्तेमाल न करें. इस निर्देश में उन सारे एप्लिकेशंस का प्रयोग न करने की हिदायत दी गई जिसके सर्वर विदेश में हों. सेना मुख्यालय ने आधिकारिक तौर पर माना कि चीन के टेलीकॉम ऑपरेटर्स वी-चैट जैसे एप्लिकेशंस के जरिए सूचनाएं हासिल कर उसे चीन सरकार को दे रहे हैं. इंडियन कम्प्यूटर इमरजेंसी रेसपॉन्स टीम से मिली जानकारियों के आधार पर भारतीय वायुसेना की खुफिया शाखा ने भी यह रिपोर्ट केंद्र सरकार को दे रखी है कि शाओमी और रेडमी स्मार्ट फोन्स अपने सारे यूज़र डाटा चीन में बैठे आकाओं को मुहैया करा रहे थे. रेडमी फोन के चीन स्थित आईपी एड्रेस से कनेक्ट होने के भी कई प्रमाण सामने आए. तब यह बात खुली कि सर्वर (डब्लूडब्लूडब्लू.सीएनएनआईसी.सीएन) का मालिक चीन सरकार का सूचना उद्योग मंत्रालय खुद है. रिसर्च एंड अनालिसिस विंग (रॉ) के अधिकारी बताते हैं कि हचिसन-वैम्पोआ और शाओमी काफी करीब हैं और एशिया में साझा कारोबार करते हैं. हच के नाम से भारत में हचिसन का कारोबार था, लेकिन उसने भारत में व्यापार का अधिकार वोडाफोन को बेच डाला. भारत सरकार ने कभी इस बात की छानबीन नहीं कराई कि संचार का सहारा लेकर हचिसन कंपनी भारत में क्या-क्या धंधे करती रही और अचानक काम समेट कर क्यों चली गई. हचिसन कंपनी अरबों रुपए का कैपिटल गेन टैक्स हड़प कर चली गई, इस पर किसी को कोई दर्द ही नहीं हुआ. हचिसन-वैमपोआ के मालिक ली का शिंग के चीन की सत्ता और चीन की सेना (पीएलए) से गहरे सम्बन्ध हैं. ली का शिंग की कंपनी हचिसन-वैमपोआ चीनी सेना की साइबर रेजिमेंट के साथ मिल कर साइबर वारफेयर और साइबर जासूसी के क्षेत्र में काम करती है. चीन के कम्युनिज्म का सच यही है कि चीन की सेना दुनियाभर में फैली कई नामी कॉरपोरेट कंपनियों की मालिक है या हचिसन-वैमपोआ जैसे कारपोरेट घरानों के साथ मिल कर काम करती है. इस तरह चीन की सेना दुनियाभर में जासूसी भी करती है और धन भी कमाती है. हचिसन-वैमपोआ और चीन की सेना ने पाकिस्तान, बांग्लादेश, श्रीलंका समेत दुनिया के तमाम देशों के बंदरगाहों को अपने हाथ में ले रखा है. बंदरगाहों का काम हचिसन पोर्ट होल्डिंग (एचपीएच) के नाम से किया जा रहा है. बंदरगाहों के जरिए हथियारों की आमद-रफ्त बेधड़क तरीके से होती रहती है. हचिसन-वैमपोआ लिमिटेड के चेयरमैन ली का शिंग चीन की सेना के लिए बड़े कारोबार में बिचौलिए की भूमिका भी अदा करते हैं. अमेरिका की ह्यूज़ कॉरपोरेशन और चाइना-हॉन्गकॉन्ग सैटेलाइट (चाइनासैट) के बीच हुए कई बड़े सैटेलाइट करारों में ली का शिंग अहम भूमिका अदा कर चुके हैं. यहां तक कि ली ने चाइनासैट और एशियासैट में अपना धन भी लगाया. चाइनासैट और एशियासैट कंपनियां चीनी सेना पीपुल्स लिबरेशन आर्मी की कंपनियां हैं. इसी तरह चाइना ओसियन शिपिंग कंपनी (कॉसको) भी पीपुल्स लिबरेशन आर्मी की है, जिसमें हचिसन-वैमपोआ लिमिटेड का धन लगा हुआ है. लीबिया, ईरान, इराक और पाकिस्तान समेत कई देशों में आधुनिक हथियारों की तस्करी में कॉसको की लिप्तता कई बार उजागर हो चुकी है. कुख्यात आर्म्स डीलर और अत्याधुनिक हथियार बनाने वाली चीन की पॉलीटेक्नोलॉजीज़ कंपनी के मालिक वांग जुन और हचिसन-वैमपोआ के मालिक ली का शिंग के नजदीकी सम्बन्ध हैं. पॉलीटेक्नोलॉजीज़ कंपनी का संचालन भी पीएलए द्वारा ही होता है. चीन के प्रतिष्ठित द चाइना इंटरनेशनल ट्रस्ट एंड इन्वेस्टमेंट कॉरपोरेशन में वांग जुन और ली का शिंग, ये दोनों कुख्यात हस्तियां बोर्ड मेम्बर्स हैं. 
देश के संचारतंत्र को सड़ा चुका है चीन का साइबर दीमक
चीन के उपकरणों पर ज़रूरत से ज़्यादा निर्भरता भारत के लिए बड़ी आपदा को न्यौता दे रही है. रणनीतिक विशेषज्ञ इस बात को लेकर चिंतित रहे हैं कि दूरसंचार क्षेत्र में हो रहा चीनी अतिक्रमण चीनी सेना की सोची-समझी रणनीति है. देश में अधिकांश बेस ट्रांसमिशन स्टेशन (बीटीएस) में चीनी कंपनियों हुआवेई और जेडटीई के हार्डवेयर और सॉफ्टवेयर का इस्तेमाल हुआ है. सबसे बड़ा खतरा यह है कि सभी चीनी बीटीएस को जीपीएस सिग्नल के लिए चीनी उपग्रहों पर स्थानांतरित कर दिया गया है. यह खतरनाक है, क्योंकि मोबाइल बीटीएस के जीपीएस मॉड्यूल में बदलाव करने से पूरा का पूरा कम्युनिकेशन सिस्टम ढह सकता है. किसी आपात स्थिति में जीपीएस पल्स को ब्लॉक किया जा सकता है. यहां तक कि इसके रास्ते में बदलाव करके इसकी टाइमिंग बदली जा सकती है. देश का 60 प्रतिशत सीडीएमए और जीएसएम मोबाइल कम्युनिकेशन चीनी वेंडर्स ही चलाते हैं. इसलिए 60 प्रतिशत मोबाइल नेटवर्क पर सीधा खतरा है. यदि एक बार यह धराशाई हो गया तो बाकी 40 प्रतिशत पर इसका बोझ पड़ेगा. इस वजह से सारा मोबाइल कम्युनिकेशन नेटवर्क ठप्प पड़ जाएगा. सरकार के पास इससे उबरने का कोई वैकल्पिक रास्ता नहीं है. यानि, देश के जीपीएस नेटवर्क में थोड़ी सी भी खराबी आती है तो सारा कम्युनिकेशन नेटवर्क का अचानक भट्ठा बैठ जाएगा. 
1963 में ही सीआईए ने कहा था, चीन का अगला हमला वाया बर्मा
अमेरिकी खुफिया एजेंसी सीआईए ने 1962 के युद्ध के बाद ही यह कह दिया था कि भविष्य में चीन बर्मा (म्यांमार) के रास्ते भारत पर हमला करेगा. आज सीआईए की वह रिपोर्ट सच साबित हो रही है. सीआईए ने यह भी कहा था कि चीन अगले युद्ध का मुहाना बर्मा, तिब्बत और नेपाल के रास्ते खोलेगा. आप जानते हैं कि अक्टूबर 1962 में चीन ने लद्दाख और नेफा (नॉर्थ ईस्ट फ्रंटियर एजेंसी), जो आज अरुणाचल प्रदेश है, के रास्ते भारत में घुसपैठ की थी और एक महीने के बाद ही एकतरफा युद्ध विराम की घोषणा कर दी थी. जनवरी 1963 में अमेरिकी खुफिया एजेंसी सीआईए ने चीन की धूर्तता के सारे आयामों की सूक्ष्मता से जांच-पड़ताल की थी. 
मई 1963 में सेंट्रल इंटेलिजेंस एजेंसी (सीआईए) और यूएसआईबी (यूनाइटेड स्टेट इंटेलिजेंस बोर्ड) की साझा गोपनीय रिपोर्ट में बताया गया था कि चीन बर्मा की तरफ से हमला करेगा और बर्मा उससे इन्कार नहीं कर पाएगा, यहां तक कि बर्मा की रजामंदी से चीनी सैनिक बर्मा के एयरफील्ड और परिवहन व्यवस्था का भी इस्तेमाल करेंगे. सीआईए ने बर्मा के रास्ते होने वाले संभावित हमले के रूट भी बताए थे और कहा था कि चीनी सैनिक कुनमिंग-डिब्रूगढ़ रोड पर लेडो से और कुनमिंग-तेजपुर रोड पर मंडाले और इंफल के रास्ते प्रवेश करेंगे. हालांकि सीआईए रिपोर्ट में यह भी कहा गया था कि भारत पर चीन की तरफ से हवाई हमले का खतरा उतना नहीं होगा, क्योंकि हिमालयन रेंज में चीन के समुचित एयर बेस नहीं हैं. सीआईए के तत्कालीन डिप्टी डायरेक्टर रे क्लाइन ने उस समय के अमेरिकी राष्ट्रपति और भारत के मित्र रहे जॉन एफ कैनेडी के विशेष सचिव मैकजॉर्ज बंडी को यह रिपोर्ट सौंपी थी और भारत के खिलाफ चीन के षडयंत्रों का विस्तृत ब्यौरा पेश किया था. 55 साल बाद आज सीआईए की उस रिपोर्ट का औचित्य और उसकी प्रासंगिकता समझ में आ रही है.
भारतीय सेना को ब्रह्मोस के ब्रह्मास्त्र का भरोसा
भारतीय नौसेना के 10 युद्धपोतों पर ब्रह्मोस मिसाइलें तैनात कर दी गई हैं. अन्य युद्धपोतों पर इस मिसाइल सिस्टम को सुसज्जित करने का काम चल रहा है. वायुसेना के सुखोई-30 विमानों को ब्रह्मोस मिसाइलें फायर करने में सक्षम बनाने का काम अब पूरा होने वाला है. अरुणाचल प्रदेश के तेजपुर स्थित वायुसेना बेस पर ब्रह्मोस मिसाइलों से सुसज्जित सुखोई-30 विमानों के दो स्क्वाड्रन तैयार रहेंगे. उधर, चीन भी अपनी सामरिक तैयारियों में जुटा हुआ है. चीन ने इसी महीने विमानवाही युद्धपोत सीवी-17 शानडॉन्ग को चीनी नौसेना को सुपुर्द किया. 23 अप्रैल को चीनी नौसेना के 68वें सालगिरह पर उसे यह तोहफा दिया गया. 
ल्हासा से नेपाल के रास्ते भारत को घेरेगा चीन
चीन नेपाल के रास्ते से भी भारत को घेरने की तैयारी लंबे अर्से से कर रहा है. चीन से नेपाल तक हिमालय को काटकर बनाए गए 'द फ्रेंडशिप हाइ-वे' ने चीनी सेना के लिए रास्ता आसान कर दिया है. अब चीन से नेपाल तक हिमालय के अंदर सुरंग खोद कर रेलवे लाइन बिछाने का काम चल रहा है. 'द फ्रेंडशिप हाइ-वे' तिब्बत के ल्हासा से हिमालय के बीच से होता हुआ झांगमू और नेपाल के कोडारी तक पहुंचता है. सामरिक और रणनीतिक दृष्टि से बनाई गई यह सड़क हिमालय से भारत की तरफ बहने वाली सारी प्रमुख नदियों गंगा, ब्रह्मपुत्र, सिंधु, अरुण, कोशी और यहां तक कि हिमालय पर्वत श्रृंखला की पवित्र चोटी कैलाश और पवित्र मानसरोवर झील को छूती और काटती हुई चलती है. नेपाल के कोडारी तक आने वाली यह सड़क आगे भी अरनिको राजमार्ग के नाम से काठमांडू तक पहुंचती है. हिमालय को काट-काट कर बनाया गया यह हाई-वे 5,476 किलोमीटर यानी 3,403 मील का रास्ता तय करता है.  
भारत पर हमले के एक साल पहले ही, यानि, 1961 से ही चीन हिमालय के इस क्षेत्र को काटकर सड़क ले जाने की कोशिश में लगा था. भारत-चीन युद्ध के एक साल बाद 1963 में चीन ने काठमांडू-कोडारी रोड बनाना शुरू कर दिया और 1967 में इसे आवागमन के लिए खोल भी दिया. चीन ने नेपाल से लगी अपनी सीमा पर कहीं भी सुरक्षा चौकी नहीं रखी है, केवल कोडारी रोड पर चीन का एक चेक-पोस्ट बना है. अब इसी रूट पर चीन ल्हासा से खासा (नेपाल सीमा पर स्थित) तक और काठमांडू तक रेलवे लाइन का निर्माण कर रहा है. वर्ष 2020 तक यह पूरा हो जाएगा.
उत्तराखंड में भी चीन ढूंढ़ रहा दरार
अरुणाचल प्रदेश भारत-चीन विवाद में ही उलझा हुआ है. जबकि केंद्र सरकार को अरुणाचल प्रदेश के समग्र विकास पर ध्यान देना चाहिए. केवल अपना बताने से काम नहीं चलता, उसे विकास और समृद्धि के जरिए अपना बनना चाहिए. अरुणाचल में जल विद्युत और खनिज संपदा की अपार संभावनाएं हैं. चीन ने अरुणाचल राज्य की सीमा से लगे अपने इलाके में अनेक शहर बसाए हैं. वे इतने विकसित हैं कि अरुणाचल के लोगों को वे चीनी शहर लुभाते हैं. यह हकीकत है. पूर्वोत्तर को भारत विरोधी संगठन भी अपना अड्डा मानते हैं. पाकिस्तानी खुफिया एजेंसी पूर्वोत्तर को अपना सुरक्षित ठिकाना मानती है. भारत और बंगलादेश के बीच 4096 किलोमीटर लम्बी सीमा पर सुरक्षा का कोई पुख्ता इंतजाम नहीं है. इस वजह से भारतीय क्षेत्र में जनसंख्या का स्वरूप ही बदलता चला जा रहा है.
दलाईलामा के अरुणाचल प्रदेश आगमन के दौरान या उनके स्वागत की तैयारियों के दौरान सीमाक्षेत्र पर चीनी सेना की सक्रियता दिखावा थी. असल में उसकी आड़ में वह बर्मा के रास्ते भारत में घुसने की तैयारी में था. इधर, उत्तराखंड भी चीनी घुसपैठ का आसान रास्ता बन रहा है. पिछले साल 19 जुलाई को उत्तराखंड के चमोली जिले में चीनी सेना की घुसपैठ की खबर आई थी. उत्तराखंड के तत्कालीन मुख्यमंत्री हरीश रावत ने भी कहा था कि उत्तराखंड की सीमा पर चीन की सक्रियता काफी बढ़ गई है. इस बारे में केंद्र सरकार को औपचारिक जानकारी भी दे दी गई थी. सेना का कहना है कि चमोली जिले के बाराहोटी इलाके में चीनी सेना ने घुसपैठ की थी. चमोली के भी 80 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र पर चीन अपना दावा करता है. दो वर्ष पहले चीनी सेना का हेलीकॉप्टर भी भारतीय वायुसीमा का अतिक्रमण कर चुका है. वर्ष 2013-14 में भी कई बार चीनी सैनिक चमोली में घुस कर पत्थरों पर चीन लिखकर चले गए थे. उत्तराखंड की करीब 350 किलोमीटर की सीमा चीन से मिलती है, लेकिन इसका औपचारिक सीमांकन अब तक नहीं हो पाया है. 
अरुणाचल में फिर शुरू होगा साझा अभियान, फिर खीझेगा चीन
दलाईलामा की अरुणाचल यात्रा से बौखलाए चीन के लिए और खीझने का समय आ रहा है, क्योंकि अरुणाचल प्रदेश में दूसरे विश्व युद्ध के दौरान लापता हुए चार सौ अमेरिकी वायुसैनिकों के शवों की खोजबीन का साझा अभियान जल्दी ही शुरू किए जाने की सुगबुगाहट है. सेना खुफिया एजेंसी के एक अफसर ने कहा कि लापता अमेरिकी सैनिकों के शव तलाशने का काम 2010 और 2011 में भी होना था, लेकिन अरुणाचल प्रदेश को लेकर चीन के विरोध के कारण तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा ने अभियान स्थगित कर दिया था. लेकिन अब डोनाल्ड ट्रंप अमेरिका के राष्ट्रपति हैं और अपने मसलों पर अड़ियल रुख रखने वाले माने जाते हैं. अब ट्रंप के कार्यकाल में उस अभियान को फिर से शुरू करने की पहल हो रही है, इस अभियान में भारतीय सैनिक भी शामिल रहेंगे. 400 अमेरिकी वायु सैनिक दूसरे विश्व युद्ध में असम और चीन के कनमिंग के बीच लॉजिस्टिक्स सप्लाई ऑपरेशन के दौरान विभिन्न हवाई दुर्घटनाओं में मारे गए थे. दूसरे विश्वयुद्ध में चीन, भारत और बर्मा क्षेत्र सक्रिय ‘वार-जोन’ में था. युद्ध के दौरान कम से कम 500 वायुयान लापता हो गए थे, जिनका कुछ पता नहीं चल पाया. 
अमेरिका के खोजी क्लेयटन कुहेल्स ने वर्ष 2006 में इटानगर के उत्तर, वेलांग के दक्षिण, ऊपरी सियांग और कुछ अन्य जगहों पर करीब 19 विमानों के अवशेष पाए थे. युद्ध के दौरान जो अमेरिकी सैनिक मारे गए थे, उनके परिवार के दबाव पर सैनिकों के अवशेष खोजने के लिए भारत और अमेरिका ने 2008 के अंत में ही संयुक्त तलाशी अभियान शुरू किया था. फिर अभियान बंद हो गया और ओबामा प्रशासन ने उसे स्थगित कर दिया. चीनी घुड़कियों के कारण अरुणाचल प्रदेश में भारत और अमेरिकी सेना का साझा सैन्य अभ्यास भी नहीं हो पाया था. लेकिन अब इसे फिर से आयोजित करने की पहल हो रही है. अरुणाचल प्रदेश में भारत, अमेरिका, जापान, ऑस्ट्रेलिया और सिंगापुर का साझा सैन्य प्रशिक्षण का कार्यक्रम भी पाइप-लाइन में है. 
पाकिस्तान के लिए चीनी सैनिक बना रहे बंकर
बाड़मेड़ सेक्टर में पाकिस्तानी सीमा की तरफ से जो पुख्ता बंकर बन रहे हैं, वे चीनी सैनिकों द्वारा बनाए जा रहे हैं. चीन के विशेषज्ञ सैनिकों की मदद से ही लंबे सीमा क्षेत्र में पाकिस्तान बंकरों का जाल बिछा रहा है. भारतीय सेना का कहना है कि पाकिस्तान की तरफ ठोस बंकरों के अलावा हथियारों के कोत, हेलीपैड, पक्की सड़कें, पानी टंकियां, चौकियां और दूसरे कई ढांचे तैयार किए जा रहे हैं. जैसलमेर के किशनगढ़ बल्ज और शाहगढ़ बल्ज क्षेत्र के सामने सीमा पार डेटका टोबा, हरंगवाला, सखीरेवाला खू, डंगाऊ तक, बचोल, जमेश्वरी, चुरुनपढ़, कुल फकीर इलाकों में पक्के बंकर बनते देखे गए हैं. सेना ने दूरबीन कैमरे से उन बंकरों की तस्वीरें भी खींची हैं. तस्वीरों में चीनी सैनिकों को काम करते और कराते देखा जा सकता है. 
पूर्वोत्तर का विकास सबसे अहम
सुरक्षा संवेदनशीलता को देखते हुए पूर्वोत्तर का समग्र विकास अत्यंत जरूरी है. अब तक की सरकारों ने पूर्वोत्तर को शेष भारत के साथ समाहित करने के बारे में गंभीरता से कभी ध्यान ही नहीं दिया. सेना की पूर्वी कमान में तैनात पूर्वोत्तर मामलों के विशेषज्ञ माने जाने वाले एक वरिष्ठ सेनाधिकारी ने यह चिंता जताई कि भारत सरकार ने गंभीरता से इस ओर ध्यान नहीं दिया तो पूर्वोत्तर भी कश्मीर बन जाएगा. इस क्षेत्र की सीमाएं चीन, म्यांमार, भूटान, बांग्लादेश और नेपाल से मिलती हैं, इसलिए यह अधिक संवेदनशील है. हालांकि उन्होंने यह भी माना कि अब पूर्वोत्तर को लेकर सरकार की सोच और समझदारी में बदलाव आया है. लेकिन इस ओर ध्यान केंद्रित करने की आवश्यकता है. केंद्र सरकार को पूर्वोत्तर के गंभीर भू-सामरिक (जीओ-स्ट्रैटेजिक) महत्व को समझना चाहिए और उस अनुरूप सारे दृष्टिकोणों से काम होना चाहिए. पूर्वोत्तर के लोगों में अलग-थलग पड़ने की भावना गहरा रही थी, उसमें थोड़ी कमी आई है. लेकिन पूर्वोत्तर के लोगों के साथ शेष भारत में भेदभाव, पक्षपात, अन्याय, आर्थिक उपेक्षा, पहचान की समस्या, नस्ली हिंसा जैसी मुश्किलें न खड़ी हों, इसकी कारगर व्यवस्था की तरफ केंद्र सरकार उतना ध्यान नहीं दे रही है. पूर्वोत्तर के युवाओं को रोजगार के अवसर नहीं मिल रहे. दूसरी तरफ क्षेत्र में विकास और संरचनात्मक विकास का अभाव उनमें असंतोष पैदा करता है. यही असंतोष उग्रवादी समूहों और हिंसक जातीय गुटों में परिवर्तित हो जाता है. पूर्वोत्तर को लेकर हुए एक अध्ययन के मुताबिक खास तौर पर असम को अवैध आप्रवासियों ने बहुत नुकसान पहुंचाया है. राज्य के 27 जिलों में से नौ जिले अवैध आप्रवासियों के वर्चस्व में हैं. विधानसभा की 126 सीटों में से 60 सीटों पर उनका प्रभुत्व कायम हो गया है. राज्य की वन्य भूमि पर किए गए अतिक्रमण में 85 प्रतिशत बांग्लादेशियों की भागीदारी है. जनसंख्या में अस्वाभाविक वृद्धि अवैध आप्रवास के कारण हुई है. नगालैंड में भी बांग्लादेशी आप्रवासियों की तादाद बेतहाशा बढ़ी है. इससे स्थानीय लोगों में भय बढ़ा है और असुरक्षा के कारण गिरोहबंदी बढ़ी है. त्रिपुरा भी इसका उदाहरण है जहां बांग्लादेशी शरणार्थियों के कारण त्रिपुरा के मूल लोगों की स्थानीय पहचान मिट गई. इसी का परिणाम है कि सैकड़ों उग्रवादी संगठन अस्तित्व में आ गए. मिजोरम में भी बाहरी-विरोधी भावनाएं विभिन्न छात्र आंदोलनों के रूप में दिखाई देती हैं. नगा लोग नगालिम के गठन के लिए असम और मणिपुर के क्षेत्रों को शामिल करने की मांग कर रहे हैं. मणिपुर की इरोम शर्मीला 17 साल तक भूख हड़ताल करती रहीं. पूर्वोत्तर के लोगों में सशस्त्र बलों के प्रति भी आक्रोश है. पूर्वोत्तर के लोग राजनीतिक उपेक्षा से परेशान हैं. पूर्वोत्तर में संसदीय सीटें बढ़नी चाहिए और विधानसभाओं में भी जन-प्रतिनिधित्व बढ़ाने पर काम होना चाहिए.