प्रभात
रंजन दीन
कहते
हैं कि यह देश युवाओं का है। सरकारी आंकड़े और दस्तावेज भी यही बताते हैं। यह दावा
केवल आबादी को लेकर है, जज्बे को लेकर नहीं। जज्बा केवल यही
नहीं कि वोट दिया और सत्ता बदल दी। अगर इसी से जज्बे का पता चलना था तो सबसे अधिक आबादी
वाला देश तो पिछले दस साल से था! भ्रष्टाचार, महंगाई और आत्महीनता
तो पिछले दस साल से और पिछले 66 वर्षों से इस देश पर काबिज है, तो क्यों नहीं बदल दिया था सारा परिदृश्य! जज्बा होता तो देश इतने दीर्घकाल
तक कभी मुगलों का तो कभी अंग्रेजों का गुलाम ही बना होता! युवापन होता तो क्यों अकेले
भगत सिंह और चंद्रशेखर आजाद जैसे दो चार गिने-चुने युवकों को फांसी और पिस्तौल की गोली
चुननी पड़ी थी... और क्यों चुननी पड़ी थी? कोई हमारे देश के टुकड़े
कर देता और हम आजादी के नाम पर टूटा हुआ देश स्वीकार कर लेते! युवापन होता तो क्या
देश में घुस कर शत्रु हमारे सिर काट ले जाता! युवापन होता तो बाहरी देश का आदमी हमारे
देश में घुस कर रहने लगता और हमारे ही अधिकार हर लेता! युवा जोश से देश-समाज लबरेज
रहता तो क्या हर दिन इमानदारी हार जाती! ईमान सरेराह बिकता रहता! हर दिन सच्चा नागरिक,
देशभक्त, मानवाधिकारकर्मी, सूचनाधिकारकर्मी, समाजसेवी चौराहों गलियों में मारा जाता
रहता या अपमानित होता रहता! हजारों लाखों किसान आत्महत्या करते रहते! नेता हमारी आंखों
के सामने काला धन लूट कर विदेशी बैंकों में जमा करता रहता! लड़कियां राजपथ पर बलत्कृत
होती रहतीं! धर्म, जाति, समूह और समुदायों
में समाज टूटता रहता! सीमाएं काटी जाती रहतीं! जंगल काटे जाते रहते! नदियां मैली की
जाती रहतीं! देश को पंगु करने की साजिशें खुलेआम हरकतें करती रहतीं! आतंक और अपराध
हमारे देश और समाज में कुकुरमुत्ते की पसरता होता! हम युवा हैं कि नपुंसकों की जमात
हैं! क्यों खामोश रहे, क्यों खामोश हैं! किसने कह दिया कि हमारा
देश युवा है? वो बातें अब किताबों की हैं कि उत्साह बढ़ाओ तो
युवा पर्वत काट कर रास्ता बना दे। आह्वान करो तो किसी भी जिम्मेदारी से मुंह न मोड़े।
कर्मपथ पर आगे बढ़ने को हमेशा उद्धत होता रहे। अब तो बस सुविधा में कोई दुविधा न रहे।
कर्मठता-प्रतिबद्धता वगैरह तो बूढ़े शब्द हैं... किताबों में अब यह लिखा जाना चाहिए।
अब कहां ऐसा हो पाता है कि नदी का पानी कलकल करने लगे तो युवा उत्साह का चप्पू तेज
चलने लगे और नाव इस पार से उस पार उतर जाए! भारतवर्ष के युवाओं से तो वो सूखी हुई दूब
अच्छी जो पानी की बूंद भर के उत्साह से कुलबुला कर बाहर फूटने लगती है। व्यक्तित्व
की बेहद तंग और स्वार्थी गलियों में बसता है युवापन इस देश का... अगर यही युवापन है
तो ऐसे सहस्त्रों युवापन को धिक्कार। जिनमें कोई अहोभाव नहीं देश के प्रति,
समाज के प्रति, विचार के प्रति और नैतिक मूल्यों
के प्रति, तो सर्वाधिक युवाओं के देश का मतलब क्या है?
झूठ के आधार पर परस्पर सम्बन्ध खड़ा करने, व्यक्तित्व
को अंधी सुरंग में ले जाने की जानकारियों में ज्ञानवान दिखने, पर सार्थक ज्ञान में परम मूढ़ होने, आकाशीय आशाओं और
स्खलित इच्छाओं को अपनी आंखों और मनोवैज्ञानिक कुंठाओं के सहारे पा लेने की निरर्थक
कोशिशें करने, अपने अधगले-अधपके विचारों का प्रदर्शन करने,
किसी भी अच्छे विचार पर मजाक के गुबार उड़ाने, कहकहे लगाने, लोकतंत्र और देश का पता नहीं, लेकिन देश के भविष्य और वर्तमान पर विद्वत उपदेश जारी करने, शरीर संवारने में सारी ललक दिखाने लेकिन व्यक्तित्व संवारने पर कोई ध्यान नहीं
देने का नाम यदि युवा है तो भारतवर्ष का भविष्य काफी उज्जवल दिखता है। फिर तो वोट देने
से सब बदल ही जाएगा। एक बूढ़े को हटाया दूसरे उससे कम उम्र वाले बूढ़े को सत्ता पर
बिठा दिया है, जो भी करना है अब उसे ही करना है। युवाओं का काम
तो हो गया, अब बैठ कर झख मारना है, जो करना
है उसे करना है, हम फिर पांच साल बाद वोट देंगे, स्याही लगी उंगली दिखा कर फोटो खिंचवाएंगे, मताधिकार
बस यही है, लोकतंत्र बस यही है, राष्ट्रीय
कर्तव्य बस यही है...
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