Wednesday 21 May 2014

संसद-मंदिर की गरिमा बहाली का पहला दिन...

प्रभात रंजन दीन
विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र वाले भारत देश में ऐसा पहली बार हुआ जब कोई सांसद, जो देश का प्रधानमंत्री बनने जा रहा हो, उसने संसद में प्रवेश करते समय संसद की सीढिय़ों पर माथा टेका हो और संविधान की सर्वोच्च पीठ के प्रति सम्मान जताया हो। संसद को मंदिर बताने में तो कोई नेता पीछे नहीं रहा, लेकिन संसद को मंदिर समझने और समझाने के लिए पहली बार कोई नेता सामने दिखा। भारत में जबसे संसदीय चुनाव की परम्परा शुरू हुई तबसे लेकर आज तक नेताओं ने संविधान और संसद को बेच कर ही तो खाया! संविधान का जहां चाहा अपमान किया और जहां चाहा वहां संविधान का इस्तेमाल किया। संविधान नेताओं की सियासत चमकाने का केवल जरिया बन कर रह गया। संसद को नेताओं ने अखाड़ा बना दिया और बाहर जब इन्हें गालियां दी गईं तो सब मिल कर संसद में समवेत रुदालियां गाते रहे। 1952 से लेकर आज तक संसद के अंदर सांसदों ने जो गतिविधियां दिखाईं और जो व्यवहार किया उससे कभी यह नहीं लगा कि संसद भारतीय लोकतंत्र का पवित्र मंदिर है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जब संसद की दहलीज पर मत्था टेक रहे थे, तब देश को लगा कि वाकई संसद लोकतंत्र का पवित्र मंदिर है। जिस तरह के या जिस स्तर के सांसद या विधायक चुन कर आ रहे हैं या हम जिस स्तर के जनप्रतिनिधि चुन कर संसद या विधानसभाओं में भेजते रहे हैं, उनसे और क्या उम्मीद कर सकते हैं! हम सब कहते रहें कि सांसदों की बेजा हरकतों से लोकसभा शर्मसार होती रही या देश शर्म से दोहरा होता रहा। लेकिन इससे क्या फर्क पड़ता है। संसद कभी भी सांसदों की अलोकतांत्रिक हरकतों से नहीं शरमाई। जबसे संसद का गठन हुआ और जबसे विधानसभाएं बनीं, तबसे आज तक जिस तरह की हरकतें जनप्रतिनिधियों ने की हैं, उससे संसद और विधानसभाओं का क्या मान बढ़ा है? संसद या विधानसभाएं जनप्रतिनिधियों के भ्रष्टाचार, चोरी-चकारी, अनैतिक आचरण और घटिया तिकड़मों से नहीं शरमाई तो अब कब शरमाएगी? पिछले दस साल का ही उदाहरण हम सामने रखें, कितने दिन प्रधानमंत्री को शर्म आई, जब संचार, खेल, कोयला, हेलीकॉप्टर जैसे तमाम घोटालों की झड़ी लगी रही? इन घोटालों पर केंद्र सरकार चलाने वाली कांग्रेस पार्टी को कितनी बार शर्म आई? ऐसी करतूतों पर विपक्षी दलों को कितनी बार शर्म आई? सांसदों को कितनी शर्म आई? ...और अगर मंत्रियों के ऐसे निकृष्ट आचरणों पर शर्म आई तो फिर संसद कैसे चलती रही? संसद की सीढिय़ों पर मत्था टेकने के बाद मोदी ने कहा, 'संसद लोकतंत्र का मंदिर है, आप सब पूरी पवित्रता के साथ, पद के लिए नहीं, 125 करोड़ देशवासियों की आशा आकांक्षाओं को समेटकर बैठे हैं, उनकी आशा के अनुरूप जिम्मेदारी से उतरिए। 125 करोड़ देशवासियों की आशा इस पवित्र मंदिर पर टिकी हुई है। पदभार बहुत बड़ी बात होती है, ऐसा मैंने कभी माना नहीं। कार्यभार सबसे बड़ी बात होती है, इसे परिपूर्ण करने के लिए अपने आप को समर्पित करना होगा। इस चुनाव में सबसे बड़ा काम यह हुआ है कि भारत के सामान्य से सामान्य नागरिक की भी लोकतंत्र के प्रति आस्था बढ़ी है। सरकार वह हो जो गरीबों के लिए सोचे, सरकार गरीबों की सुने, गरीबों के लिए जिए, इसलिए नई सरकार देश के गरीबों को समर्पित है। देश के युवाओं, मां-बहनों को समर्पित है। यह सरकार गरीब, शोषित, वंचितों के लिए है। उनकी आशाएं पूरी हों, यही हमारा प्रयास रहेगा।' संसद में देशभर से चुन कर आए सांसदों को सम्बोधित करते हुए मोदी ने यह बात कही और संसद की गरिमा फिर से स्थापित की। अब तक के अनुभवों में देश के लोगों ने जाना और भोगा है कि राष्ट्र को संचालित करने वाली संसद का कतरा-कतरा भ्रष्टाचार में पगा है। निवर्तमान प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की करनी देख कर तो यही लगता रहा कि देश की लोकतांत्रिक व्यवस्था लचर और भ्रष्टाचार के आगे लाचार हो चुकी है। देश के लोगों के हाथ में चोरों को चुनना ही विकल्प रह गया है। सारे चोर चुनकर या पिछले दरवाजे से संसद पहुंच जाएं और ईमानदारी व लोकतंत्र के रक्षक और विधायिका के निर्माता होने का प्रमाणपत्र पा जाएं। अगर लोग पूछते रहे कि संसद भ्रष्टाचार और महंगाई जैसे संवेदनशील मामले पर सक्रिय क्यों नहीं हुई? संसद के अंदर चुनकर गए नेताओं की लम्बी कतार देश को गुमराह करने में क्यों लग जाती रही है? आश्चर्य की बात है कि लोकतंत्र के प्रहरी या लोकतंत्र के मंदिर संसद के अंदर 543 सांसद जनता के सीधे प्रतिनिधि के रूप में चुन कर जाते हैं और 245 सांसद पिछले दरवाजे से संसद में पंहुचते हैं। इन सब ईमानदार और देशभक्तों को भ्रष्टाचार-कालाधन और जनहित से जुड़े मसलों पर सांप क्यों सूंघा रहता है? संसद की गरिमा और इसकी मर्यादा की रक्षा करने के ठेकेदार इन सांसदों पर जब जनता द्वारा विचारों का हमला होता है तो वे संसद की गरिमा की दुहाई देते हैं और इकट्ठा होकर रोते हैं। जब इसी संसद में बैठ कर सांसद जनता के विरोध या आंदोलन पर आपत्तिजनक टिप्पणियां उछालते हैं तो संसद का पवित्र मंदिर होना जनता को पता चलता है। और जब सांसदों पर आक्षेप आता है तो इन्हें संसद की पवित्रता याद आने लगती है। सांसदों के ऐसे चरित्र को लेकर ही मशहूर क्रिकेट खिलाड़ी और पूर्व सांसद नवजोत सिंह सिद्धू ने कहा था कि जब संसद पवित्र मंदिर है तो आईपीएल अपवित्र कैसे! नवजोत सिंह सिद्धू की मंशा अच्छी तरह समझी जा सकती है कि क्रिकेट खेल में भ्रष्टाचार हुआ तो उसकी सर्वत्र निंदा, लेकिन संसद भ्रष्टाचार का जरिया बनी तो पवित्र मंदिर कैसे? भारत को इस विरोधाभास से बचना ही होगा। नरेंद्र मोदी का संसद का पहला दिन कुछ ऐसे ही संकेत दे रहा है...

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