प्रभात
रंजन दीन
स्मृति
इरानी की शैक्षणिक योग्यता को लेकर तमाम बहसें चल रही हैं। विरोध और बचाव में तर्क-वितर्क
हो रहे हैं, लेकिन मुद्दे की बात कोई नहीं कह रहा है। एक बार का वाकया
है प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी लखनऊ आए थे। राजभवन में उनकी प्रेस कॉन्फ्रेंस
थी। इसके कुछ ही दिन पहले गुजरात में भीषण भूकम्प आया था और 26 जनवरी के दिन ही हजारों
बच्चे गणतंत्र दिवस की खुशियां मनाते हुए मारे गए थे। अटल जी से सवाल पूछा गया कि गणतंत्र
दिवस पर असंख्य बच्चों की मौत क्या गणतांत्रिक भारत में राष्ट्रीय शोक का विषय नहीं
बनती? अटल जी ने पहले तो इसे टालने की कोशिश की, लेकिन सटीक सवाल का सटीक जवाब देने का आग्रह करने पर उन्होंने कहा,
'चूक हो गई।' उन्होंने
अपनी भूल स्वीकार की और माना कि यह बात विचार में नहीं आ पाई, यह सरकार की गलती थी। नेताओं में इतना
आत्मबोध कहां रहता है कि अपनी भूल पर उसे ग्लानि हो और वह सार्वजनिक मंच पर यह कह पाए
कि 'चूक हो गई'! स्मृति इरानी को देश का मानव संसाधन मंत्री बनाए जाने
पर नरेंद्र मोदी को उसी तरह सार्वजनिक मंच पर आकर यह कहना चाहिए था कि 'चूक हो गई'। अपनी गलती मानने के बजाय उस पर थोथे तर्क गढ़ना बौद्धिकता
का नाजायज इस्तेमाल है। बौद्धिकता के जायज सकारात्मक इस्तेमाल को लेकर ही तो देश चिंतित
है। देश की तथाकथित आजादी के बाद से योग्यता और मेधा को ताक पर रखने का ही तो धंधा
होता रहा। आरक्षण और प्रति आरक्षण कर कर के देश का कबाड़ा निकाल दिया गया। देश के नागरिक
को योग्य बनाने के बजाय उसे और पंगु बना दिया गया और बृहत्तर समुदाय को इस देश में
परजीवी कीड़ा बना कर रख दिया गया। इस समुदाय का पूरा आत्मविश्वास आरक्षण खा गया और
अब इसकी लत इतनी पड़ चुकी कि योग्यता और मेधा पर बात भी लोगों को वर्गीय और वर्णीय
लगने लगी है। इस देश का इससे अधिक और क्या नुकसान हो सकता है! शैक्षणिक योग्यता और
नेतृत्व क्षमता दोनों अलग-अलग योग्यताएं हैं। लेकिन है योग्यता ही। लिहाजा योग्यता
के आधार पर बात कैसे नहीं होगी! जहां तक स्मृति इरानी की शैक्षणिक योग्यता का सवाल
है, यह योग्यता-विवाद से अधिक किसी
बड़े राजनेता का सीधा सीधा अपमान है। एक अयोग्य व्यक्ति को मानव संसाधन जैसे बौद्धिक
मंत्रालय का मंत्री बनाया जाना, डॉ. मुरली मनोहर जोशी समेत उन
तमाम योग्य और मेधावी मंत्रियों का अपमान है, जो मानव संसाधन
मंत्री के पद पर आसीन रहे हैं। प्रमुख बुद्धिजीवी और विद्वान डॉ. मुरली मनोहर जोशी
को आज कैसा लग रहा होगा कि कभी यह मंत्रालय उनकी विद्वत क्षमता से प्रकाशित होता था,
आज उस पर औसत शैक्षणिक योग्यता और वह भी घनघोर विवाद में घिरी योग्यता
धारण करने वाला एक व्यक्ति महज इसलिए आसीन हो गया कि वह प्रधानमंत्री का खास है! यह
दुर्भाग्यशाली दिन के संकेत हैं, जो अभी से मिलने शुरू हो गए
हैं। राजकाज जिद और अहं पर नहीं चलता। राजकाज बुद्धिमानी और विनम्रता से चलता है। शैक्षणिक
योग्यता में कम और उस पर शपथपत्र में झूठी सूचनाएं दर्ज करने का मामला सामने आने पर
प्रधानमंत्री को खुद ही आगे आकर मंत्री को मानव संसाधन मंत्रालय से हटा कर किसी अन्य
विभाग में तैनात किए जाने का फैसला सुनाना चाहिए था। स्मृति इरानी को मंत्री नहीं बनाने
की बात किसी ने नहीं की है। जिस विभाग को सामान्य पढ़े लिखे होने से और नेतृत्व क्षमता
से चलाया जा सकता है, उसका मंत्री बना देते, लेकिन शिक्षा के साथ ऐसा मजाक कतई उचित नहीं। भारतीय संस्कृति में मेधा और
योग्यता को बहुत तरजीह दी गई है और इसी मेधा ने ऐसे ऐसे वेद उपनिषद रच डाले,
जिस पर आज तक दुनिया शोध में ही लगी पड़ी है। बाद में उसी भारतीय संस्कृति
के उच्छिष्ठों ने योग्यता को हाशिए पर रख कर देश के साथ षडयंत्र किया और आरक्षण जैसी
बेजा राजनीति का बीज बोकर पूरे देश को सड़ा दिया। पंचतंत्र की एक कथा है। आप सब जानते
ही हैं कि पंचतंत्र का भारतीय साहित्य की नीति कथाओं में श्रेष्ठ स्थान है। पंचतंत्र
की रचना विष्णु शर्मा जैसे परम विद्वान ने की थी। उन्होंने एक राजा के मूर्ख बेटों
को शिक्षित करने के लिए इस पुस्तक की रचना की थी। पांच अध्याय में लिखे जाने के कारण
इस पुस्तक का नाम पंचतंत्र रखा गया। इस किताब में जानवरों को पात्र बना कर कई सांकेतिक
और शिक्षाप्रद बातें लिखी गईं। इसमें मुख्य रूप से पिंगलक नामक सिंह के सियार मंत्री
के दो बेटों दमनक और करटक के बीच के संवादों और कथाओं के जरिए व्यवहारिक ज्ञान की शिक्षा
दी गई है। उसी में एक कहानी है 'चोट को समझा वीरता की निशानी'। इस कहानी में है कि किसी नगर में एक कुम्हार रहता था।
एक बार वह नशे की हालत में दौड़ते समय लड़खड़ा कर गिर पड़ा। उसके सिर पर घाव लग गया।
लापरवाही से घाव बढ़ता गया और महीनों बाद मुश्किल से ठीक हुआ। तभी वहां अकाल पड़ गया।
कुम्हार अपना नगर छोड़ परदेश चल पड़ा। भटकता-भटकता एक दिन वह जीविका की आशा से राज
दरबार में आ पहुंचा। उसके माथे पर चोट का गहरा निशान देखकर राजा ने सोचा, 'यह अवश्य कोई बहादुर व्यक्ति है। इसके
माथे पर इतना बड़ा घाव अवश्य वीरतापूर्वक किसी से युद्ध करते समय ही लगा होगा।' राजा ने बिना उसकी योग्यता जाने या परीक्षा लिए बगैर
ही उसे अपनी सेना में ऊंचा पद दे दिया। साथ ही राजा ने उसे अपना विशेष कृपापात्र भी
बना लिया। उसे राजा से इतना मान-सम्मान पाते देख दूसरे मंत्री उपेक्षित महसूस करने
लगे। एक बार राजा को युद्ध की तैयारी करनी पड़ी। जब सारे योद्धा लड़ाई के लिए तैयार
हो रहे थे तो राजा ने असमंजस और उहापोह में पड़े अपने उस चहेते 'सेनापति' से पूछा,
'भद्र तुम्हारा नाम क्या है, और तुम्हारे सिर पर
यह घाव किस युद्ध में लगा था?' राजा का 'चहेता सेनापति' राजा
के चरणों में लोटने लगा और असली बात बताई। राजा ने कुम्हार को किसी यथोचित कर्म पर
लगा दिया। उससे कुछ कहा नहीं। लेकिन राजा को अपने किए पर बड़ी लज्जा आई कि वह इतने
दिन तक शूरवीरों और योग्य मेधावी मंत्रियों की उपेक्षा करता रहा। राजधर्म को जो समय
रहते नहीं पहचानेगा, वह उसी
राजा की तरह भूल करेगा। ...जैसा नरेंद्र मोदी अभी कर रहे हैं।
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