Friday 6 June 2014

सत्ता पाने की आशा... बलात्कार पर तमाशा

प्रभात रंजन दीन
भारतीय जनता पार्टी ने लोकसभा चुनाव में जीत हासिल कर ली तो उसे अब राज्यों की भी सत्ता दिखने लगी है। खास तौर पर उत्तर प्रदेश की सत्ता के स्वाद के तो क्या कहने! राजनीतिक सिद्धान्तों का यही विद्रूप है, जो भारतीय लोकतंत्र को घुन की तरह खाता रहता है। केंद्र में भाजपा की सत्ता बनते ही और लोकसभा चुनाव में बसपा-कांग्रेस का ढक्कन बंद होते ही उत्तर प्रदेश की कानून व्यवस्था चौपट हो गई। सारे अपराध उत्तर प्रदेश में ही होने लगे। उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री अचानक नाकारा हो गए और सारी स्थितियां समाजवादी पार्टी के खिलाफ हो गईं। हद हो गई सस्ती राजनीति की। जो जीता वह सिकंदर बनने की कोशिश कर रहा है और मजाकिया स्थिति यह है कि जो लोकसभा चुनाव में कहीं का नहीं रहा, वह भी सिकंदर बनने की कोशिश में भगंदर जैसी अपनी स्थिति कर ले रहा है। भाजपा अगर कोई राजनीतिक लाभ पाना चाहती है तो उसके तर्क हैं, लेकिन मायावती और राहुल गांधी जैसे नेताओं की कूद-फांद का कोई तर्क नहीं है, फिर भी महत्वाकांक्षा और जिजिविषा कहां पीछा छोड़ती है! सब लोग जीतोड़ कोशिश कर रहे हैं कि उत्तर प्रदेश में ऐसी अराजकता का सृजन हो कि राष्ट्रपति शासन की मांग तार्किक शक्ल ले सके। फिर चुनाव करा लिए जाएं और लोकसभा चुनाव के हालिया मूड का फायदा उठा लिया जाए। मायावती ने कहा कि उत्तर प्रदेश में राष्ट्रपति शासन लागू हो। राहुल गांधी बदायूं गए तो उन्होंने भी राष्ट्रपति शासन का राग अलापा। फिर भाजपा नेताओं ने भी प्रदेश में राष्ट्रपति शासन लागू करने की बात कहनी शुरू कर दी। अब प्रदेश में बलात्कार जैसी जरायम घटना पर कारगर अंकुश पर कोई बात नहीं कर रहा, हर नेता बस यूपी में राष्ट्रपति शासन लग जाए, इसी की बात कर रहा है। पूरी सियासत राष्ट्रपति शासन के इर्द-गिर्द घूम रही है, क्योंकि भाजपा को अब प्रदेश में भी सत्ता की जलेबी लटकी हुई दिख रही है। भाजपा सांसद और पूर्व गृह सचिव आरके सिंह ने बदायूं पर अपनी विद्वत प्रतिक्रिया जाहिर करते हुए कहा कि राष्ट्रपति शासन के लिए यह बिल्कुल सही केस है। सिंह ने तो यूपी को पूरी तरह से विफल राज्य ही बता दिया, जहां कानून व्यवस्था है ही नहीं। पूर्ण बहुमत की सरकार को अस्थिर करने का असंवैधानिक बालहठ भारतीय राजनीति के विदूषकीय होने का खतरा दिखाता है। इतनी भी अतिवादी लालसा की राजनीति उचित नहीं, भाजपा नेताओं को इसका ख्याल तो रखना ही चाहिए। बदायूं घटना के बाद केंद्र की नई-नवेली भाजपाई सरकार ने फौरन घूंघट खोल कर फेंटा बांध लिया और सक्रिय हो गई। उसने मौके का फायदा उठाने की पूरी कोशिश की। नए केंद्रीय गृह मंत्री राजनाथ सिंह ने भी यूपी सरकार को लताड़ लगाने में देरी नहीं की और आनन-फानन यूपी के राज्यपाल से मुलाकात भी कर ली। यहां तक कि उन्होंने उत्तर प्रदेश के डीजीपी को फोन कर जरूरी निर्देश भी देने शुरू कर दिए। इतनी भी मर्यादा नहीं रखी कि प्रदेश में किसी अन्य पार्टी की सरकार है। इससे शह पाकर केंद्रीय गृह राज्यमंत्री किरण रिजिजु भी बातबहादुरी के रिंग में कूद पड़े। राजनीति में इतना उत्साह भी ठीक नहीं होता। उत्साह के इस अतिरेक में भाजपाइयों ने यह भी नहीं देखा कि बदायूं बलात्कार की पीड़िता बहनें दलित नहीं बल्कि शाक्य जाति की थीं। मायावती ने शुरुआत में यह कहा भी कि पीड़ित लड़कियां दलित नहीं, शाक्य जाति की हैं। लेकिन बाद में राजनीति दलित-धारा में जाती देख उन्होंने भी मुंह बंद कर लिया और आंखें मूंद लीं और केंद्र सरकार दलित-पतंग उड़ाने में लगी रही। भाजपाइयों और कांग्रेसियों को इतना भी होश नहीं रहा कि दलित-मुद्दा उठाने के पहले बदायूं के भुक्तभोगियों की जाति पता कर लेते। बलात्कार या किसी भी अपराध का जाति से कोई लेना-देना नहीं होता। फिर भाजपाई या अन्य नेता दलित-दलित क्यों चिल्लाते रहे? भाजपा नेताओं के आचरण से यह साफ हो गया कि सामाजिक समस्या के प्रति नेताओं का आग्रह है या सियासत के प्रति।
जहां तक मुख्यमंत्री द्वारा सख्त कार्रवाई और सीबीआई से जांच कराने का फैसला लेने का प्रसंग है, उसमें उत्तर प्रदेश सरकार ने कोई कोताही नहीं की। मुआवजे और गिरफ्तारी की औपचारिकताएं साथ-साथ चलती रहीं, लेकिन सियासतदानों ने इन दोनों कार्रवाइयों पर जमकर राजनीति की। अतिरिक्तनिंदा का प्रस्ताव जारी करने की सियासत कभी-कभी उल्टा मारती है। यह हथियार 'बूम रैंग' भी करता है। भारतीय लोकतंत्र के इतिहास में ऐसा कई बार हो चुका है। आपातकाल की नाराजगी के बाद जब देश ने जनता पार्टी की केंद्र में सरकार बनाई, तब सारे राजनीतिक दल इंदिरा गांधी के खिलाफ हाथ धोकर पड़ गए थे। हर तरफ इंदिरा गांधी की निंदा। ...और इस पर इंदिरा गांधी का मौन। इंदिरा के किसी करीबी पत्रकार ने उनसे उनके मौन के बारे में पूछा और यह जानना चाहा कि वे ऐसी खबरों का खंडन क्यों नहीं करतीं, या अपनी प्रतिक्रिया क्यों नहीं जतातीं। इस पर इंदिरा गांधी पहले मुस्कुराईं और कहा, 'ये अतिवादी निंदा के प्रस्ताव ही मुझे दोबारा पूरी ताकत से सत्ता की तरफ ले जा रहे हैं, तो मैं क्यों बोलूं!' और ऐसा ही हुआ, अगले ही लोकसभा चुनाव में उसी देश ने इंदिरा गांधी की गम्भीरता और धैर्यता को धारण कर लिया और उन्हें पूरी ताकत से केंद्र की सत्ता पर आसीन करा दिया। जनता के पास अधिकार नहीं होता। कुछ करने की औकात नहीं होती। वह पांच साल में एक बार वोट देती है, लेकिन देती है तो मजे भी चखा देती है। इसे दोनों कोण से देखे जाने की जरूरत है। इसीलिए, जीत के अतिरिक्त उत्साह में राजनीति की मर्यादा नहीं लांघनी चाहिए। जो सामाजिक-मनोवैज्ञानिक मसले हैं, उनके निवारण के लिए गम्भीरता से विचार करने और उपाय करने पर बात होनी चाहिए। अपराध स्थितिजन्य घटना होता है। अपराध होने के बाद ही कार्रवाई का नम्बर आता है। अपराध न हो, यह सामाजिक-मनोविज्ञान के दायरे में आता है और उस पर उस तरह से पहल करने की जरूरत होती है। दिल्ली बलात्कार कांड के बाद बलात्कार के नियम-कानून अत्यंत सख्त बना दिए गए, फिर क्यों और तेजी से हो रही हैं बलात्कार की घटनाएं? यह सवाल सामने इसलिए आता है कि देश के नेता मुद्दे को कहीं और मोड़ देने में विशेषज्ञ होते हैं। असली नुक्ते पर चोट करना नेता चाहते ही नहीं। नेता समस्या का समाधान नहीं चाहते, केवल घमासान चाहते हैं। नेताओं की तो दुकान चलनी चाहिए, कभी साम्प्रदायिकता पर, कभी धर्म निरपेक्षता पर, कभी जातीयता पर, कभी चमत्कार पर तो कभी बलात्कार पर। देश में लोकतंत्र को लेकर लोगों में जो नई उम्मीद जगी है, भाजपाइयों को उसे बना कर रखना चाहिए, अगर उसे लम्बी दूरी और लम्बे समय तक की राजनीति करनी हो तो।
उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री का भी प्राथमिक कर्तव्य है कि वे प्रशासन पर अपनी पकड़ बनाएं। इतनी सख्ती बरतें कि अपराध हो तो केवल अपराधी ही नहीं बल्कि अधिकारी भी हतप्रभ रह जाए, कांप जाए। यूपी शासन में जो अराजकता फैली है, वही विरोधियों की सियासत को ऑक्सीजन दे रही है, अखिलेश यादव को यह भी समझ में आना चाहिए... 

2 comments:

  1. sir aapna apna lekh main us sacchai sa avgat karaya hai jisa samaj samajh nahi pa raha hai.

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  2. Janta ke Badlaw ki viwashta se haasil satta mil jane ke karan aisi rajneeti par agrasar hona swabhawik hai..........

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