Tuesday 13 May 2014

काशी विवाद के समाधान के लिए खाली कराया जा रहा है मंदिर-मस्जिद का इलाका

अभी से विधानसभा चुनाव की तैयारी / 'रिलीजियस इंजीनियरिंग' का सपाई फार्मूला तैयार
प्रभात रंजन दीन
समाजवादी पार्टी 2017 का विधानसभा चुनाव धार्मिक कार्ड पर नहीं बल्कि धार्मिक अभियांत्रिकी पर लड़ेगी। सपा की 'रिलीजियस इंजीनियरिंग' न केवल बसपा की 'सोशल इंजीनियरिंग' पर भारी रहेगी, बल्कि यह भारतीय जनता पार्टी के हाथ से एक महत्वपूर्ण मसला भी हथिया लेगी। समाजवादी पार्टी की सरकार ने काशी विश्वनाथ मंदिर और ज्ञानवापी मस्जिद विवाद को हमेशा-हमेशा के लिए खत्म करने की योजना पर तेजी से काम शुरू कर दिया है। इस बार लोकसभा चुनाव में इसका राजनीतिक फायदा भले ही नहीं उठाया जा सका, लेकिन 2017 के विधानसभा चुनाव में 'धार्मिक-अभियांत्रिकी' अपना असर जरूर दिखाएगी। भारतीय जनता पार्टी अयोध्या-काशी-मथुरा का विवाद राजनीतिक पटल पर उछालती और उसका फायदा उठाती रही है। अगर सपाई-फार्मूले से काशी का विवाद सुलझ गया तो भाजपा के हाथ से एक मसला गया और इसका श्रेय समाजवादी पार्टी को मिल जाएगा। सरकार ने जो फार्मूला बनाया है, उससे स्पष्ट संकेत मिल रहा है कि हिंदू या मुस्लिम समुदाय के लोगों को कोई आपत्ति नहीं होगी।
काशी विवाद के स्थायी समाधान के लिए प्रदेश सरकार काशी विश्वनाथ मंदिर और ज्ञानवापी मस्जिद के इर्द-गिर्द और उसकी व्यापक परिधि के सारे मकान और जमीनों का अधिग्रहण करने जा रही है। जिनके घर या जिनकी जमीनें ली जाएंगी उन्हें बाजार दर पर उसकी कीमत दी जाएगी। मंशा यह है कि मंदिर और मस्जिद के लिए आने-जाने वाले श्रद्धालुओं को जितनी मुश्किलों और आपसी तनाव का सामना करना पड़ता है, उसका हमेशा के लिए समाधान निकल आए। मंदिर और मस्जिद के पास के व्यापक इलाके को खाली कर मंदिर और मस्जिद के रास्ते अलग-अलग कर दिए जाएंगे। मंदिर और मस्जिद के लिए अलग-अलग विशाल द्वार के निर्माण के साथ ही मंदिर-मस्जिद को भव्य बनाने का काम निर्बाध रूप से हो सकेगा। अत्यंत संकरे रास्ते और मंदिर मस्जिद के रख-रखाव को लेकर होने वाले काम पर आपत्तियां उठाई जाती रही हैं। इस विवाद को हमेशा के लिए खत्म करने के लिए प्रदेश सरकार के धर्मार्थ कार्य विभाग ने एक विस्तृत प्रस्ताव औपचारिक तौर पर मुख्यमंत्री को सुपुर्द किया था जिसे सरकार ने हरी झंडी दे दी और आगे की कार्रवाई भी सक्रियता से शुरू हो गई।
प्रदेश के धर्मार्थ कार्य विभाग एवं सूचना विभाग के सचिव नवनीत सहगल ने काशी विवाद हल करने की इस महत्वपूर्ण योजना की आधिकारिक पुष्टि की। श्री सहगल ने कहा कि योजना का विस्तृत प्रस्ताव सरकार के समक्ष प्रस्तुत किया गया था, जिस पर मंजूरी के बाद इस पर काम तेजी से हो रहा है। काशी विश्वनाथ मंदिर और ज्ञानवापी मस्जिद के चारों तरफ फैले नागरिक-बसाव (सेट्लमेंट) को खाली कराने के लिए लोगों को उनके घरों की कीमतें दी जा रही हैं। इस योजना पर लोगों का समर्थन तो मिल रहा है, लेकिन पैसे की लालच में मालिकाना हक के कुछ विवाद भी खड़े किए जा रहे हैं, लेकिन सरकार उसका भी हल निकाल रही है। श्री सहगल ने उम्मीद जताई कि मंदिर और मस्जिद के रास्तों को अलग-अलग करने और विस्तार देने का काम भी शीघ्र ही शुरू हो सकेगा। उल्लेखनीय है कि श्री काशी विश्वनाथ मंदिर अधिनियम 1983 के प्रावधानों के तहत मंदिर एवं न्यास परिषद के प्रशासन के लिए प्रदेश सरकार की ओर से मुख्य कार्यपालक अधिकारी की नियुक्ति की जाती है। इसके अलावा अपर मुख्य कार्यपालक अधिकारी और सहायक लेखाधिकारी भी सरकार द्वारा ही नियुक्त किया जाता है।
मामला सुलट गया तो इतिहास रह जाएगा काशी विश्वनाथ मंदिर विवाद
कहा जाता है कि काशी में शिव ज्योतिर्लिंग के रूप में प्रगट हुए थे। सम्राट विक्रमादित्य ने मंदिर का जीर्णोद्धार कराया था। मंदिर को लूटने आए महमूद गजनवी के भांजे सालार मसूद को सम्राट सुहेल देव पासी ने मौत के घाट उतारा था। इस मंदिर को 1194 में मुहम्मद गोरी ने तोड़ा। मंदिर फिर से बना। 1447 में जौनपुर के सुल्तान महमूद शाह ने फिर इसे तोड़ा। 1585 में राजा टोडरमल की सहायता से फिर मंदिर बना। 18 अप्रैल 1669 को औरंगजेब ने काशी-विश्वनाथ मन्दिर फिर से ध्वस्त करा दिया और मस्जिद का निर्माण करा दिया। औरंगजेब ने ही मथुरा में मंदिर तोड़वा कर वहां ईदगाह बनवाई थी। 1752 से लेकर 1780 के बीच मराठा सरदार दत्ता जी सिंधिया व मल्हार राव होल्कर ने काशी विश्वनाथ मन्दिर की मुक्ति के प्रयास किए। 7 अगस्त, 1770 में महाद जी सिन्धिया ने दिल्ली के बादशाह शाह आलम से मन्दिर तोडऩे की क्षतिपूर्ति वसूल करने का आदेश जारी करा लिया। लेकिन तब तक काशी पर ईस्ट इंडिया कम्पनी का प्रभाव हो गया था, इसलिए मंदिर का नवीनीकरण रुक गया। इन्दौर की महारानी अहिल्याबाई होल्कर ने 1780 में विश्वनाथ मंदिर बनवाया, जिस पर पंजाब के महाराजा रणजीत सिंह ने 9 क्विंटल सोने का छत्र बनवाया। ग्वालियर की महारानी बैजाबाई ने ज्ञानवापी का मंडप बनवाया और महाराजा नेपाल ने वहां नन्दी की विशाल प्रतिमा स्थापित करवाई।
11 अगस्त, 1936 को दीन मुहम्मद, मुहम्मद हुसैन और मुहम्मद जकारिया ने स्टेट इन काउन्सिल में प्रतिवाद संख्या-62 दाखिल किया और दावा किया कि सम्पूर्ण परिसर वक्फ की सम्पत्ति है। लम्बी गवाहियों एवं ऐतिहासिक प्रमाणों व शास्त्रों के आधार पर यह दावा गलत पाया गया और 24 अगस्त 1937 को वाद खारिज कर दिया गया। इसके खिलाफ इलाहाबाद उच्च न्यायालय में अपील संख्या 466 दायर की गई लेकिन 1942 में उच्च न्यायालय ने इस अपील को भी खारिज कर दिया। कानूनी गुत्थियां साफ होने के बावजूद मंदिर-मस्जिद का मसला आज तक फंसा कर रखा गया है।

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