Sunday 25 May 2014

पांच साल बीतने में अधिक वक्त नहीं लगता...

प्रभात रंजन दीन
लोकसभा चुनाव खत्म हो चुका और परिणाम आने के बाद नई सरकार का गठन भी होने जा रहा है। अब देश का ध्यान उस तरफ है कि नई सरकार देश के लिए क्या करने जा रही है। चुनाव में पूंजीवादी राजनीति के सारे हथकंडे दिखाई पड़े, लिहाजा देश की जनता इस आशंका में है कि गहरी मंदी, वीभत्स महंगाई और गहन वित्तीय संकट का शिकार देश इस चंगुल से बाहर निकल पाएगा कि नहीं! इससे निकलने का कोई उपाय आम नागरिक को तो नजर नहीं आ रहा है। दस साल से सत्ता में मौजूद कांग्रेस की उदारीकरण-निजीकरण की नीतियों का खामियाजा जनता को भुगतना पड़ा और लगातार भुगतना पड़ रहा है। बाकी कसर रिकार्ड तोड़ घपलों-घोटालों ने पूरा किया। कांग्रेस को उम्मीद थी कि चुनाव नजदीक आने पर लोक-लुभावन योजनाओं का पिटारा खोलकर वह जनता को फिर से बरगलाने में कामयाब हो जाएगी। लेकिन घनघोर त्रासदी ने जनता में ऊब पैदा कर दी और उसने अचानक अविस्मरणीय फैसला कर लिया। इसमें न केवल कांग्रेस बल्कि सपा, बसपा, जदयू जैसे तमाम दक्षिणपंथी दलों के साथ-साथ मजदूरों की रहनुमा बनने वाली वामपंथी पार्टियां भाकपा-माकपा के नेता भी धूल ही चाटते नजर आए। पिछले चुनाव के समय यही लोग जयललिता की 'मौसेरी बहन' मायावती को प्रधानमंत्री बनाने के लिए डोली के कहार बने हुए थे। और इस चुनाव में भी तीसरा मोर्चा बनाने का प्रहसन खेल-खेल कर कभी मुलायम तो कभी नीतीश तो कभी नवीन पटनायक तो कभी ममता बनर्जी तक को प्रधानमंत्री बनवाने का ठेका ले रहे थे। आपने यह भी देखा कि बिहार में नीतीश के इस्तीफे के जरिए लालू-नीतीश-सोनिया की खिचड़ी जनता के सामने कैसे आ गई, जो पिछले लम्बे अरसे से पक रही थी। राजनीतिक परिदृश्य में अचानक उभरे अरविंद केजरीवाल की आम आदमी पार्टी ने भी लोगों की उम्मीदों पर पूरा पानी ही फेर दिया। दरअसल 'आपा' को दिल्ली विधानसभा चुनावों में मिली अप्रत्याशित कामयाबी ने केजरीवाल टीम की अंधी महत्वाकांक्षा को मुद्रास्फीति की तरह हवा दी और ऐन मौके पर उस गर्म हवा ने 'आपा' का टायर बर्स्ट कर दिया। 'आपा' को मिला समर्थन दरअसल महंगाई, बेरोजगारी और भ्रष्टाचार से परेशान आम मध्यवर्ग के आदर्शवादी स्वप्न और साफ-सुथरे पूंजीवाद तथा तेज विकास की कामना करने वाले कुलीन मध्यमवर्ग के प्रतिक्रियावादी स्वप्न का मिलाजुला उत्पाद था। दिल्ली में 'आपा' ने तरह-तरह के वादे करके निम्न मध्यवर्ग और गरीब आबादी से भी काफी वोट बटोर लिए थे, लेकिन उन वायदों को पूरा करने से केजरीवाल फौरन मुकर भी गए। इसी का परिणाम अब वे भुगत रहे हैं। 'आपा' के पास कुछ लोकलुभावन हवाई नारों के अलावा कोई ठोस आर्थिक-राजनीतिक कार्यक्रम था ही नहीं। निजीकरण-उदारीकरण की नीतियों का इनके पास कोई विकल्प नहीं है। तभी ये आर्थिक नीतियों पर चुप्पी साधे रहते थे। बाद में केजरीवाल और योगेन्द्र यादव जैसे इनके नेताओं के बयानों से भी इनकी कलई खुलने लगी। पूर्व एनजीओपंथियों-समाजवादियों-सुधारवादियों का यह जमावड़ा भी लीक पीटने वाला ही साबित हुआ। जनहित और जन भागीदारी के बजाय जनलोकपाल की लफ्फाजी 'आपा' के लिए आखिरकार भारी पड़ी। बहरहाल, आज केवल भारत ही नहीं, बल्कि पूरी दुनिया में भ्रष्टाचार पर नियंत्रण एक बड़ा मुद्दा है। खास तौर पर सरकारी भ्रष्टाचार पर नियंत्रण प्राथमिक जरूरत है। सामाजिक भ्रष्टाचार से निपटना बाद का एजेंडा होगा। विश्व बैंक से लेकर तमाम अन्तरराष्ट्रीय थिंक-टैंक भ्रष्टाचार, खासकर सरकारी भ्रष्टाचार पर रोक लगाने के लिए पिछले कुछ साल से काफी सक्रिय हुए हैं। कई देशों में भ्रष्टाचार के विरुद्ध 'सिविल सोसायटी' के आन्दोलनों को उनका समर्थन भी प्राप्त है। यही वजह है कि सम्पूर्ण मीडिया 'आपा' की हवा बनाने में लगा रहा था। इसीलिए अन्ना के आन्दोलन के समय से ही टाटा से लेकर किर्लोस्कर तक पूंजीपतियों का एक बड़ा हिस्सा उस आन्दोलन को समर्थन दे रहा था। और इंफोसिस के ऊंचे अफसरों से लेकर विदेशी बैंकों के आला अफसर और डक्कन एअरलाइंस के मालिक कैप्टन गोपीनाथ जैसे उद्योगपति तक 'आपा' में शामिल हो गए थे। आप याद करें कि दावोस में विश्व आर्थिक मंच पर पहुंचे भारत के कई बड़े उद्योगपतियों ने कहा था कि वे 'आपा' के इरादों का समर्थन करते हैं। लेकिन 'आपा' एक ब्लॉक के रूप में संसद में पहुंच भी जाती तो अधिक सम्भावना इसी बात की रहती कि वह राष्ट्रीय स्तर पर विकल्प बनने के बजाय दक्षिणपंथी पिट्ठू दल के रूप में संसदीय राजनीति में घुल मिल जाती या विलुप्त हो जाती। इसीलिए जनता ने उसके साथ पहले ही ऐसा कर दिया। भारतीय लोकतंत्र आज एक ऐसे मोड़ पर आ खड़ा हुआ है जहां सार्थक-सकारात्मक विपक्षी प्रतिरोध की सम्भावना करीब-करीब समाप्त ही है। कांग्रेस या वाम दल अपनी पहचान बचाने की ही जद्दोजहद में लगे हैं। किसी के पास इतनी भी संख्या नहीं बची कि उसे विपक्षी दल के रूप में मान्यता मिल जाए। ऐसे में सत्ता पर आसीन होने जा रही पार्टी के निरंकुश होने का खतरा तो बना ही रहता है। लोकतांत्रिक प्रतिरोध लोकतंत्र को जीवित रखने के लिए जरूरी होता है, इसे भारतीय जनता पार्टी को अपने ध्यान में रखना होगा और विनम्र होकर जनता की अपेक्षाओं के अनुरूप खरा उतरने का जतन करना होगा, यह सोचते हुए कि पांच साल बीतने में अधिक वक्त नहीं लगता... 

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