प्रभात रंजन दीन
अखिलेश यादव को जो पहले करना
चाहिए था, वह लोकसभा
चुनाव हारने के बाद कर रहे हैं। दरअसल, उत्तर प्रदेश में सरकार बनने के फौरन
बाद एक मुख्यमंत्री के ऊपर इतने सारे मुख्यमंत्री उभर कर आ गए कि असली मुख्यमंत्री
ही वृष्टिछाया क्षेत्र में चला गया। पिता से लेकर सगे चाचा, लगे चाचा और भगे चाचाओं तक की
बातें सुनने, उनकी
पसंद-नापसंद का ख्याल रखने, उनके आदेश लागू करने और उन सबके बीच संतुलन स्थापित करने में ही
मुख्यमंत्री अखिलेश यादव उलझे रह गए। सगे और लगे चाचा का तो करना ही था, भगे चाचा का भी करना अखिलेश यादव
की मजबूरी थी कि कब भाग जाएं और पिताश्री नाराज हो जाएं। इसमें आजम खान जैसे भगे चाचा
को लेकर खतरा अधिक था, सो अखिलेश समर्पण की मुद्रा में रहे और आजम चाचा मुस्लिम तुष्टिकरण
की सपाई सियासत का 'करगिल-युद्ध' जीतते-जितवाते रहे। सबसे अधिक फायदा भी उठाते रहे। ऐसे ही नियोजित
भ्रम में शासन-प्रशासन मतिभ्रम में पड़ गया और इस मतिभ्रम को फैलाया और फायदा उठाया
सत्ता चाटने वाले कीड़ों ने, जिसमें न केवल नेता बल्कि पत्रकार
और नौकरशाह व अन्य कुछ प्रजातियां भी शामिल थीं, जिन्होंने
सत्ता का जमकर उपभोग किया, सत्ता को उसकी प्रतिबद्धताओं
का कभी एहसास नहीं कराया और मुख्यमंत्री को घेरे में लिए फायदा उठाते रहे। कोई लाल
बत्ती ले उड़ा, कोई ठेका ले उड़ा, कोई सूचना आयुक्ती ले उड़ा, कोई मनोज
कुमार अपना नाम बदल कर फ्रैंक हुजूर बन बैठा और मुलायम-अखिलेश पर किताब लिखने का करोड़ों
का करार ही ले उड़ा, कोई ट्रांसफर-पोस्टिंग की दलाली
ले उड़ा तो कोई घपले-घोटाले में सरकारी धन उड़ाने लगा। इस ले उडऩे में सामाजिक और जन
सरोकार हवा में उड़ गए और नतीजा यह हुआ कि लोकसभा चुनाव में समाजवादी पार्टी ही उड़
गई। पूरे प्रदेशभर में एक अराजक माहौल का सृजन हो गया। इसमें मुख्यमंत्री के भगे चाचा
को अपनी भैंसों की ही पड़ी रही तो एक लगे चाचा अपने गुर्गों-चमचों को सेट करने में
पार्टी को ही घुन की तरह खोखला करने में लगे रहे। भगे चाचा आजम खान रामपुर और मुजफ्फरनगर
के मुख्यमंत्री तक बन बैठे तो लगे चाचा रामगोपाल यादव मुलायम के बाद सपा का नेतृत्व
सम्भालने का सपना साकार करने के एकसूत्री अभियान में लग गए। मुलायम बनने का सपना ऐसा
सवार हुआ कि मुलायम ने अखिलेश को उत्तराधिकारी बनाया तो रामगोपाल ने पहले ही झटके में
अक्षय को उत्तराधिकारी बनाने में सारी सियासी सीमाएं लांघ डालीं। सगे चाचा शिवपाल सिंह
यादव समझ-बूझ कर दर्शक दीर्घा में चले गए और पिताश्री मुलायम सिंह यादव अपनी परिपक्व
उम्र-दीर्घा की अपनी विवशताओं में भटके, फंसे, उलझे और खीझे रह गए। समानान्तर सरकारों के बीच अखिलेश सरकार फंसी
रह गई। अखिलेश तो ऐसे हो गए कि जैसे सब लोगों की सीढ़ी, जो आए वही नापता हुआ ऊपर स्थापित हो जाए। मुख्यमंत्री के इस्तेमाल
का यह तरीका दरअसल नियोजित साजिश का हिस्सा था, जिसमें मुख्यमंत्री पर दबाव बना
कर उसे पंगु कर दिया जाए, ताकि पार्टी की हार का ठीकरा
उस पर ही फोड़ा जा सके और इस बीच भरपूर फायदा भी उठा लिया जाए। इस पूरे दरम्यान शासन
में यह सख्त संदेश ही नहीं जा पाया कि प्रदेश का मुख्यमंत्री अखिलेश यादव है और सरकार
में मुख्यमंत्री की ही चलेगी। जो मुख्यमंत्री की टीम का मंत्री था, उसने भी अपने स्वामित्व के खेमे पिता और तमाम चाचाओं के पाले में
डाल रखे थे। यानी, पूरे दो साल अखिलेश यादव की सरकार
कटिया कनेक्शन पर चलती रही, कोई मुलायम पर कटिया फंसाए रहा
तो कोई शिवपाल पर, कोई रामगोपाल पर तो कोई आजम खान
पर... इसी क्रॉस कटिया कनेक्शन में पार्टी का ट्रांसफर्मर ऐन चुनाव में भक्क से उड़
गया। ...'ब्लैक आउट' हो गया, तब यह एहसास हुआ कि गड़बड़ी तो हो गई। प्रदेश के आम मतदाता तो
बेवकूफ ही बन गए, कानून व्यवस्था का शासन तो कभी
जमीन पर दिखा ही नहीं, पार्टी के प्रतिबद्ध कार्यकर्ता
तो उपेक्षित ही रह गए, समाजवादी विचार के हिमायती लोग
तो हाशिए पर ही ठहर गए, समाजवादी पार्टी के लिए समर्पित
योद्धाओं की फौज तो यत्र-तत्र भटकने के लिए ही विवश रह गई, सारे समाजवादी सिद्धांत संजीदा होने के बजाय बसपाई बुतों की तरह
ही पत्थर होकर रह गए। सरकार में काम कराने के लिए पार्टी के प्रतिबद्ध कार्यकताओं को
उन दलालों का सहारा लेना पड़ा जो सरकार में ऊंचे ओहदे या ऊंचे सम्मान का स्थान लेकर
विराजमान हो गए थे। दो-ढाई साल में ही इतना वीभत्स दौर गुजर गया। लोकसभा चुनाव समाजवादी
पार्टी की तरफ से सृजित अराजकता का थर्मामीटर साबित हुआ, जिसने इस अराजकता के खिलाफ उत्तर प्रदेश के लोगों की नाराजगी के
ऊंचे तापमान का दर्शन कराया। इसके लिए अकेले अखिलेश दोषी नहीं, दोषी पार्टी के सारे गैर जिम्मेदार अलमबरदार हैं, जो आज मुंह छुपाने में लगे हैं या हंसी छुपाने में। लेकिन जनता
की निगाह में अखिलेश सर्वाधिक दोषी हैं। वह दोष को सियासत के नजरिए से नहीं, जो शासक है, उसके तौर-तरीकों से देखती है।
प्रदेश के मुख्यमंत्री अखिलेश हैं तो अराजकता भी उन्हें ही दूर करनी होगी। घर आंगन
में आग लगी हुई हो, प्रदेश समाज की आस्था की दीवारें
चटख कर दरक रही हों, जन-धन और जीवन जल रहा हो, आग लगाने वाले सब दूर बैठ कर ताप रहे हों और आग बुझाने वाला दिग्भ्रमित
हो रहा हो, तो यह कैसा राजधर्म!
अखिलेश जी! यह आम लोगों का प्रेम
करने का तरीका होता है कि वह फिदा होता है तो 224 विधायकों को सत्ता की दहलीज पर बिछा
देता है और यह आम लोगों की नाराजगी जताने का ही अंदाज है कि जनप्रतिनिधित्व की व्यापकता
को परिवार की चार सीटों में सिकोड़ कर औकात की याद दिला देता है। सम्मान और प्रेम मिल
तो जाता है, लेकिन उसे हिफाजत से संजो कर रखने की धार्यता भी तो होनी
चाहिए...
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