Tuesday 20 May 2014

मुलायम को कुर्सी सौंप दें और पार्टी के लिए लग जाएं...

प्रभात रंजन दीन
समाजवादी पार्टी के प्रमुख मुलायम सिंह यादव की पीड़ा समझ में आती है। बड़ी महत्वाकांक्षा से उन्होंने अपने पुत्र अखिलेश यादव को उत्तर प्रदेश का मुख्यमंत्री बनाया था। मुलायम को लगता था कि देश का सबसे कम उम्र का मुख्यमंत्री उस अनुपात में उठेगा जिस अनुपात में उम्र की सम्भावनाएं दिखती हैं। विधानसभा चुनाव के परिणाम मुलायम के ध्यान में रहे होंगे और उन्हें यह भी लगता होगा कि विधानसभा चुनाव के परिणाम उनके सुपुत्र के बूते पर ही आए थे। हवा ऐसी ही बनाई गई थी, लिहाजा पिता भी भ्रम में पड़ गए और जब भ्रम टूटा तो सब कुछ जा चुका था। अब मुलायम के पास केवल यह कहने के लिए रह गया था कि जब वे प्रदेश के मुख्यमंत्री थे तो समाजवादी पार्टी के 36 सांसद जीत कर गए थे और जब अखिलेश मुख्यमंत्री हैं तो मात्र पांच सीटें जीते। उसमें भी केवल मुलायम परिवार के। पार्टी का अन्य कोई नेता संसदीय चुनाव में नहीं जीत पाया। स्पष्ट संदेश गया कि इस बार लोकसभा चुनाव में समाजवादी पार्टी का एक भी नेता चुनाव नहीं जीत पाया। इसकी पीड़ा मुलायम को तो होगी ही। लेकिन पुत्र प्रेम में क्या बोलें और क्या न बोलें। सपा सुप्रीमो मुलायम सिंह यादव अपने बेटे पर उस तरह नाराजगी भी नहीं व्यक्त कर सकते क्योंकि उनका बेटा उत्तर प्रदेश का मुख्यमंत्री भी है। मुलायम सिंह ने जब यह पूछा होगा कि 'अब तुम्हीं बताओ मैं लोकसभा में किसके साथ बैठूंगा'... तो अखिलेश की क्या स्थिति हुई होगी, इसकी कल्पना की जा सकती है। दिल्ली में पूछे जाने वाले सवाल तो मुलायम का पीछा करते ही होंगे कि आखिर पांच ही सीटें समाजवादी पार्टी कैसे जीत पाई। उसमें भी सपा प्रमुख मैनपुरी और आजमगढ़ दोनों सीटों से जीते। ऐसे में मुलायम क्या, समाजवादी पार्टी के किसी भी नेता को कोई जवाब नहीं सूझ रहा। ...और कोई जवाब है भी नहीं। बस, सपा नेताओं के मुंह से आरोप-प्रत्यारोप निकले, एक दूसरे पर छींटाकशी हुई और पार्टी के मंच पर नाराजगी अभिव्यक्त हुई। मुलायम ने प्रत्याशियों को हार का कारण लिखित तौर पर बताने को कहा। कुछ प्रत्याशियों ने यह भी आरोप लगाया कि अखिलेश सरकार के मंत्रियों ने धोखा दिया। संभल सीट पर पांच हजार वोट से चुनाव हारने वाले समाजवादी पार्टी के प्रत्याशी शफीकुर्रहमान बर्क ने तो बैठक में ही अखिलेश सरकार के कैबिनेट मंत्री इकबाल महमूद पर खुला आरोप लगाया कि उन्हीं की वजह से वे हारे। इस पर मुलायम ने कहा भी कि मुझे भी पता है, वह लखनऊ में बैठ कर ही बसपा प्रत्याशी का प्रचार कर रहा था। यह पार्टी के लिए और मुख्यमंत्री अखिलेश यादव के लिए भी बड़ी बात थी। कुछ प्रत्याशियों का कहना था कि मोदी लहर में सपा का समर्थक माना जाने वाला पारम्परिक यादव वोटर भी भाजपा के साथ चला गया। तो कुछ ने यह भी कह दिया कि स्थानीय प्रशासन से मदद नहीं मिल पाने के कारण हार गए। अब आप इसका अर्थायन अपनी-अपनी समझ के मुताबिक करते चलें। लेकिन यह भी बहुत सार्थक बात है कि इतनी बड़ी हार के बावजूद मुलायम इस उम्र में भी हताश नहीं हैं। मुख्यमंत्री और पार्टी नेताओं को कोसने के बाद उन्होंने नेताओं-कार्यकर्ताओं का हौसला भी बढ़ाया। उन्होंने कहा कि जो शिकायतें आई हैं उस पर वे सम्बद्ध मंत्रियों से बात करेंगे और आवश्यक कार्रवाई भी करेंगे। मुलायम ने उनसे कहा कि परेशान मत होइए, हार और जीत चुनावी राजनीति का हिस्सा है, लोगों के बीच फिर जाइए और आने वाले चुनावों में जीतने का जतन करिए। उस समय भी अजीबोगरीब स्थिति बनी जब समीक्षा बैठक में मुलायम ने अखिलेश से अन्य राज्यों के मुख्यमंत्रियों के 'परफॉर्मेंस' का हवाला देते हुए पूछा कि तमिलनाडु में जयललिता, पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी, ओड़ीशा में नवीन पटनायक और पंजाब में प्रकाश सिंह बादल ने अपने-अपने राज्यों में सबसे ज्यादा सीटें कैसे जीत लीं? हमारे यहां क्या हो गया? हमलोग क्यों हार गए? कोई मुझे इसकी वजह बता सकता है? जब मुलायम यह सवाल पूछे रहे थे तो उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री चुप थे। वे बोल भी क्या सकते थे। ...और कोई भी क्या बोल सकता है। जैसा हाल उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री का हुआ वैसा ही हाल बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार का भी हुआ। लेकिन नीतीश कुमार ने इस पराजय को अपनी नैतिकता पर लिया और इस्तीफा दे दिया। इस्तीफा हार का कोई इलाज नहीं है, हां लोगों के मुंह बंद करने का एक बड़ा बहाना जरूर बन जाता है। अखिलेश यादव के पास तो बहाने के बजाय कारगर उपाय भी है। नैतिकता के आधार पर इस्तीफा देते और मुख्यमंत्री का पद अपने पिता मुलायम सिंह यादव के समक्ष समर्पित कर देते। मुलायम अगर मुख्यमंत्री का पद सम्भाल लें तो विधानसभा चुनाव में स्थितियां सम्भल सकती हैं और फिर से पार्टी एकसूत्रित हो सकती है। अब समाजवादी पार्टी को कई परिपक्व और कड़े फैसले लेने होंगे अगर पार्टी को जिंदा रखना है तो। केवल दर्जा प्राप्त मंत्रियों या अधिकार प्राप्त मंत्रियों को झटक देने से बात थोड़े ही बनने वाली है। दर्जा प्राप्त अवसरवादियों को सत्ता गलियारे से बाहर निकाले बगैर कुछ नहीं सधने वाला है। समाजवादी पार्टी को यह प्रदर्शित करना होगा कि हार के बावजूद वह व्यक्तिवादी बसपा से मौलिक रूप से अलग है। तीन साल के बाद फिर विधानसभा चुनाव सामने होगा, फिर से जीतने की जद्दोजहद होगी। लोकसभा चुनाव में भरोसे की जो जमीन खो गई है, उसे वापस ले आना होगा। लैपटॉप चुनाव नहीं जिता सकता, इसे पार्टी ने देख लिया। अनाप-शनाप बयानबाजियां चुनाव नहीं जिता सकतीं, यह पार्टी ने और खास तौर पर आजम खान ने देख लिया। हवा-हवाई बातें और जमीन पर कोई काम नहीं से चुनाव नहीं जीता सकता, इसे मुख्यमंत्री ने देख लिया। अब और क्या देखना बाकी रह गया है! इसके आगे कुछ और वीभत्स दिखे उसके पहले समाजवादी पार्टी को सतर्क हो जाना चाहिए। व्यक्ति नहीं, व्यक्तित्व बड़ा होना चाहिए, उसके लिए प्रयास करना चाहिए। अपना और अपने चाटुकारों का हित देखने के बजाय जनता के हितों को देखना और उसे पूरा करना चाहिए। जनता से अंतरंग होना चाहिए। जो नेता जनता से अंतरंग नहीं हुआ, वह तो गया। अखिलेश यादव ने देख लिया। मायावती ने देख लिया। जनता से दूरी का रिजल्ट पांच-पांच साल में मिलता है। जनता से अंतरंगता और संवाद का क्या पुरस्कार मिलता है इसे नरेंद्र मोदी ने भी देख लिया। अखिलेश यादव ने भी विधानसभा चुनाव में देखा था लेकिन सत्ता मिलते ही स्वार्थी चाटुकारों से ऐसे घिरे और आम नागरिकों से ऐसे बिदके कि लोकसभा चुनाव में उसका परिणाम देख रहे हैं और भुगत रहे हैं। अभी भी वक्त है। नेताजी को मुख्यमंत्री का पद सौंप दें और खुद पार्टी के लिए लग जाएं। पार्टी काडर को मजबूत करें, अपने साथ जोड़ें, खुद को उनके साथ जोड़ें, 'बड़प्पन' छोड़ दें और बड़े हो जाएं... जीत फिर से मुट्ठी में होगी। 

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