प्रभात रंजन दीन
तेलंगाना बिल को लेकर लोकसभा में गुरुवार को जो दृश्य दिखा, वह नागवार तो था, लेकिन आश्चर्यजनक नहीं था। जिस तरह के या जिस स्तर के सांसद या विधायक चुन कर आ रहे हैं या हम जिस स्तर के जनप्रतिनिधि चुन कर संसद या विधानसभाओं में भेजते हैं, उनसे और क्या उम्मीद कर सकते हैं! हम सब कहते रहें कि सांसदों की ऐसी हरकत से लोकसभा शर्मसार हो गई या पूरा देश ही शर्म से दोहरा हो गया। लेकिन यह सब लिखने और कहने की बातें हैं। कोई संसद इन हरकतों से नहीं शरमाई और कोई देश इससे नहीं शरमाया। जबसे संसद का गठन हुआ और जबसे विधानसभाएं बनीं, तबसे आज तक जिस तरह की हरकतें जनप्रतिनिधियों ने की हैं, उससे जब देश नहीं शरमाया तो मिर्च का पाउडर छिड़कने से क्या शरमाएगा! संसद या विधानसभाएं जनप्रतिनिधियों के भ्रष्टाचार, चोरी-चकारी, अनैतिक आचरण और घटिया तिकड़मों से नहीं शरमाईं और मिर्च पाउडर से शरमा गईं... यह बात भी बहुत शर्मनाक है। पिछले दस साल का ही उदाहरण हम सामने रखें, कितने दिन प्रधानमंत्री को शर्म आई, जब संचार, खेल, कोयला, हेलीकॉप्टर जैसे तमाम घोटालों की झड़ी लगी रही? इन घोटालों पर केंद्र सरकार चलाने वाली कांग्रेस पार्टी को कितनी बार शर्म आई? ऐसी करतूतों पर विपक्षी दलों को कितनी शर्म आई? सांसदों को कितनी शर्म आई? ...और अगर मंत्रियों के ऐसे निकृष्ट आचरणों पर शर्म आई तो इतने दिन संसद कैसे चली? शर्मो-हया की बातें बेकार हैं, कम से कम संसद और विधानसभाओं पर यह लागू नहीं होती। कोई मिर्ची पाउडर पर लगा पड़ा है तो कोई तेलंगाना पर तो कोई 13 की तारीख को ही मनहूस बताने पर तुला पड़ा है। इन 'तेरहवादियों' का कहना है कि संसद में मिर्च पाउडर उछालने की घटना 13 फरवरी को हुई। संसद पर हमला 13 दिसम्बर को हुआ था। भाजपा की एक बार की सरकार 13 दिन चली थी, वगैरह वगैरह। मूल मुद्दे से किसी का वास्ता ही नहीं। कोई पूछ नहीं रहा कि देश को क्यों तोड़ रहे हो भाई? क्यों इसके टुकड़े-टुकड़े करने पर आमादा हो? सत्ता का उपभोग करने के लिए राज्यों को केक समझ रखा है क्या आपने कि उसे लगातार काटते और खाते चले जा रहे हैं? एक तो सत्ता का उपभोग करने के लिए तथाकथित आजादी दिलाने के नाम पर देश को तोड़ डाला गया। उसके बाद राज्यों के विलय और एकता के प्रयास हुए, लेकिन राजनीति की घटिया नस्लीय उत्पाद ने उन राज्यों को भी छोटे-छोटे हिस्सों में बांटना शुरू कर दिया। आप सबको पता ही होगा कि जिस समय देश आजाद हुआ या ऐसा भी कह सकते हैं कि जब अपना देश दो हिस्सों में बंटा तब 1947 में देश में 500 से अधिक छोटी-बड़ी रियासतें थीं जिनका सरदार पटेल ने भारत में विलय कराया। हैदराबाद का देश में विलय 17 सितम्बर 1948 को हुआ। 1952 में पोट्टी श्रीरामुलू ने आंध्रप्रदेश के लिए व्रत रखा और शहीद भी हो गए। इस उत्सर्ग के आगे झुकते हुए जवाहर लाल नेहरू ने 19 दिसम्बर को आंध्रप्रदेश राज्य के गठन की घोषणा की। 1956 में राज्यों के भाषाई आधार पर पुनरगठन में तेलुगू भाषी जिलों को मिलाकर आंध्रप्रदेश का गठन करके हैदराबाद को राजधानी बना दिया गया। खैर, राज्यों के विभाजन के पीछे यह तर्क दिया गया कि इससे विकास को गति मिलेगी। लेकिन साबित यह हुआ कि इससे राज्यों का विकास तो नहीं ही हुआ, नेताओं का विकास जरूर हो गया। हाल में उत्तर प्रदेश को तोड़ कर बने उत्तराखंड, मध्यप्रदेश को खंडित कर बने छत्तीसगढ़ और बिहार को तोड़ कर बनाए गए झारखंड का क्या हुआ? नेताओं की तिजोरियां भरती गईं और उन राज्यों का हाल और भी बदतर होता चला गया। छोटे राज्यों से विकास और सुशासन की धारणा कभी पूरी ही नहीं हो पाई, यह केवल नेताओं की सत्ता लिप्सा और अर्थ लोलुपता की ही तुष्टि करने का माध्यम बनता रहा। ...और यह सिलसिला थमने का नाम भी नहीं ले रहा। उत्तर प्रदेश को और भी छोटे-छोटे टुकड़ों में तोडऩे की साजिशी-सियासत चल रही है। इस मामले में मायावती उत्तर प्रदेश की मौलिकता की कुछ अधिक ही शत्रु साबित हो रही हैं। थोड़ा पीछे जाएं तो आपको स्मरण हो आएगा कि 2004 में आंध्रप्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री राजशेखर रेड्डी ने तेलंगाना आंदोलन को करीब-करीब समाप्त ही कर दिया था। 2009 में चंद्र बाबू नायडू की तेलुगू देशम पार्टी व चंद्रशेखर राव की तेलुगू राष्ट्र समिति की हार से भी समझा जा रहा था कि तेलंगाना मसला दम तोड़ चुका है। लेकिन राजशेखर रेड्डी के मरने के बाद चंद्रशेखर राव ने तेलंगाना की मांग पर फिर से अनशन-आंदोलन शुरू कर दिया। केंद्र की कांग्रेस सरकार को भी सियासत सेंकने का मौका मिल गया और केंद्र सरकार ने अलग तेलंगाना बनाने की कानूनी प्रक्रिया भी शुरू कर दी। इसके लिए श्रीकृष्ण समिति भी गठित की गई और 6 जनवरी 2011 को इसकी रिपोर्ट आने के बाद तेलंगाना फिर से गरमा गया। आंध्रप्रदेश के लोगों का बड़ा तबका राज्य के बंटवारे के पक्ष में नहीं है। लेकिन कुछ लोग अलग तेलंगाना चाहते भी हैं। इस सियासत में कूदते हुए 30 जुलाई 2013 को कांग्रेस कार्यकारिणी ने सर्वसम्मति से प्रस्ताव पारित करके केंद्र सरकार से तेलंगाना राज्य के गठन का अनुरोध किया और मनमोहन सिंह कैबिनेट ने पांच दिसम्बर 2013 को अलग तेलंगाना राज्य के विधेयक के प्रारूप को मंजूरी दे दी। इसी विधेयक को जब 13 फरवरी को संसद में पेश किया गया तो इसके विरोध में मिर्च का पाउडर उड़ा और अचानक पूरी संसद शर्म से दोहरी हो गई। जबकि विचार यह होना चाहिए कि अलोकतांत्रिक फैसले लेने वाली संसद देश को विघटन के कगार पर क्यों ले जा रही है? छोटे-छोटे राज्यों का गठन देशभर में राजनीतिक अस्थिरता का माहौल सृजित करेगा। देशभर में हर राज्य से अलग राज्य की मांग उठने लगेगी। इसी तरह छोटे राज्यों का गठन होता गया तो वह दिन दूर नहीं जब देश का हर जिला एक राज्य के रूप में खड़ा हो जाएगा। भारतवर्ष को फिर से छोटे-छोटे कमजोर रजवाड़ों और सामंती कबीलों में तब्दील करने की यह साजिश है। यह देश नेताओं की बपौती नहीं है। इसे समझाने के लिए नागरिकों को संगठित होना होगा और ऐसी सत्याग्रही स्थिति ला देनी होगी कि कोई राजनीतिक दल या नेता ऐसी हरकत करने से बाज आए। नेता कुकुरमुत्ते की तरह बढ़ते चले गए और सत्ता का उपभोग करने के लिए वे राज्यों को छोटा से छोटा बांटते चले गए। राज्यों के बंटवारे से नेता, नौकरशाह, पूंजीपति और दलालों की तो लॉटरी खुल गई, जबकि आम आदमी और भी बदहाली की स्थिति में धंसता चला गया। आम नागरिक यह अच्छी तरह जानता-समझता है कि राज्य के टुकड़े क्यों किए जा रहे हैं। इसके पीछे नेताओं की मंशा क्या है। जितने राज्य उतने मुख्यमंत्री, उतने मंत्री, उतने अधिकारी और लूट का उतना ही अवसर। बस, राज्यों के बंटवारे के पीछे और कोई आधार नहीं। हम टूटते चले जाने के लिए तैयार रहें, या हम इसे रोकें, दोनों हमारे ही हाथ में है...
तेलंगाना बिल को लेकर लोकसभा में गुरुवार को जो दृश्य दिखा, वह नागवार तो था, लेकिन आश्चर्यजनक नहीं था। जिस तरह के या जिस स्तर के सांसद या विधायक चुन कर आ रहे हैं या हम जिस स्तर के जनप्रतिनिधि चुन कर संसद या विधानसभाओं में भेजते हैं, उनसे और क्या उम्मीद कर सकते हैं! हम सब कहते रहें कि सांसदों की ऐसी हरकत से लोकसभा शर्मसार हो गई या पूरा देश ही शर्म से दोहरा हो गया। लेकिन यह सब लिखने और कहने की बातें हैं। कोई संसद इन हरकतों से नहीं शरमाई और कोई देश इससे नहीं शरमाया। जबसे संसद का गठन हुआ और जबसे विधानसभाएं बनीं, तबसे आज तक जिस तरह की हरकतें जनप्रतिनिधियों ने की हैं, उससे जब देश नहीं शरमाया तो मिर्च का पाउडर छिड़कने से क्या शरमाएगा! संसद या विधानसभाएं जनप्रतिनिधियों के भ्रष्टाचार, चोरी-चकारी, अनैतिक आचरण और घटिया तिकड़मों से नहीं शरमाईं और मिर्च पाउडर से शरमा गईं... यह बात भी बहुत शर्मनाक है। पिछले दस साल का ही उदाहरण हम सामने रखें, कितने दिन प्रधानमंत्री को शर्म आई, जब संचार, खेल, कोयला, हेलीकॉप्टर जैसे तमाम घोटालों की झड़ी लगी रही? इन घोटालों पर केंद्र सरकार चलाने वाली कांग्रेस पार्टी को कितनी बार शर्म आई? ऐसी करतूतों पर विपक्षी दलों को कितनी शर्म आई? सांसदों को कितनी शर्म आई? ...और अगर मंत्रियों के ऐसे निकृष्ट आचरणों पर शर्म आई तो इतने दिन संसद कैसे चली? शर्मो-हया की बातें बेकार हैं, कम से कम संसद और विधानसभाओं पर यह लागू नहीं होती। कोई मिर्ची पाउडर पर लगा पड़ा है तो कोई तेलंगाना पर तो कोई 13 की तारीख को ही मनहूस बताने पर तुला पड़ा है। इन 'तेरहवादियों' का कहना है कि संसद में मिर्च पाउडर उछालने की घटना 13 फरवरी को हुई। संसद पर हमला 13 दिसम्बर को हुआ था। भाजपा की एक बार की सरकार 13 दिन चली थी, वगैरह वगैरह। मूल मुद्दे से किसी का वास्ता ही नहीं। कोई पूछ नहीं रहा कि देश को क्यों तोड़ रहे हो भाई? क्यों इसके टुकड़े-टुकड़े करने पर आमादा हो? सत्ता का उपभोग करने के लिए राज्यों को केक समझ रखा है क्या आपने कि उसे लगातार काटते और खाते चले जा रहे हैं? एक तो सत्ता का उपभोग करने के लिए तथाकथित आजादी दिलाने के नाम पर देश को तोड़ डाला गया। उसके बाद राज्यों के विलय और एकता के प्रयास हुए, लेकिन राजनीति की घटिया नस्लीय उत्पाद ने उन राज्यों को भी छोटे-छोटे हिस्सों में बांटना शुरू कर दिया। आप सबको पता ही होगा कि जिस समय देश आजाद हुआ या ऐसा भी कह सकते हैं कि जब अपना देश दो हिस्सों में बंटा तब 1947 में देश में 500 से अधिक छोटी-बड़ी रियासतें थीं जिनका सरदार पटेल ने भारत में विलय कराया। हैदराबाद का देश में विलय 17 सितम्बर 1948 को हुआ। 1952 में पोट्टी श्रीरामुलू ने आंध्रप्रदेश के लिए व्रत रखा और शहीद भी हो गए। इस उत्सर्ग के आगे झुकते हुए जवाहर लाल नेहरू ने 19 दिसम्बर को आंध्रप्रदेश राज्य के गठन की घोषणा की। 1956 में राज्यों के भाषाई आधार पर पुनरगठन में तेलुगू भाषी जिलों को मिलाकर आंध्रप्रदेश का गठन करके हैदराबाद को राजधानी बना दिया गया। खैर, राज्यों के विभाजन के पीछे यह तर्क दिया गया कि इससे विकास को गति मिलेगी। लेकिन साबित यह हुआ कि इससे राज्यों का विकास तो नहीं ही हुआ, नेताओं का विकास जरूर हो गया। हाल में उत्तर प्रदेश को तोड़ कर बने उत्तराखंड, मध्यप्रदेश को खंडित कर बने छत्तीसगढ़ और बिहार को तोड़ कर बनाए गए झारखंड का क्या हुआ? नेताओं की तिजोरियां भरती गईं और उन राज्यों का हाल और भी बदतर होता चला गया। छोटे राज्यों से विकास और सुशासन की धारणा कभी पूरी ही नहीं हो पाई, यह केवल नेताओं की सत्ता लिप्सा और अर्थ लोलुपता की ही तुष्टि करने का माध्यम बनता रहा। ...और यह सिलसिला थमने का नाम भी नहीं ले रहा। उत्तर प्रदेश को और भी छोटे-छोटे टुकड़ों में तोडऩे की साजिशी-सियासत चल रही है। इस मामले में मायावती उत्तर प्रदेश की मौलिकता की कुछ अधिक ही शत्रु साबित हो रही हैं। थोड़ा पीछे जाएं तो आपको स्मरण हो आएगा कि 2004 में आंध्रप्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री राजशेखर रेड्डी ने तेलंगाना आंदोलन को करीब-करीब समाप्त ही कर दिया था। 2009 में चंद्र बाबू नायडू की तेलुगू देशम पार्टी व चंद्रशेखर राव की तेलुगू राष्ट्र समिति की हार से भी समझा जा रहा था कि तेलंगाना मसला दम तोड़ चुका है। लेकिन राजशेखर रेड्डी के मरने के बाद चंद्रशेखर राव ने तेलंगाना की मांग पर फिर से अनशन-आंदोलन शुरू कर दिया। केंद्र की कांग्रेस सरकार को भी सियासत सेंकने का मौका मिल गया और केंद्र सरकार ने अलग तेलंगाना बनाने की कानूनी प्रक्रिया भी शुरू कर दी। इसके लिए श्रीकृष्ण समिति भी गठित की गई और 6 जनवरी 2011 को इसकी रिपोर्ट आने के बाद तेलंगाना फिर से गरमा गया। आंध्रप्रदेश के लोगों का बड़ा तबका राज्य के बंटवारे के पक्ष में नहीं है। लेकिन कुछ लोग अलग तेलंगाना चाहते भी हैं। इस सियासत में कूदते हुए 30 जुलाई 2013 को कांग्रेस कार्यकारिणी ने सर्वसम्मति से प्रस्ताव पारित करके केंद्र सरकार से तेलंगाना राज्य के गठन का अनुरोध किया और मनमोहन सिंह कैबिनेट ने पांच दिसम्बर 2013 को अलग तेलंगाना राज्य के विधेयक के प्रारूप को मंजूरी दे दी। इसी विधेयक को जब 13 फरवरी को संसद में पेश किया गया तो इसके विरोध में मिर्च का पाउडर उड़ा और अचानक पूरी संसद शर्म से दोहरी हो गई। जबकि विचार यह होना चाहिए कि अलोकतांत्रिक फैसले लेने वाली संसद देश को विघटन के कगार पर क्यों ले जा रही है? छोटे-छोटे राज्यों का गठन देशभर में राजनीतिक अस्थिरता का माहौल सृजित करेगा। देशभर में हर राज्य से अलग राज्य की मांग उठने लगेगी। इसी तरह छोटे राज्यों का गठन होता गया तो वह दिन दूर नहीं जब देश का हर जिला एक राज्य के रूप में खड़ा हो जाएगा। भारतवर्ष को फिर से छोटे-छोटे कमजोर रजवाड़ों और सामंती कबीलों में तब्दील करने की यह साजिश है। यह देश नेताओं की बपौती नहीं है। इसे समझाने के लिए नागरिकों को संगठित होना होगा और ऐसी सत्याग्रही स्थिति ला देनी होगी कि कोई राजनीतिक दल या नेता ऐसी हरकत करने से बाज आए। नेता कुकुरमुत्ते की तरह बढ़ते चले गए और सत्ता का उपभोग करने के लिए वे राज्यों को छोटा से छोटा बांटते चले गए। राज्यों के बंटवारे से नेता, नौकरशाह, पूंजीपति और दलालों की तो लॉटरी खुल गई, जबकि आम आदमी और भी बदहाली की स्थिति में धंसता चला गया। आम नागरिक यह अच्छी तरह जानता-समझता है कि राज्य के टुकड़े क्यों किए जा रहे हैं। इसके पीछे नेताओं की मंशा क्या है। जितने राज्य उतने मुख्यमंत्री, उतने मंत्री, उतने अधिकारी और लूट का उतना ही अवसर। बस, राज्यों के बंटवारे के पीछे और कोई आधार नहीं। हम टूटते चले जाने के लिए तैयार रहें, या हम इसे रोकें, दोनों हमारे ही हाथ में है...
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