प्रभात रंजन दीन
सहारा समूह के अभिभावक सुब्रत
राय आखिरकार गिरफ्तार हो गए। निवेशकों को पैसा लौटाने का मामला इतनी हील-हुज्जतों के
बाद इस परिणाम पर पहुंचा है। परिणति तो अभी शेष है। अब सुब्रत राय को सुप्रीम कोर्ट
में पुलिस पेश करेगी। लखनऊ पुलिस की कृपा पर वे चार दिन काटेंगे और चार मार्च को न्याय
की सर्वोच्च पीठ के समक्ष प्रस्तुत किए जाएंगे। यही पीठ बड़े सम्मान से उन्हें बुला
रही थी। हाजिर होकर अपनी बात रखने का मौका दे रही थी। अपने सम्मान का ख्याल रखते हुए
खुद ही पेश हो गए होते तो यह दिन तो नहीं देखने पड़ते! अंग्रेजी में एक बड़ी पुरानी
कहावत है। सब जानते हैं। फिर भी बार-बार बोलने-सुनने से बात अवचेतन में अपनी पैठ बना
लेती है और कर्मों को प्रभावित करती है। कहावत है, 'अ मैन इज़ नोन बाइ द कम्पनी ही
कीप्स'... (आदमी
जैसी संगत रखता है, उसी से जाना जाता है)। सुब्रत राय के लिए यह कहावत बिल्कुल सटीक
है। लेकिन उन्होंने शायद यह कहावत कभी सुनी नहीं होगी या उसे अपने अवचेतन में स्थापित
करने के पहले ही झटक दिया होगा। अगर उन्होंने यह कहावत सुनी और गुनी होती तो आज यह
गुणा-भाग नहीं होता, साथी-सिपहसालार सच्चे होते तो आज नतीजे भी अच्छे होते। सुब्रत
राय विज्ञापन दे-देकर, छपवा-छपवा कर बार-बार यह स्थापित करने की कोशिश करते हैं कि वे
ईमानदार हैं, राष्ट्रभक्त
हैं, कर्तव्ययोगी
हैं, सच्चे
रास्ते पर चलते हैं, निवेशकों का धन शानो-शौकत पर खर्च नहीं करते हैं। ...फिर विज्ञापन
क्यों देते हैं? फिर अपनी नेकनीयती की मुनादियां क्यों पिटवाते हैं? फिर ढिंढोरा पीटने पर इतना भारी
खर्च क्यों करते हैं और किसके बूते करते हैं? सीधे-सच्चे को विज्ञापन देने की जरूरत
नहीं पड़ती। सच्चाई के रास्ते पर चलने वाले सच्चाई की मार्केटिंग करने पर नहीं उतरते।
...और सुब्रत राय विज्ञापन भी कहां छपवाते-दिखवाते हैं? उसी मीडिया में, जिसे धिक्कारते हैं और लिखित
तौर पर देश का दुश्मन बताते हैं। निवेशकों का धन हड़पने के आरोपों से सने सुब्रत राय
मीडिया की संवेदनशीलता मापने का थर्मामीटर भी हैं और जज भी हैं, जो बाकायदा प्रेस विज्ञप्ति जारी
कर कुछ पत्रकारों पर जहर उगलने और अमानवीय होने का 'वरडिक्ट' (न्यायिक फैसला) भी सुनाते हैं।
बच्चा चाहे अपराधी हो चाहे योद्धा, सब जगह से हिकारत पाने के बाद या युद्ध
हारने के बाद मां के आंचल में सिर छिपाता है, रोता है। लेकिन अपराधी और योद्धा में
एक मौलिक फर्क होता है। योद्धा मां की गोद में सिर रख कर फिर से युद्ध जीतने का संस्कार
लेता है, ऊर्जस्वित
होता है, बचाव
के खोखले तर्क नहीं गढ़ता, जबकि अपराधी अपने बचाव में कभी अपने साथ के लोगों को आगे कर देता
है तो कभी धारिणी को आगे कर देता है। तब मां के मन में कुछ ऐसे ही भाव आते हैं... कितना
धन लूटोगे / कितना सत उड़ाओगे / कितनी जड़ें उखाड़ोगे / कितने दुर्ग बनाओगे / मैं मौन
/ तुम्हारी प्रहरी / अब तुम सांसें ले लो गहरी / मेरे हृदय की छांह में छुपने वाले
/ मैं जीती जाती हूं तुम्हारे लिए / पर मेरी भी मर्यादा है / मेरे भी धैर्य की सीमा
है / रोना न पड़े तुम्हें अपनी गलती पर / पछतावा न हो अपने कृत्यों पर / आगाह करती
हूं तुम्हें / अपनी धारिणी को दरिद्र मत बनाओ / मेरे दर्द को समझो / अब भी सम्भलो
/ सिक्कों की इमारत से नहीं / मुझे नैतिकता के फूलों से सत्कार दे दो / मेरी धार्यता
को संकुचन नहीं विस्तार दे दो...
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