Friday 14 March 2014

दंगे पर दगा, दिल्ली से यूपी तक कोई नहीं सगा

मुजफ्फरनगर दंगे से जुड़े सवालों पर केंद्र से लेकर प्रदेश सरकार तक देती रही झांसा, परोसे झूठ ही झूठ
प्रभात रंजन दीन
मुजफ्फरनगर दंगों को लेकर खूब सियासत हुई। उत्तर प्रदेश सरकार और उसकी समाजवादी पार्टी व केंद्र सरकार और उसकी कांग्रेस पार्टी ने मुसलमानों की हितैषी दिखाने की सारी हदें लांघीं। लेकिन साबित यही हुआ कि आम नागरिक कभी किसी सत्ता का प्रिय नहीं होता। नागरिकों के सरोकार कभी राजनीतिक दलों की प्राथमिकता पर नहीं रहते। दंगों पर सियासत हो सकती है, वोट झटके जा सकते हैं, पर कार्रवाई नहीं हो सकती। चलिए, मुजफ्फरनगर दंगों के लेकर हम आपको कुछ चुटकुले सुनाते हैं। सरकारें, पार्टियां, नौकरशाही, आयोग और अदालतों ने दंगों को लेकर इतना फूहड़ हास्य सृजित किया कि हास्य की विधा को भी शर्म आने लगे। दंगों को लेकर हुए पाखंड को हम खंड-खंड आपके समक्ष प्रस्तुत करते हैं। दंगों को लेकर की गई कार्रवाई, राहत की व्यवस्थाएं, एहतियात जैसे सामान्य जिज्ञासा के सवालों का जवाब देने में भी देश से लेकर प्रदेश तक शासन-प्रशासन तंत्र ने कितनी बदमिजाजी दिखाई, उसे आप देखें तो आपको लोकतंत्र समझ में आ जाए। सूचना के अधिकार के तहत सलीम बेग ने सवाल पूछे थे। उनके नायाब जवाब आए। आप भी देखिए...
उत्तर प्रदेश का मुख्यमंत्री कार्यालय :  मुख्यमत्री कार्यालय के संयुक्त सचिव डॉ. नंदलाल ने कहा कि पूछे गए सवाल गृह विभाग से सम्बद्ध हैं। गृह विभाग के प्रमुख सचिव को निर्देशित किया जाता है कि वे संदर्भित सूचनाएं प्रदान करें अन्यथा सूचना का अधिकार अधिनियम की धारा 5 (5) के तहत उत्तरदायी माने जाएंगे।
अल्पसंख्यक कल्याण एवं वक्फ अनुभाग : मुजफ्फरनगर में हुए साम्प्रदायिक दंगों से प्रभावित अल्पसंख्यकों के हितों के संरक्षण एवं जांच दलों द्वारा की गई कार्रवाई से सम्बन्धित कार्य अल्पसंख्यक कल्याण विभाग में व्यवहृत नहीं किया जाता है, बल्कि गृह विभाग में व्यवहृत होता है।
उत्तर प्रदेश सरकार का गृह विभाग : अल्पसंख्यक कल्याण से संदर्भित पत्र में पूछे गए सवालों का गृह विभाग से कोई सम्बन्ध नहीं है।
उत्तर प्रदेश पुलिस महानिदेशक मुख्यालय : सूचना प्राप्त करने के लिए लेखाधिकारी पुलिस महानिदेशक के नाम से 10 रुपए का पोस्टल ऑर्डर भेजा, जबकि उसे जनसूचना अधिकारी, पुलिस मुख्यालय के नाम से भेजना चाहिए था। लिहाजा, सूचना नहीं दी जा सकती।
उत्तर प्रदेश राज्य मानवाधिकार आयोग : प्रश्नगत प्रकरण में कतिपय शिकायतें (आठ) प्राप्त हुई हैं। प्रश्नगत अवधि में आयोग में अध्यक्ष और सदस्यों के पद रिक्त चल रहे थे। वर्तमान में अध्यक्ष और सदस्य पदभार ग्रहण कर चुके हैं। प्रकरण आयोग के अवलोकनार्थ अभी विचाराधीन है। आयोग के निर्णयोपरांत अग्रेतर कार्यवाही से यथासमय अवगत करा दिया जाएगा।
उत्तर प्रदेश अल्पसंख्यक आयोग : उत्तर प्रदेश अल्पसंख्यक आयोग में मुजफ्फरनगर दंगे से सम्बन्धित कोई शिकायती पत्र प्राप्त नहीं हुआ है। उत्तर प्रदेश अल्पसंख्यक आयोग का गठन अभी नहीं हुआ है। अत: कोई जांच दल नहीं भेजा गया है। अत: किसी कार्यवाही का प्रश्न ही नहीं है।
...आपने देखा न, मुजफ्फरनगर दंगों को लेकर उत्तर प्रदेश सरकार और अल्पसंख्यक हित देखने वाले आयोग कितने संजीदा हैं! ये सारे आधिकारिक जवाब उत्तर प्रदेश सरकार की संजीदगी के आडम्बर का पर्दाफाश हैं। विडम्बना यह है कि राज्य अल्पसंख्यक आयोग के सचिव मोहम्मद मारूफ सलीम बेग को लिखे जवाब में एक नम्बर बिंदु से लेकर छह नम्बर तक एक ही बात का रट्टा लगाए हैं कि आयोग में कोई शिकायत नहीं आई है। आयोग का गठन नहीं हुआ है। आयोग ने कोई जांच नहीं की, न कोई दल भेजा और न कोई कार्यवाही की। अल्पसंख्यक आयोग के ये सचिव महोदय आधिकारिक तौर पर भी झूठ बोलने के विशेषज्ञ हैं। आरटीआई योद्धा सलीम बेग का जवाब देते हुए मोहम्मद मारूफ ने यह नहीं सोचा कि उन्होंने सहारनपुर मंडल के आयुक्त को पत्र लिख कर दंगों की जो अद्यतन रिपोर्ट तलब की थी, वह इस संवाददाता के भी हाथ लग सकती है। सहारनपुर के मंडलायुक्त ने सचिव को क्या जवाब भेजा और उस जवाब को सार्वजनिक  क्यों नहीं किया गया, इसकी प्रभावकारी वजह के बारे में तो मोहम्मद मारूफ ही बता सकते हैं।
अब देखिए राज्य मानवाधिकार आयोग का हाल। आयोग के वरिष्ठ प्रशासनिक अधिकारी एमएल बाजपेयी एक तरफ कहते हैं कि मुजफ्फरनगर दंगे से सम्बन्धित कतिपय शिकायतें प्राप्त हुई हैं। फिर कहते हैं कि आयोग के अध्यक्ष और सदस्य का पद खाली है। फिर कहते हैं कि अध्यक्ष और सदस्य आ गए। इसके बावजूद दंगा प्रकरण आयोग के अवलोकनार्थ भी नहीं आया। अब ऐसे आयोग के लिए आह निकले या वाह! ऐसे निरर्थक आयोगों के लिए आह और वाह दोनों शब्द माकूल हैं। उत्तर प्रदेश के पुलिस महानिदेशक कार्यालय को दंगे जैसे महत्वपूर्ण और संवेदनशील मसले पर सूचना देने से अधिक प्रिय 10 रुपए का पोस्टल ऑर्डर है। पोस्टल ऑर्डर भेजा भी गया लेकिन उस पर लेखाधिकारी पुलिस मुख्यालय लिख गया तो उसे लौटा दिया गया। अधिनियम कहता है कि पोस्टल ऑर्डर के लिए सूचना रोकना गैर कानूनी है। अब आइए राज्य के अल्पसंख्यक कल्याण  विभाग और प्रदेश के गृह विभाग के निर्लज्ज जवाब पर। अल्पसंख्यक कल्याण विभाग को दंगों से जुड़े किसी भी सवाल से कोई लेना-देना नहीं है। उस विभाग के अनु सचिव मनी राम कहते हैं कि यह मामला गृह विभाग से सम्बद्ध है। इस पर गृह विभाग आगे बढ़ कर जवाबी बल्लेबाजी करता हुआ कहता है कि दंगे से जुड़े सवाल गृह विभाग से सम्बद्ध नहीं हैं। गृह विभाग ऐसा जवाब देकर न केवल अल्पसंख्यक कल्याण विभाग बल्कि मुख्यमंत्री कार्यालय को करारा तमाचा लगाता है। इस तमाचे की अनुगूंज दुनिया तो सुनती है, पर मुख्यमंत्री दफ्तर नहीं सुनता।
अब राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री, और राष्ट्रीय आयोगों का हाल सुनिए...
राष्ट्रपति भवन के केंद्रीय लोक सूचना अधिकारी सौरभ विजय कहते हैं कि मुजफ्फरनगर दंगे से सम्बद्ध सूचनाएं राष्ट्रपति सचिवालय में उपलब्ध नहीं हैं। प्रधानमंत्री कार्यालय के निदेशक एवं अपीलीय अधिकारी कृष्ण कुमार ने अपने जवाब में कहा कि प्रधानमंत्री कार्यालय के केंद्रीय लोक सूचना अधिकारी को 15 दिनों के अंदर सूचना मुहैया कराने के लिए निर्देशित किया जाता है। कृष्ण कुमार ने तीन फरवरी को पत्र लिखा और 15 दिन का इंतजार किए बगैर उसी दिन मामला निस्तारित भी कर दिया। सूचना अब तक नहीं आई। निर्देशों का उल्लंघन करने वाले अधिकारी पर कार्रवाई कौन करे? इस सवाल पर आम आदमी झूलता रहे।
केंद्र का अल्पसंख्यक कार्य मंत्रालय आधिकारिक तौर पर कहता है कि मंत्री के. रहमान खान व अफसरों का दल मुजफ्फरनगर दंगे के प्रभावित क्षेत्रों और राहत शिविरों के दौरे पर गया था। फिर यह भी कहता है कि मंत्रालय ने कोई टीम नहीं भेजी। विचित्र यह है कि मुजफ्फरनगर दंगे से जुड़े सवालों को जवाब के लिए पहले मंत्रालय के 'मल्टी सेक्टोरल डेवलपमेंट प्रोग्राम' वाले महकमे में भेज दिया गया था। काफी धक्के खाने के बाद मंत्रालय पहुंचने पर यह जवाब आया। राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग ने मुजफ्फनगर दंगे से सम्बद्ध कार्रवाइयों के बारे में पूछे गए सवाल का जवाब देने के बजाय 10 रुपए के पोस्टल ऑर्डर का मसला उठाया। आयोग ने कहा कि अस्पष्ट तारीख वाले पोस्टल ऑर्डर पर जवाब नहीं भेजा जाएगा। उस पोस्टल ऑर्डर की कॉपी इस संवाददाता के पास है, जो आयोग के सफेद झूठ का सफेद सबूत है।
अब राष्ट्रीय महिला आयोग का हाल भी देखते चलें। महिला आयोग ने जांच दल गठित की और उसे दस दिन के भीतर जांच रिपोर्ट दाखिल करने का निर्देश दिया। यह 18 सितम्बर 2013 का ही आदेश है। 177 दिन हो चुके। फिर जांच रिपोर्ट देने में कोताही क्यों? इसलिए कि दंगों पर उठे सवालों का जवाब देने से वोट नहीं मिलता। जख्म कुरेदते रहने से वोट मिलता है। सपा और कांग्रेस दोनों को इसमें विशेषज्ञता हासिल है...

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