Sunday 16 March 2014

हम अजीबोगरीब तो हैं ही!

प्रभात रंजन दीन
झोली में सिमटी है होली, होली तो बस हवन है अपना
फाग की मस्ती ऐसे भागी, भाग गया जैसे सब सपना
आया कहां बसंत इधर है? तुम्हें हुआ है धोखा!
इधर बचा बस भरम अनोखा, उधर है चोखा-चोखा...
होली का खुमार नेताजी की आंखों पर है। हमारा बुखार हमारे मगज पर है। यह बुखार हमारे शरीर से उतर कर नेताजी के हाथ के जरिए उनकी पूरी जमात तक पहुंचे, यही कामना है। उनका खुमार होली का है। हमारा बुखार भी होली का है। उनके लिए होली ठिठोली है। हमारे लिए होली फटी हुई झोली है। उनकी इसी ठिठोली के वक्त चुनाव का मौसम भी है। वोट मांगना उनके लिए बोली है। वोट देना हमारे लिए गोली है। लोकतंत्र ने हमें यही तो सिखाया था कि वोट का सहेज कर गोली की तरह इस्तेमाल करना। छूटेगी तो वापस लौट कर नहीं आएगी। पांच साल के भ्रम में मत रहना। पांच साल बाद बीता हुआ कोई भी पांच साल वापस नहीं लौटता। पिछले 62 साल से यही गोली 'बैक-फायर' कर रही है। होली तो है, पर इधर जाने कितनी होलियों से रंगों का रिश्ता टूटता सा दिख रहा है और होलिका दहन की आग भीतर चटख-चटख कर दहक रही है। होलिका दहन के बाद नेता जो होली के नाम पर सड़े-सौहार्द की खींसे चमकाते हुए जिस बुझी राख को रौंदता हुआ हमसे आपसे सबसे वोट मांगेगा, उसका भ्रम हर बार की तरह इस बार भी न बना रहे कि बगैर किसी कफन के जले सपनों की राख बुझी हुई ही होती है। जब ऐसा वक्त आएगा कि नेताओं के मुंह पर जले हुए सपनों की राख मली जाएगी, तो उसका ताप तब भी उसका मुंह झुलसाएगा और उसकी खुशबू खुशनुमा-स्वप्न के दाह-कुचक्र की उसे याद दिलाएगी। जब नेता गांवों में वोट मांगने निकले तो बिन जुते खेतों में दफ्न अनाज की लाशें अचानक एक साथ उठ खड़ी हों और जले हुए गन्ने की आत्माएं एक साथ अचानक चीत्कार कर उठें कि नेता राजनीति ही नहीं अपनी नस्ल तक भूल जाए।
है तो बहुत ही अजीब मेरा यह सोचना। लेकिन बहुत ही वाजिब और सटीक है। चूकी यह बहुत ही वाजिब और सटीक है, इसीलिए तो अजीबोगरीब है। ...कि मैं मरे हुए गन्ने की लाशें ढो रहा हूं, कि मैं सियासत के गंदले पैरों से कुचली गई खेतों की मेड़ों को गंगा जल से धोने का जतन कर रहा हूं, कि मैं उन खेतों में नाखून से हल चला कर लोकतंत्र के बीज बोने की कोशिश कर रहा हूं। अजीब तो हूं ही मैं। ...कि मेरी भृकुटियां बगावत करती हैं, कि मेरे नथुने राष्ट्र-समाज को नष्ट करने वाले नेताओं को देख कर फड़कने लगते हैं, कि मेरे पैने नाखून खेत कोड़ना छोड़ कर मुंह नोचने के लिए उद्धत होने लगते हैं। कि पर्व-त्यौहार भी मेरी आंखों के आगे जादू नहीं जगाते, असली और खौफनाक दिखते हैं। कि होली-दीवाली-ईद-बकरीद पर अपनी ही कुर्बानी के खिलाफ मैं आंदोलन के लिए निकल पड़ता हूं। अजीबोगरीब तो हूं ही मैं।
मेरे उपजाए गन्ने से तेरे जीवन में शक्कर की सुरसुराहट हो! मेरे खेत की सब्जियां कौडिय़ों में उखड़ जाएं और तुम्हारी बेशकीमती प्लेटों में वेश्या की तरह सज जाएं! मेरे खेत का अनाज तुम्हारे दलाल-स्टोरेज में बंधक बन जाए और तुम्हारी कमाई और हमारी गंवाई का जरिया बन जाए! हमारी फसलें तुम्हारे पेट में पकें और हमारे पेट लोहार की धधकती भट्ठी की तरह तपें! हमारे पशुओं का दूध तुम्हारी नस्लों को सुधारे और हमारी नस्लें स्वर्ग सिधारे! हम अपनी कसी मुट्ठियों में बंद वोट के बारूद से कब फाड़ेंगे छद्म-लोकतंत्र का फर्जी अंतरिक्ष! कब पूरा होगा अपनी जगती आंखों का सपना, तमाशबीन बन कर होगा कब तक यूं ही सब तकना..?

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