भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु की शहादत को नमन। इसके साथ ही देश के लिए मर मिटे उन तमाम शहीदों के लिए भी श्रद्धा के भाव जो अनाम रह गए। जो आजादी के पहले शहीद हुए और जो आजादी के बाद शहीद हुए, सबके प्रति हार्दिक श्रद्धांजलि अर्पित करते हुए बात शुरू करते हैं कि इन शहादतों के मायने क्या हैं? शहादत दिवसों पर नमन और जयंतियों पर स्मरण क्या शहादत के यही मायने हैं और यही औचित्य है? जो लोग शहीदों की प्रतिमाओं पर फूल चढ़ाते हैं, जो नेता शहीदों के लिए बड़े-बड़े कशीदे पढ़ते हैं, वे ऐसा करते समय अंतरमन में झांकते हैं कि नहीं? खुद क्या करते रहे और वे क्या करके चले गए, इसका फर्क उन्हें समझ में आता है कि नहीं? अगर आता तो वे ऐसा क्यों बनते और अगर नहीं आता तो क्यों करते हैं ये शहादतों की भी मार्केटिंग? और हम क्यों लगा देते हैं मदारियों के चारो तरफ भीड़? शहादत दिवसों के प्रायोजनों को देख कर यह तकलीफ तो होती ही है। जिस बात के लिए भगत सिंह, सुखदेव, राजगुरु फांसी पर लटक गए। जिस बात के लिए चंद्रशेखर आजाद ने खुद को गोली मार ली। जिस बात के लिए ऊधम सिंह ने लंदन जाकर ऊधम काट दी। जिस बात के लिए जाने कितने बेटों ने अपनी कुर्बानी दे दी। उस बात के लिए हम कितने पल देते हैं? ...कि शहादत दिवसों के आयोजनों में जाकर रोते हैं और माला पहना कर मुस्कुरा कर चल देते हैं! देश और समाज के लिए हम अगर कुछ भी सार्थक करें जिसपर हमें खुद पर संतोष हो तो ऐसे प्रायोजनों की जरूरत ही नहीं पड़े! तब हम आत्मविश्वास से शहीदों की आत्माओं को यह कह सकें कि तुम चले गए, हम भी कुछ करके आते हैं। ऐसा सोचा होता तो ऐसा ही किया होता... तब भगत सिंह की आत्मा सुकुन में होती और तथाकथित आजादी के 65 साल यूं ही बेमानी नहीं बीत गए होते। हमने कुछ भी ऐसा नहीं किया, जिस पर देश के लिए शहीद हुई आत्माओं को गौरवबोध हो। हमने देश को गर्त में धकेल दिया। समाज वह नहीं जिसके लिए हम पक्षपात करते हैं, नैतिकता-निष्पक्षता को ताक पर रख कर वोट डालते हैं, रिश्ते गांठते हैं। अपनी जाति और अपने धर्म को समाज कहना तो हम भूले नहीं, व्यापक समाज और व्यापक देशहित के बारे में हम सोच भी कैसे सकते हैं। हम कुएं के मेढक हैं जो अपनी जाति और अपने धर्म से उबरते नहीं, देश को तीसरे या चौथे दर्जे पर या उस स्तर की प्राथमिकता पर भी नहीं रखते। शहादत दिवसों पर ही हम कम से कम यह सोचें कि क्या देश हमारी प्राथमिकता पर है? ईमानदारी से सोचें। लेकिन ईमानदारी से हम सोच नहीं सकते क्योंकि ईमानदार होते तो देश प्राथमिकता पर होता और हम विश्व के धरातल पर अपना सिर ऊंचा कर चल रहे होते। हमारे घरों के वे नौनीहाल जिन्होंने सीमा की रक्षा करते हुए या बेमानी हिंसा से लड़ते हुए अपनी जान दे दी, आज हमारे बीच होते और देश को अपने जिंदा होने का सबूत दे रहे होते। वे शहीद हुए पर हम जिंदा रहते हुए भी मर चुके हैं। हमारा देश घोटालेबाजों, झूठे, लुच्चों और इनके सरगना नेताओं की पहचान से नहीं जाना जाता। हम जगत में लालू यादवों, राजाओं, कनिमोझियों और मायावतियों सरीखी हस्तियों से नहीं जाने जाते। हम मर ही तो चुके हैं कि यह सब बर्दाश्त करते हैं! और अगर जिंदा हैं तो हम अब भी शर्म करें और ऐसा करें कि हमारा देश शहीदों के नाम से और हमारा देश हमारे योगदान के नाम से जाना जाए। लेकिन कहीं ऐसा न हो कि... फुरसत तो मुझे भी थी बहुत देश के लिए
पर पेट भर गया तो मुझे नींद आ गई...
पर पेट भर गया तो मुझे नींद आ गई...
https://www.travelindianwithme.com/2019/06/seven-wonder-park-in-delhi.html
ReplyDeleteNice Bro
Sb aise hi hote agar ap bhi babanoge to ap bhi aisa kroge sb chor hai
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