Wednesday 7 March 2012

प्रतिमा नहीं, प्रतिमान स्थापित करना होगा...

प्रतिमा नहीं, प्रतिमान स्थापित करना होगा... समाजवादी पार्टी की ऐतिहासिक जीत का सेहरा बंधने के बाद जब अखिलेश यादव टीवी पर यह कह रहे थे कि सपा की सरकार कोई प्रतिक्रियात्मक कार्रवाई नहीं करेगी, मूर्तियां नहीं तोड़ेगी... तो अखिलेश से आह्वान का यह संदेश मन में गूंज रहा था। एक आम नागरिक की उम्मीदों और उसके भरोसे से जुड़ा आह्वान। पांच साल तक लखनऊ समेत प्रदेशभर में गली-मोहल्लों और चौराहों के सीने पर जिस तरह पत्थर के दुर्ग और पत्थर की प्रतिमाएं ठोकी गईं, उखाड़ी गईं और फिर ठोकी गईं, वह उसी पल धराशाई हो गईं जब जनादेश ने पूरा सत्ता-साम्राज्य ही उखाड़ फेंकने की मुनादी कर दी। अब प्रतिमाओं को तोडऩे की जरूरत ही क्या है!
2007 में उत्तर प्रदेश के लोगों ने जब बहुजन समाज पार्टी को अपना प्रतिनिधि दल चुना था तो यह सोचा नहीं था कि जन-प्रतिनिधित्व पर पत्थर पड़ जाएगा। पांच साल की जन-यंत्रणा का असर यह हुआ कि 2012 आते-आते बसपा पर ही पत्थर पड़ गया। आजादी के बाद के 65 साल में कभी सत्ता पक्ष में रहते हुए तो कभी विपक्ष में रह कर सत्ता के लिए घिसटते हुए नेताओं के कृत्य देख समझ कर ही हम बड़े हुए और बाद की नस्लें बड़ी हो रही हैं। 65 साल से भ्रष्टाचार, महंगाई, चोरी, झूठ, मक्कारी, अनैतिकता, अपराध हर साल लगता है कि चरम पर है और आने वाले हर साल में यह पुष्ट होता है कि स्खलन-यात्रा जारी है। यह सब हमें भारतीय लोकतांत्रिक राजनीति के निकृष्ट प्रतिउत्पाद के रूप में नेताओं ने गिफ्ट दिया है। यह भारत की लोकतांत्रिक व्यवस्था का अनुभव-जनित वक्तव्य है। अभी प्रसंग उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनाव का है, इसलिए हम देश नहीं प्रदेश की बात करते हैं। इस अर्ध-दशक में सत्ता से आम आदमी को क्या मिला, यह सामने है। पूर्वांचल में हर साल हजारों बच्चे किसी अनजाने रोग से मरते रहे। अनजान इसलिए कि इन मौतों पर रोक कैसे लगे, इस बारे में मुख्यमंत्री से लेकर मंत्री तक अनजान बने रहे और इसलिए शासन प्रशासन ने कोई परिणामात्मक उपाय नहीं किए। अब तक हजारों बच्चे पूर्वांचल में मारे जा चुके हैं। हजारों लोग सूखे बुंदेलखंड में भूखे मर चुके। पूर्वांचल हो या बुंदेलखंड, ये वही इलाके हैं जिसे राजनीति के केंद्र में रख कर बेचा गया और वहां के लोगों को ‘आजाद-प्रदेश’ का सपना देकर दोबारा सत्ता पाने की कोशिश की गई। जिस प्रदेश में साक्षरता दर, विकास दर, नागरिकों की जिंदगी का दर... सब दरिद्र है, जहां छह करोड़ से अधिक लोग गरीबी रेखा के नीचे मरने के लिए जी रहे हैं, जहां महंगाई, गरीबी, बेरोजगारी और भुखमरी के बोझ से आदमी दोहरा हुआ जा रहा हो, वहां तन कर खड़ी पत्थर की मूर्तियां निर्धन आत्मसम्मान को चिढ़ाती ही तो हैं...! प्रदेश को पत्थरों से पाटने में कितने हजार करोड़ रुपए नष्ट हुए, कुछ खास माफियाओं और पूंजी घरानों के हाथों प्रदेश को गिरवी रखने में सरकारी धन का कितना विनाश किया गया, पूरे प्रदेश में अवैध खदानों के जरिए कितना धन हड़पा गया और उन खदानों में कितनी जानें दफ्न कर दी गईं...? मूर्तियां भले ही न तोड़ें अखिलेश जी, स्मारक भले ही आप पर्यटन विभाग को सौंप दें, लेकिन खोखले हुए सरकारी खजाने का जायजा लिया जाएगा कि नहीं? उसका कोई दायित्व तय होगा कि नहीं? पूर्ण बहुमत की ताकत का इस्तेमाल हरियाली नष्ट करने, नदियों का अपहरण करने, पत्थरों से प्रदेश को चुनवा देने और लोकतंत्र को ताक पर रख कर चलने की फासिस्ट बसपाई हरकतों के समानान्तर समाजवादी पार्टी को मिले सम्पूर्ण बहुमत का इस्तेमाल लोकतांत्रिक नैतिकता की बहाली के प्रति पूर्ण समर्पण में होगा कि नहीं? सत्ता संभालने आ रही आपकी समाजवादी पार्टी को इसका जवाब देने के बजाय जवाबदेह होने के बारे में दृढ़ निश्चय करना होगा... अन्यथा, पांच साल बीतते अधिक देर नहीं लगती। प्रतिमाओं के बरक्स प्रतिमान स्थापित करना होगा... इसका दायित्व नई पीढ़ी का है... अखिलेश आपका है। जिस लोकतंत्र का पांच साल गला घोंटा गया और
सिर जूतों से कुचला गया, उसे स्वस्थ बनाने और आत्मसम्मान से जमीन पर खड़ा करने का दायित्व अखिलेश आपका है। जिस सभ्य समाज में नौकरशाह असभ्य और नेता अराजक हो, उसे बाड़े में बांधने और अनुशासित करने की जिम्मेदारी आपकी है। युवकों का साथ समाज बदलने के लिए हो, विकास के लिए हो, महज चुनावी न हो... इसे देखना और संभाल कर रखना तो आप ही को है। ...ताकि धूमिल की तरह कोई यह न कहे कि ‘मेरे देश का समाजवाद मालगोदाम में लटकती हुई उन बाल्टियों की तरह है जिस पर लिखा तो ‘आग’ है, पर उनमें बालू और पानी भरा है!’ ...बल्कि दुष्यंत की तरह सूरत बदलने का मकसद चाहिए... आग हो चाहे कहीं भी, आग जलनी चाहिए...

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