Sunday 3 November 2013

कब मनाएंगे हम भारतवर्ष का मुक्ति-पर्व!

इस दीपावली में उतारें सोनिया माता राहुल भ्राता और मनमोहन दाता की आरती
प्रभात रंजन दीन

दीवाली पर क्या लिखें और क्या मनाएं! समाज का, देश का जो हाल है, उसमें पर्व-त्यौहार अपना प्रसंग खो चुके हैं। दीवाली मुक्ति पर्व के रूप में समझी और मनाई जाती थी। राम ने पाप-संकेत रावण से मुक्ति दिलाई तो देश दीपों से सज गया था। भारतवर्ष एक लम्बे समय से मुगलों और अंग्रेजों का हवस-केंद्र बना रहा और अब वह मुगलों-अंग्रेजों की मिश्रित संतानों के पाप में फंसा है। भारतवर्ष का मुक्ति-पर्व कब मनेगा, कब होगी उसकी दीवाली / कब चमकेगी देश-ललाट पर ताजे कुमकुम की लाली! यह सवाल खास तौर पर इन छियासठ वर्षों में रावण से अधिक शैतान नजर आने लगा है। अपनी तथाकथित आजादी के इन छियासठ साल को ही सामने रखें और इन तकरीबन सात दशकों के सत्ता-सरोकारों का जायजा लें तो हमें दिखाई पड़ेगा रौशनी का अंधकार से समझौता करने का बदनुमा दृश्य। तभी तो लिखा गया, 'वक्तआने पर मिला लें हाथ जो अंधियार से, सम्बन्ध कुछ उनका नहीं है सूर्य के परिवार से!' वाकई अभी एक सदी भी नहीं गुजरी और जिंदगी इतनी बेमानी हो गई कि पूरी पीढ़ी को अपनी आजादी जहर की तरह लगने लगी। देश का यह मामला है, घोर काली रात है / कौन जिम्मेवार है, यह सभी को ज्ञात है। भारतवर्ष नेताओं नौकरशाहों दलालों और पूंजी-जीवों का देश होकर रह गया है और रंग-बिरंगे त्यौहारों के इस देश में केवल चुनाव ही एकमात्र उत्सव में तब्दील हो गया है। अब नेता ही गणेश है और नेता ही लक्ष्मी। अब नेता-गणेश केवल अपने लिए शुभ करता है और नेता-लक्ष्मी केवल अपने लिए धन बरसाती है। इन्हें अब आम नागरिकों से क्या लेना-देना! बस सच यही है कि खादी ने मलमल से साठगांठ कर डाली है / टाटा-बिड़लों, नेता-दल्लों की तीसों दिन दीवाली है। अब बहस या चिंता नेताओं की चोरी नहीं। चोरी के कारण आम आदमी पर थोपी गई महंगाई बहस या चिंता का मसला नहीं। देश की सुरक्षा को बाहरी दुश्मनों और घर के भितरघातियों से खतरा बहस और चिंता का मुद्दा नहीं। अब तो बहस केवल धर्मनिरपेक्षता की है। अब तो चिंता केवल धर्मनिरपेक्षता की है। नेताओं का यह छद्म देश-समाज पर आरोपित है। धर्मनिरपेक्षता की नेताऊ-परिभाषा आजादी के बाद से ही देश पर छींट दी गई। यह ऐसे ही है कि, 'धोती बांधने के आग्रह पर केरल के मंदिर में नेहरू जी का आग बबूला हो जाना और निजामुद्दीन की दरगाह पर बड़ी प्रसन्नता से टोपी लगा कर जाना, इसी का नाम है धर्मनिरपेक्षता निभाना...' नेताओं की इसी धोखेबाज-धर्मनिरपेक्षता के कारण लोगों का पर्व-त्यौहार तो छोडि़ए, पूरा जीवन ही कुचक्र में फंस गया है। आप न कुछ खरीद सकते हैं। न आप धार्मिकता का सात्विक उल्लास सार्वजनिक तरीके से अभिव्यक्त कर सकते हैं। आप मूर्तियों का विसर्जन भी पुलिस के घेरे में करने लगे। आप गिरोहबंद हों तो सब कुछ कर सकते हैं। सड़क घेर कर धार्मिकता का भौंडा प्रदर्शन कर सकते हैं। क्योंकि तब आप धर्मनिरपेक्षता की नेताऊ-परिभाषा को संतुष्टि देते हैं। आप दुर्गा पूजा मनाएं तो मरें। आम मोहर्रम मनाएं तो मरें। लेकिन हम सोचते नहीं कि यह कैसी धर्मनिरपेक्षता हम अपने देश में पाल-पोस रहे हैं! दीपावली के मौके पर काफी पुराना एक फिल्मी भजन याद आता है। उस दौरान खूब चला था, 'मैं तो आरती उतारूं रे, संतोषी माता की।' उस समय से इस समय के बीच एक शब्द तेजी से बदल गया, संतोषी माता की जगह 'सोनिया माता' आ गईं। तब का भजन-गायन आज के भांड गायन में रूपान्तरित हो गया। देश का एक दशक जो बर्बाद हुआ, उसने हमें कहीं का नहीं छोड़ा। इन दस वर्षों को हम खास तौर पर रेखांकित कर सकते हैं, क्योंकि इस दरम्यान सत्ताई भ्रष्टाचार और भांड गायन के प्रायोजित आयोजनों ने सारे प्रतिमान ध्वस्त कर डाले। अनैतिकता और झूठ-लफ्फाजी ने नए सिरे से भारतवर्ष की अंतरराष्ट्रीय छवि बनाई। इसी अवधि में काला धन पूरी सियासत का मुंह काला कर गया। इस दरम्यान राज-सत्ता खीसें निपोरती रही और सत्ता-नेपथ्य कठपुतलियां नचाता रहा और पगडिय़ां उछालता रहा। इसी काल में पौरुष हाशिए पर जाता रहा और नपुंसकता  मुख्यधारा में छाई रही। तो ऐसे नायाब समय में आई इस दीपावली में हम सोनिया माता, राहुल भ्राता और मनमोहन दाता की आरती उतारें, जिन्होंने भारत देश को इतना कुछ दिया। ...कि चोरों-बटमारों का चेहरा खिल गया और हमारा अस्तित्व हिल गया। इतना कि उनकी दीवाली उजास और हमारी दीवाली में कोठरी के कोने में जल रही मोमबत्ती उदास...

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