प्रभात
रंजन दीन
एक
सर्वेक्षण आया था कुछ अरसा पहले। बड़ा रोचक सर्वेक्षण था। उसमें बताया गया था कि
32 फीसदी लोग दफ्तरों से 'बंक' मारने के लिए झूठ बोलते हैं। इस सर्वे से यह उम्मीद बढ़ी
कि चलो कम से कम 68 प्रतिशत लोग तो ऐसा आचरण नहीं करते। लेकिन यह उम्मीद अधिक दिन तक
उम्मीद बंधाए नहीं रह सकी। कुछ ही दिन में उस सर्वे के प्रसंग में यह खबर आई कि उस
सर्वेक्षण की समीक्षा रिपोर्ट में 32 फीसदी वाला तथ्य गलती से 68 फीसदी वाले खाने में
लिख गया था। यानी सर्वेक्षण का सच यह था कि 68 प्रतिशत लोग अपने-अपने कार्यालयों में
झूठ बोलते हैं और 32 फीसदी लोग ईमानदारी से अपना कर्म करते हैं और बेमतल का झूठ नहीं
बोलते। यह कुछ वर्ष पहले की बात है। यानी हर बात-बेबात झूठ बोलने वाले लोगों का प्रतिशत
इतने दिन में निश्चित तौर पर 75 फीसदी के करीब पहुंच गया होगा। आप भी कहेंगे कि सम्पादकीय
में यह कैसा राग ले बैठे। किसी खबर की समीक्षा नहीं। किसी खबर पर विचार नहीं। खबर की
समीक्षा और खबर पर विचार तो हम आप रोज पढ़ते हैं। लेकिन हम-आप जो रोजाना झूठ गढ़ते
हैं, झूठ बोलते हैं, झूठ परोसते हैं, उसे हम क्यों नहीं पढ़ते! केवल नेता
ही झूठ थोड़े ही बोलते हैं! हम झूठे तो खबरें भी झूठी, विचार
भी झूठे, सरोकार भी झूठे, सारे सम्बन्ध
भी झूठे। तो इस झूठ पर ही क्यों नहीं हम एक दिन विचार करें! सच की तरह स्थापित होते
जा रहे झूठ के साम्राज्य पर हम एक दिन तो नजर डालें, विचार करें।
समाज की जो दिशा है, उसमें वह बात बेमानी हो गई है कि खुद को
या किसी अन्य को खतरे से बचाने के लिए ही झूठ बोलें। अब तो झूठ बोलना समाज का स्वभाव
ही हो गया है। किसी भी विषय पर झूठ बोला जा रहा है। जिस जगह साफगोई से काम चल जाए वहां
भी झूठ। अभी हम लोगों ने महात्मा गांधी की जयंती पर 'कैनविज टाइम्स' के साप्ताहिक वाले हिस्से में आमुख कथा बनाई थी जिसका
शीर्षक ही था 'असत्यमेव जयते'। जिस युग में सत्य कठघरे में खड़ा हो और खुद को सच साबित
करने की जद्दोजहद करता हो और झूठ बहुमत में हो, उसका वर्चस्व स्थापित हो, उस युग के लिए तो कहा ही जाएगा
न 'असत्यमेव जयते'। भारतीय समाज की भी इसमें क्या गलती है! इस देश को चलाने
वालों ने ही झूठ और फरेब को नीति बनाई और 66 साल में नस्लों की नसों में झूठ का संस्कार
पिरो दिया। बचपन में गीत सुनता था,
'सजन रे झूठ मत बोलो, खुदा के पास जाना है'... इसी गीत में एक और पंक्ति आती थी, 'भला कीजै भला होगा, बुरा कीजै बुरा होगा...। ' बाद में जाना कि यह गीत शैलेंद्र ने लिखा था और फिल्म 'तीसरी कसम' में राजकपूर के लिए गायक मुकेश ने गाया था। ...और बाद
में यह भी जाना कि अब तो कोई भी कसम खिला लो, झूठ तो बोलेंगे ही। अब शैलेंद्र का जमाना तो है नहीं और न उस गीत को जीवन का
गीत बना कर चलने वाले लोगों लिए ही यह जमाना रह गया है। अब जमाना बदल गया है,
अब लोग बदल गए हैं, अब शब्द बदल गए हैं,
अब अर्थ बदल गए हैं। तब जो सीधा लगता था, आज वह
उल्टा हो गया है। अब तो साफ-साफ दिखता है कि तब, तब था। अब,
अब है। तब सच और संकोच। अब झूठ और बेहयाई। तब सच का बोलबाला और झूठ का
मुंह काला का जमाना था। अब तो झूठ की सत्ता, झूठ का जोर और सच
का मुंह काला, सच हो गया मुंहचोर। सारे धर्मग्रंथों में लिखा
है कि जब तक जान जाने का खतरा न हो, तब तक झूठ नहीं बोलना चाहिए!
लेकिन इसे यह युग स्वीकार करने के लिए कतई तैयार नहीं। अब नई दुनिया नया धर्मशास्त्र
गढऩे में लगी है, जिसका आधार वाक्य है, 'सच तभी बोलो, जब जान जाती हो'। अब तो नवगढ़ंत धर्मशास्त्रों में लिखा जा रहा है, 'झूठ बराबर तप नहीं, सांच बराबर पाप। जाके हिरदय झूठ है, ताके हिरदय आप।' सजन को खुदा से मतलब नहीं, सजन का झूठ से है रिश्ता। अब भला करने
से बुरा होता है और बुरा करने वालों की मौज ही मौज। ...तब लगता था कि आईने तो कम से
कम सच दिखाते हैं। लेकिन अब तो दर्पण भी झूठ का ही प्रतिबिंब है। वाकई, ...मुझे शिकायत है इन आईनों से / झूठ दिखाता है ये आईना / हर तरफ है झूठ पर झूठ
/ बदनुमा झूठ / पर हर वक्त सुंदर दिखाता है ये आईना / अब झूठ पर कोई लगाम नहीं / अब
सच का कोई मुकाम नहीं...
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