Monday 7 October 2013

राहुल गांधी हैं कि चुलबुल पांडे हैं!


प्रभात रंजन दीन
दिल्ली के प्रेस क्लब में शुक्रवार को एक शूटिंग हो रही थी, उसमें कैमरे के सामने अचानक एक अभिनेता की इंट्री का सीन आता है, डायलॉग मारता है और एक्जिट कर जाता है। इसमें रॉल... ऐक्शन... कट... रीटेक... जैसी कोई आवाज नहीं आती और फिल्म पर्दे पर दिखाई जाने लगती है। यह बॉलीवुड की फिल्म नहीं थी। यह पॉलीवुड की फिल्म थी। पॉलीवुड की फिल्म शूटिंग के पहले ही सेंसर बोर्ड से पास हो जाती है, तब उसकी शूटिंग होती है और शूटिंग होते ही उसका 'ग्रैंड गाला रिप्रेजेंटेशन' भी हो जाता है। जिस तरह नसीर हुसैन या ओमप्रकाश को देख कर लोग कभी सिनेमा हॉल में सुबकने लगते थे, जिस तरह ललिता पवार या नादिरा को देख कर लोग कुढ़ने लगते थे, जिस तरह राजेश खन्ना या देवानंद को देख कर श्रृंगार भाव जाग उठता था, जिस तरह धर्मेंद्र या अमिताभ बच्चन को देख कर लोगों की मांसपेशियां फड़कने लगती थीं, ...ठीक उसी तरह पॉलीवुड की फिल्म देख कर मीडिया, विश्लेषक, नागरिक, राजनीतिक सब भावुक होने लगे, फड़कने और धड़कने लगे। सबके समीक्षा के भाव पर सिनेमा हॉल के अंदर छाए घुप्प अंधेरे की तरह का अंधकार छा गया। लोग पॉलीवुड की इस फिल्म में ऐसे 'इन्वॉल्व' हो गए कि जैसे ऐसा कुछ सच में हुआ हो। यह 'हिप्नॉटिक फिल्म' की तरह का प्रायोजित मंचन था, इसका नशा कह लें या मतिभ्रम, अब तक छाया हुआ है। ...लेकिन अब आप बाहर आ जाएं और असलियत के कटु-संसार में लौटें। आपराधिक पृष्ठभूमि के नेताओं को चुनाव लड़ने से रोकने वाले सुप्रीम कोर्ट के फैसले से कांग्रेस कुछ अधिक ही मर्माहत थी। सर्वोच्च अदालत के फैसले को ताक पर रखने की ताक में लगे कांग्रेसी आपस में गहरी मंत्रणा करते रहे और मानसून सत्र समाप्त होने के बाद तत्काल एक अध्यादेश ले आए। राष्ट्रपति अगर इसे मंजूर कर लेते तो यह अध्यादेश अगले सत्र तक के लिए लागू हो जाता। राशिद मसूद और लालू यादव जैसे कई नेता बच जाते और इतने में चुनाव करा लेते, फिर संसद से पास कराने की अनिवार्यता आगे देख ली जाती। इस बीच अध्यादेश को लेकर कोई ललिता पवार सामने नहीं आईं, न कोई नसीर हुसैन आए और न कोई अमिताभ बच्चन। जब राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ने अध्यादेश को लेकर तीन वरिष्ठ मंत्रियों को हांक लगाई और अपनी तल्खी जताई तो अगली शूटिंग का प्लॉट तय होने लगा। पहली शूटिंग में एंग्री यंग मैन की भूमिका के लिए बच्चा मिलिंद देवड़ा चुना गया, लेकिन ट्रेलर ही फ्लॉप कर गया। इसके बाद तो समय भी नहीं था, लिहाजा 'दबंग' की तर्ज पर राहुल गांधी की इंट्री तय की गई। इसके लिए अजय माकन को साइड रोल दिया गया और प्रेस क्लब में शूटिंग का सेट लगा दिया गया। अजय माकन की डायलॉग डिलिवरी चल रही थी कि धमाके से चुलबुल पांडे की इंट्री हुई। धड़धड़ा कर डायलॉग चला और पांडे जी की किरदारी निभा कर राहुल गांधी पतली गली से निकल लिए। अपने ही किए को लीपने की पेशबंदी में शायद पॉलीवुड में ऐसी फिल्म पहली ही बार बनी होगी। ...और मीडिया तो पतंग ले उडऩे में माहिर है। राहुल की पतंग उडऩे लगी। किसी ने फाड़ डाला रे... किसी ने मार डाला रे... की तरह खबरें तानीं और छापीं और दिखाईं। जनता को जिस तरह राहुल पैदल मानते हैं, वैसा ही मीडिया भी मानता है। जनता के प्रति लोकतंत्र के चारों स्तम्भों की एक ही राय है... सब मिलकर इसी को बनाते हैं। उसी जनता में से किसी की टिप्पणी थी कि जिसने भी इस पॉली-फिल्म की स्क्रिप्ट लिखी थी, उसने भारत के लोगों की बुद्धिमता का स्तर बहुत ही नीचे वाला आंका था। इसीलिए लगता है कि इतनी घटिया स्क्रिप्ट या तो दिग्गी बुरकावाला लिख सकता है या फिर मनीष टपोरी! आप समझ ही सकते हैं कि दिग्गी बुरकावाला और मनीष टपोरी किसके लिए कहा गया होगा। इसे भले ही दिग्विजय सिंह या मनीष तिवारी न समझें।
...आप यह देखें और चिंता करें कि हमारा देश किस दौर से गुजर रहा है। कितना बचकानापन और फूहड़पन आ गया है हमारे देश की राजनीति में। इसका चारित्रिक असर शासन पर, प्रशासन पर, अदालतों पर, मीडिया पर आएगा ही और इसका घातक परिणामकारी असर आखिरकार जनता को झेलना होगा। जो व्यक्ति देश का प्रधानमंत्री बनने का ख्बाब देख रहा हो। जो चौकड़ी प्रधानमंत्री के भावी सिपहसालार बनने का सपना बुन रही हो, उनका मनोविज्ञान 'फटा पोस्टर निकला हीरो'... टाइप के बाल-चमत्कार की फंतासी से भरा हो तो आप और क्या उम्मीद कर सकते हैं? ऐसे लोगों से आप फाड़ डाला... मार डाला जैसे फूहड़ ऐक्शन नहीं पाएंगे तो क्या आप गम्भीर विचार और आचरण पाएंगे? पाकिस्तान की सेना घुस कर भारतीय सैनिकों के सिर काट डाले, गोलियों से भून डाले, आतंकी वेश में विध्वंस फैलाए... तब आप इनसे फाड़ डालो-मार डालो का डायलॉग नहीं सुनेंगे। क्योंकि सीमा पर लफ्फा-शूटिंग से तो काम चलेगा नहीं। वहां पक्का-शूटिंग और असली ऐक्शन से मामला निपटता है। अध्यादेश पर समय पर नहीं, बाद में बड़ी-बड़ी बोलियां निकालने वाले राहुल तब कहां थे जब जीजाजी घोटाला कर रहे थे? चलिए जीजाजी छोडि़ए... टूजी, सीडब्लूजी, हेलीजी और कोलजी हो रहा था तब राहुल जी कहां थे?
हर तरफ हर जगह सच की सुरक्षा और ईमान की हिफाजत पर कोई न कोई नेता बोलता है। हर तरफ हर जगह देश की सुरक्षा और खुशहाली पर कोई न कोई नेता बोलता है। हर तरफ हर जगह कानून व्यवस्था और न्याय की बहाली पर कोई न कोई नेता बोलता है। अद्भुत होगा वह दिन जब नेता बोलेगा तो जनता रौंदेगी। अद्भुत होगा वह दिन जब हम मोमबत्तियां जला कर अपनी हीनता नहीं जताएंगे। अद्भुत होगा वह दिन जब सत्ता-पूंजी की मनोरोगी संतानें वर्तमान को बींधती हुई भविष्य को क्षत-विक्षत करने का षडयंत्र नहीं कर पाएंगी। अद्भुत होगा वह समय जब हम मौकानुकूलित सामाजिक परिवेश से खुद को अलग कर लेंगे और सत्तानुकूलित दुर्बुद्धिजीवी विद्वत्ता से देश को मुक्त करा देंगे। उनका मकसद है अपनी आवाज को उछालना हमारी आवाज को दबाना। उनका मकसद है अपने कुकृत्यों से हमें झुलसाना और हमारी अग्नि को बुझाना। उनका मकसद है अपने को सुवासित रखना और हमारे हिस्से की सुगंध को कैद में रखना। हमारा लक्ष्य है अपनी आवाज बुलंद करना। हमारा लक्ष्य है अपनी अग्नि को जिंदा रखना और हवा देना। हमारा लक्ष्य है अपने हिस्से के सुगंध को और पसार देना। हमारा लक्ष्य है भगत सिंह जैसे देशभक्तों की आत्मा को प्रत्येक हृदय में विस्तार देना। 28 सितम्बर शहीद भगत सिंह की जन्मतिथि है। उनके प्रति हार्दिक श्रद्धा के साथ...

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