Sunday 8 December 2013

गन्ना जल रहा है, खेतिहर मर रहा है


प्रभात रंजन दीन
चीनी मिल मालिकों के हित सर्वोपरि हैं। गन्ना किसानों की जिंदगी के कोई मायने नहीं। किसान मरता है तो सरकार कहती है कि घरेलू कलह से मर गया। जबकि पूरा देश नेताओं के कलह और तिकड़म से आक्रांत है। किसानों की जो उपेक्षा करेगा उसे प्रकृति अभिशाप देगी। फिर वह देखेगा कि देश को लूट कर, लोगों को धोखा देकर और किसानों की लाशों पर कमाया हुआ धन उसकी कितनी हिफाजत कर पाता है। उत्तर प्रदेश में किसानों की स्थिति भयावह है। गन्ना किसानों को मरने के लिए विवश कर रही है पूंजी-सरकार और सियासी-सरकार।
किसानों को तबाह कर उनकी जमीनें 'कारपोरेट फार्मिंग के लिए बड़े औद्योगिक घरानों को देने की साजिशें चल रही हैं। इसीलिए 'माल किसी और का, दाम किसी और का' के गैर-कानूनी, गैर-नैतिक और गैर-नैसर्गिक तौर-तरीके से किसानों को मारा जा रहा है। फसलें तैयार करने में लागत चाहे जो आए, उसकी कीमत सरकार तय करेगी पर उसकी डोर किसी और के हाथों से संचालित होगी। गेहूं, धान और गन्ना ही नहीं सब्जियों तक के दाम में किसानों की मौत सुनिश्चित की जा रही है। अभी हम गन्ने की बात करें। गन्ना मौजू है। गन्ने का बकाया करोड़ों रुपए का है। किसान कर्ज और ब्याज के बोझ से दबा आत्महत्याएं कर रहा है, लेकिन इन आत्महत्याओं के लिए दोषी कौन है? इस पर उत्तर प्रदेश सरकार मौन है। किसी भी सत्ता के लिए कितनी लानत की बात है कि दिसम्बर महीने तक खेतों में गन्ने की फसलें खड़ी हैं और बरबाद हो रही फसलें देख कर किसान आत्महत्या कर ले रहा है! किसानों के हित की सरकार होती तो अब तक चीनी मिल मालिकों को गिरफ्तार कर अंदर कर दिया होता। कारपोरेट हित के लिए अंदर ही अंदर सारे खेल चलते रहे, आपसी समझ-बूझ बनती रही, समझौते होते रहे, डील होती रही। और बाहर लोकतंत्र सड़क पर जूझता रहा और फंदे लगा कर झूलता रहा।चीनी मिलों के मालिक गन्ना किसानों का इस साल का भी 25 सौ करोड़ रुपए का बकाया हड़पना चाहते हैं। इसीलिए आपने देखा होगा कि इधर गन्ना किसानों का आंदोलन गरमाया तो मिल मालिकों ने अपना एक 'सिंडिकेट' बना लिया। इसे बोलचाल की भाषा में 'गिरोह' भी कह सकते हैं। इनकी शातिराना तैयारी देखिए कि प्रत्येक पेराई सत्र में चीनी मिलों की तरफ से राज्य सरकार के पास जो 'इन्डेंट' भेजा जाता है, वह इस बार भेजा ही नहीं गया। किस चीनी मिल को कितना गन्ना चाहिए उसका आकलन सरकार के पास आने के बाद ही गन्ना क्षेत्र का रिजर्वेशन निर्धारित किया जाता है। तो चीनी मिलों ने 'इन्डेंट' भेजा ही नहीं। सरकार ने पूछा भी नहीं कि 'इन्डेंट' क्यों नहीं भेजा। ...और बिना 'इन्डेंट' मिले ही सरकार ने चीनी मिलों को गन्ना क्षेत्रों का आवंटन भी कर डाला। जरूरत का पता ही नहीं आपूर्ति की पूरी व्यवस्था हो गई। यह पूंजी-शक्ति की महिमा है।सरकार ने किसानों और चीनी मिल मालिकों की कड़ी के बतौर काम करने वाली गन्ना समितियों को पहले रास्ते से हटाया। ये समितियां ही मिल मालिकों और सरकार को चैन नहीं लेने दे रही थीं। अभी सरकार ने फैसला किया है कि गन्ना समितियों को साढ़े छह रुपए प्रति क्विंटल की दर से मिलने वाला अंश सरकार देगी। पहले यह कमीशन चीनी मिल मालिकों की तरफ से दिया जाता था। नए फैसले के बाद अब समितियों को यह पैसा न सरकार से मिलने वाला है और न चीनी मिलों से। क्योंकि गन्ना खरीद कानून में इसका कोई प्रावधान ही नहीं है। गन्ना समितियों का प्रभाव खत्म। अब किसान अपने बकाए के भुगतान के लिए चीनी मिल मालिकों से सीधे बात करे। बीच में अब गन्ना समिति नहीं होगी। जब किसानों के लिए लडऩे वाली ताकतवर समितियों को भुगतान लेने में पसीने छूटते रहे तो अब अकेले पड़े किसान क्या कर पाएंगे, इस बारे में कल्पना कर लें। इस तरह सरकार और चीनी मिल मालिकों ने मिल कर किसानों और मिलों के बीच दलालों और माफियाओं की व्यवस्था का रास्ता बना दिया। गेहूं और धान की खरीद में बिचौलिए, तो गन्ना खरीद में क्यों नहीं! अब गन्ना खरीद में भी दलाली और तौल में भी माफियागीरी। चीनी मिल मालिक उधर से भी खुश और इधर से भी प्रसन्न। 889 करोड़ का पैकेज भी मिल गया। क्रय कर भी माफ हो गया। तौल कर साफ हो गया। चीनी का टैक्स खत्म और गन्ना समितियों के कमीशन का सिरदर्द भी समाप्त। अब किसानों की तबाही का सरकारी फार्मूला देखिए... गन्ने की कीमत 280 रुपए प्रति क्विंटल तय। लेकिन शर्त है कि 'ए' ग्रेड का गन्ना हो। इसे चीनी मिल प्रबंधन ही तय करेगा। लिहाजा किसानों की अधिकांश फसलों का'बी' और 'सी' ग्रेड घोषित होना निश्चित मानिए। 'बी' ग्रेड का मूल्य है 275 रुपए प्रति क्विंटल। लेकिन इसमें से 20 रुपए प्रति क्विंटल के हिसाब से काट लिया जाएगा। मिल मालिकों का कहना है कि पेराई सत्र खत्म होने के बाद इसका भुगतान होगा। नौ रुपए प्रति क्विंटल की दर से गन्ना ढुलाई के लिए काट लिया जाएगा। यानी किसानों के हाथ तक पहुंचेगा महज 246 रुपया। इसी 246 रुपए में उसकी लागत, उसका कर्जा, उसका भोजन और उसका खर्चा सब चलेगा। सरकार के फार्म हाउसों की रिपोर्ट कहती है कि एक क्विंटल गन्ना पैदा करने की लागत न्यूनतम 280 रुपए होती है। तो किसानों को क्या मिला? तो किसानों को सरकार ने क्या दिया और चीनी मिल मालिकों ने क्या दिया? जवाब है... आत्महत्या का रास्ता या खेत छोड़ कर पंजाब और महाराष्ट्र या गुजरात भाग कर मजदूरी कर पेट पालने की विवशता। इसके बाद खेतों को कारपोरेट फार्मिंग में बदलने में आसानी होगी। ये स्पेशल इकोनॉमिक जोन (एसईजेड), स्पेशल डेवलपमेंट जोन (एसडीजेड) और कारपोरेट फार्मिंग वगैरह आम लोगों के कितने हित और खास लोगों के कितने हित के हैं, इसे समझने के लिए कोई अतिरिक्त बुद्धि की जरूरत थोड़े ही है।किसानों को राजनीतिक दलों ने बड़े शातिराना तरीके से मारा है। थोड़ा पृष्ठभूमि में झांकते चलें। कभी उत्तर प्रदेश में गन्ना किसान खुशहाल थे। गन्ने की फसल और चीनी मिलों से प्रदेश के गन्ना बेल्ट में कई अन्य उद्योग धंधे भी फल-फूल रहे थे। चीनी मिलों और किसानों के बीच गन्ना विकास समितियां (केन यूनियन) किसानों के भुगतान से लेकर खाद, ऋण, सिंचाई के साधनों, कीटनाशकों के साथ-साथ सड़क, पुल, पुलिया, स्कूल और औषधालय तक की व्यवस्था करती थीं। गन्ने की राजनीति करके नेता तो कई बन गए लेकिन उन्हीं नेताओं ने गन्ना किसानों को बर्बाद भी कर दिया। नतीजतन गन्ना क्षेत्र से लोगों का भयंकर पलायन शुरू हुआ और उन्हें महाराष्ट्र और पंजाब में अपमानित होते हुए भी पेट भरने के लिए रुकना पड़ा। उत्तर प्रदेश में 125 चीनी मिलें थीं, जिनमें 63 मिलें केवल पूर्वी उत्तर प्रदेश में थीं। इनमें से अधिकतर चीनी मिलें बेच डाली गई और कुछ को छोड़ कर सभी मिलें बंद हो गईं। सरकार ने चीनी मिलें बेच कर भी पूंजीपतियों को ही फायदा पहुंचाया। चीनी मिलों के परिसर की जमीनें पूंजी-घरानों को कौडिय़ों के भाव बेच डाली गईं, जिस पर अब महंगी कॉलोनियां बन रही हैं। चीनी मिलों को किसानों ने गन्ना समितियों के जरिए अपनी जमीनें लीज़ पर दी थीं। लेकिन उन किसानों के मालिकाना हक की चिंता किए बगैर अवैध तरीके से उन जमीनों को बेच डाला गया। 1989 के बाद से प्रदेश में नकदी फसल का कोई विकल्प नहीं खड़ा किया गया। गन्ना ही किसानों का अस्तित्व बचाने की एकमात्र नकदी फसल थी। चीनी मिलों के खेल में केवल समाजवादी पार्टी ही शामिल नहीं, अन्य दल भी जब सत्ता में आए तो खूब हाथ धोया। भाजपा की सरकार ने हरिशंकर तिवारी की कम्पनी 'गंगोत्री इंटरप्राइजेज' को चार मिलें बेची थीं। 'गंगोत्री इंटरप्राइजेज' ने इन्हें चलाने के बजाए मशीनों को कबाड़ में बेच कर ढांचा सरकार के सुपुर्द कर दिया। फिर समाजवादी पार्टी की सरकार ने प्रदेश की 23 चीनी मिलें अनिल अम्बानी को बेचने का प्रस्ताव रखा। लेकिन तब अम्बानी पर चीनी मिलें चलाने के लिए दबाव था। सपा सरकार ने उन चीनी मिलों को 25-25 करोड़ रुपए देकर उन्हें चलवाया भी, लेकिन मात्र 15 दिन चल कर वे फिर से बंद हो गईं। तब तक चुनाव आ गया और फिर बसपा की सरकार आ गई। मुख्यमंत्री बनी मायावती ने सपा कार्यकाल के उसी प्रस्ताव को उठाया और चीनी मिलों को औने-पौने दाम में बेचना शुरू कर दिया। मायावती ने पौंटी चड्ढा की कम्पनी और आईबीएन कम्पनी के हाथों 14 चीनी मिलें बेच डालीं। देवरिया की भटनी चीनी मिल महज पौने पांच करोड़ में बेच दी गई। जबकि वह 172 करोड़ की थी। कैग ने इसका पर्दाफाश भी किया। इसके अलावा देवरिया चीनी मिल 13 करोड़ में और बैतालपुर चीनी मिल 11 करोड़ में बेच डाली गई। अब उन्हीं मिलों की जमीनों को प्लॉटिंग कर महंगी कॉलोनी के रूप में विकसित किया जा रहा है। पहले की व्यवस्था में प्रदेश के किसान गन्ना की फसलें गन्ना समितियों को बेचते थे और समितियां उसे चीनी मिलों को बेचती थी। किसानों को पैसे भी समितियों के जरिए ही मिलते थे। लेकिन किसानों के खाते में सीधे पैसे डालने की व्यवस्था लागू कर तत्कालीन मुख्यमंत्री कल्याण सिंह ने केन यूनियनों को पंगु करने की शुरुआत कर दी थी। बाद की सपा और बसपा फिर सपा की सरकारों ने उद्योगपतियों को फायदा पहुंचाने के लिए किसानों का बंटाधार ही कर दिया। 'मरते जवान-मरते किसान' के देश में हम फिजूल ही 'जय' का नारा लगाते हैं।सुलग रहा गन्नाखेतों में गन्ना खड़ा है। खेतों में जल रहा है। चीनी मिलें चालू होने में तमाम मुश्किलें और नखरे हैं। मिलों पर किसानों का तकरीबन हजारों करोड़ रुपए बकाया हैं। बावजूद इसके चीनी मिलें सीनाजोरी पर उतारू हैं। मिल मालिक चाहते हैं गन्ने के दाम कम हों, जबकि किसान दाम में बढ़ोतरी चाहते हैं। ऐसे में नई चीनी तैयार होने की राह में बाधाएं आ रही हैं। प्याज के बाद अब अगला झटका चीनी देने वाली है।मुजफ्फरनगर के दंगों से अपना दामन तार-तार करवा चुकी प्रदेश की सपा सरकार के लिए एक और जंग का मैदान तैयार है। इस जंग के भी हाल के दंगों की तरह खेत-खलिहानों से होकर गुजरने का अंदेशा है। दरअसल, प्रदेश के खेतों में गन्ने की फसल तैयार खड़ी है और चीनी मिलों के चालू होने का अभी कोई ओर-छोर दिखाई नहीं पड़ रहा। आम तौर पर दशहरे तक प्रदेश की सभी गन्ना मिलों में पेराई का काम शुरू हो जाता है। मगर इस बार यही मुश्किल से तय हो पाया कि किस मिल को कितना गन्ना चाहिए और उसके लिए कौन से क्षेत्र के खेत आरक्षित होंगे? किसानों की मांग है कि गन्ने के दाम में इजाफा किया जाए जबकि चीनी मिलें घाटे का हवाला देकर गन्ने के दाम में चालीस रुपए प्रति क्विंटल की कमी चाहती हैं। किसानों के सामने समस्या यह भी है कि पिछले पेराई सत्र का ही लगभग 24 सौ करोड़ रुपया चीनी मिलों पर बकाया है जिसे देने का मिल संचालक नाम ही नहीं ले रहे। 1977 की स्थिति फिर से सामने है जब बड़े पैमाने पर किसानों को गन्ना जलाना पड़ा था। उत्तर प्रदेश का ताकतवर गन्ना किसान समुदाय नाराज है और इसका असर लोकसभा चुनावों पर पड़ सकता है। चीनी मिलों के मालिक अपने घाटे का दुखड़ा रोकर सरकार को पटाने की कोशिश करते रहे। लेकिन सरकार कुछ दूसरे उपकारों से पटती है, यह उन्हें थोड़ा बाद में पता चला। एक तरफ उत्तर प्रदेश सरकार है जहां किसानों को 280 रुपए प्रति क्विंटल प्राप्त करने के भी लाले पड़ रहे हैं। दूसरी तरफ हरियाणा की सरकार ने पिछले आठ साल कई बार गन्ना मूल्य बढ़ाए। हरियाणा में गन्ना किसानों का एक रुपया भी चीनी मिलों पर बकाया नहीं है। मगर उत्तर प्रदेश में हजारों करोड़ रुपए की देनदारी चीनी मिलों पर है। पिछले दिनों उत्तर प्रदेश सरकार ने कुछ चीनी मिलों के खिलाफ वसूली नोटिस भी जारी की। लेकिन यह महज दिखावा ही साबित हुआ। जिन चीनी मिलों के खिलाफ आरसी जारी की गई उनमें से कुछ मिलों पर किसानों के पांच सौ करोड़ रुपए से अधिक का बकाया है। इन मिलों में से नवाबगंज मिल का संचालन ओसवाल ग्रुप कर रहा है। जबकि मेरठ की चीनी मिल मवाना समूह की है। आरसी पाने वाली बिलारी चीनी मिल राणा ग्रुप से सम्बद्ध है। जबकि नियोली की मिल बाहुबली नेता डीपी यादव की है। गदौरा की मिल एचवी ग्रुप की है।उल्लेखनीय है कि उत्तर प्रदेश में चीनी का कारोबार 30 हजार करोड़ से भी अधिक का है और यह देश के चीनी मिल व्यापार का लगभग 30 प्रतिशत है। प्रदेश की चीनी मिलों ने वर्ष 2011-12 में 18 हजार करोड़ रुपए का गन्ना खरीदा था। जबकि 2012-13 में 22 हजार 462 करोड़ रुपए के गन्ने की खरीद हुई थी। केंद्र सरकार द्वारा जून 2013 में कराए गए उपग्रही सर्वेक्षण में आठ प्रतिशत अतिरिक्त गन्ने की पैदावार हुई है। लेकिन सरकार और चीनी मिल मालिकों ने इस रिकॉर्ड उत्पादन पर सियासत और तिकड़म का मट्ठा डाल दिया। गन्ना किसानों की बदहाली को भुनाने की सियासी होड़ में बसपा नेता मायावती भी आगे आ गईं। जबकि मायावती ने ही मुख्यमंत्री रहते हुए सरकारी चीनी मिलें कौड़ियों के भाव बेच डाली थीं। भाजपा भी गन्ना किसानों के आंदोलन में शरीक हो गई है। जबकि भाजपा के ही मुख्यमंत्री कल्याण सिंह ने गन्ना समितियों को पंगु करने का काम किया था। किसान अपने भुगतान के लिए अपनी पर्ची लिए इधर-उधर घूम रहा है। चीनी मिल मालिक नियोजित तरीके से पेराई शुरू करने में देरी करते हैं ताकि किसान कम दाम में गन्ना देने के लिए मजबूर हो जाए।भारत दुनिया का सबसे बड़ा चीनी उपभोक्ता देश है। जब-जब भारत ने अंतरराष्ट्रीय बाजार से चीनी खरीदने का ऐलान किया है, तब-तब चीनी की वैश्विक कीमतों में इजाफा हुआ है। चीनी उद्योग पर उत्तर प्रदेश के चालीस लाख किसानों की रोजी-रोटी टिकी हुई है। दंगे की मार से निकले किसान अब गन्ने के मसले पर आर-पार के मूड में हैं। गन्ने की लड़ाई महज खेतों तक सीमित नहीं रहने वाली है... सियासत का हद से ज्यादा हस्तक्षेप किस तरह एक संगठित उद्योग को तबाही के कगार पर ला खड़ा करता है, गन्ना उद्योग इसकी मिसाल है।बीते पेराई सत्र में गन्ने की फसल के लिए केंद्र सरकार के 170 रुपए प्रति क्विंटल एफआरपी के मुकाबले उत्तर प्रदेश सरकार ने 280 रुपए प्रति क्विंटल एसएपी घोषित किया था। मौजूदा साल के लिए भी उत्तर प्रदेश सरकार ने गन्ने का एसएपी 280 रुपए प्रति क्विंटल घोषित किया है। प्रदेश की चीनी मिलें बीते पेराई सत्र का 2,400 करोड़ रुपए किसानों को अब तक नहीं चुका पाई हैं। अगर यूपी की सीमा से बाहर की बात करें तो पूरे देश की चीनी मिलों पर किसानों का 3,400 करोड़ रुपए बकाया हैं। किसानों की मेहनत का पैसा मिलों के पास बकाया पड़ा है, लिहाजा फसल बोते वक्त लिए गए कर्ज की मार से किसान दबते जा रहे हैं। दिक्कत यहीं आकर खड़ी होती है। यूपी सरकार गन्ना किसानों के भले का दावा तो करती है, मगर यह कारगर नहीं होता। आजादी के बाद गठित गाडगिल समिति से लेकर हाल की रंगराजन समिति तक चीनी उद्योग पर आई कई रपटें धूल फांक रही हैं, क्योंकि कोई सरकार उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र, कर्नाटक, हरियाणा और गुजरात जैसे अहम राज्यों में फैले गन्ना किसानों की चाबी खोने को तैयार नहीं है। देश के दो बड़े राज्यों (उत्तर प्रदेश और महाराष्ट्र) में गन्ना सियासत की अहम धुरी बना हुआ है और इसकी बड़ी कीमत किसान, कृषि क्षेत्र और उपभोक्ता चुका रहे हैं।

No comments:

Post a Comment