प्रभात रंजन दीन
न्यूयॉर्क में तैनात भारत की
उप महावाणिज्य दूत देवयानी खोबरागड़े के साथ न्यूयॉर्क की पुलिस ने बदसलूकी की और एक
कूटनयिक के साथ बेजा आचरण करके जेनेवा कन्वेंशन के मान्य सिद्धांतों की जो धज्जियां
उड़ाईं, वह घोर
निंदनीय है। निंदा से भी कहीं ज्यादा आलोच्य है। इसका प्रतिकार होना ही चाहिए। लेकिन
भारतीय विदेश सेवा की वरिष्ठ अधिकारी देवयानी के साथ हुए दुव्र्यवहार पर जिस तरह भारत
सरकार, सारे
विपक्षी दल और सारे नौकरशाह एकजुट हो गए, क्या यही एकजुटता उस दिन अपेक्षित नहीं
थी जिस दिन पाकिस्तान ने भारत में घुस कर भारतीय सैनिकों का सिर कलम किया था, जिस दिन पाकिस्तानी सेना ने भारतीय
सीमा के पांच किलोमीटर अंदर तक घुस कर भारतीय सैनिकों को गोली मारी थी, जिस दिन चीनी सेना ने भारत में
घुस कर पांच भारतीयों को बंधक बना लिया था! क्या भारत की सरकार, भारत का विपक्ष और भारत का नौकरशाह
वर्ग-भेदी नहीं? विदेशी आक्रमणकारियों के हाथों देश का सैनिक मरता रहे, विदेशी अतिक्रमणकारियों के हाथों
देश के लोग बंधक बनते रहें, देश के लोग विदेशों में अपमानित होते रहें, उससे भारत की सरकार या भारत के
विपक्ष और भारत की नौकरशाही पर कोई फर्क नहीं पड़ता। क्योंकि सरकार, विपक्ष या नौकरशाही देश के सामान्य
नागरिकों का प्रतिनिधित्व नहीं करती। वह केवल खास लोगों का प्रतिनिधित्व करती है। खास
लोगों के लिए चिंतित रहती है। खास लोगों के अपमान पर वह चिंहुकती है और खिसिया कर खम्भे
नोचती है। जिस दिन भारत के सैनिकों के सिर काटे गए, जिस दिन भारतीय सैनिकों को गोलियां मारी
गईं, जिस दिन
भारतीय नागरिकों को बंधक बना कर विदेश की धरती पर ले जाया गया, उस दिन कम से कम खम्भा ही नोचते
तो देश के लोगों को सुकून तो मिलता! लेकिन केवल बात-बहादुरी हुई और सब मस्त हो गए।
भारतीय विदेश सेवा की अधिकारी देवयानी खोबरागड़े के साथ जो कुछ भी अमेरिका की धरती
पर हुआ, वह भारत
की सरकार, भारत
के विपक्ष और भारत की नौकरशाही के उसी किन्नरत्व का प्रतिफल है, जो आजादी के बाद से लगातार अभिव्यक्त
होता रहा है। यह तो अमेरिका है जिसे विश्व ने सर्वशक्तिमान मान लिया है। अब तो श्रीलंका
जैसा देश तक भारत को घुड़की देता है और भारत की सरकार, भारत का विपक्ष और भारत की नौकरशाही
झेंपती तक नहीं। आपको तो याद ही होगा कि बांग्लादेश जैसे भुनगे देश की बांग्लादेश राइफल्स
ने भारतीय सीमा सुरक्षा बल के कई जवानों को मारा था। बीएसएफ जवानों की लाशें जानवरों
की तरह बांस पर लटका कर नुमाइश की गई थीं और भारत के शौर्य और स्वाभिमान की धुर्रियां
बिखेर कर रख दी गई थी। उस समय भारत के प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी थे, उन्होंने अपने चिर-परिचित अंदाज
में आंखें झपकाते हुए कहा था, 'हम इसे बर्दाश्त नहीं करेंगे।' अब आप ध्यान दें तो आपको यही
वक्तव्य अलग-अलग समय में अलग-अलग नेताओं के मुंह से सुनाई देगा। भारतीय सैनिकों के
सिर काटे जाने की घटना पर मौजूदा प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने अपनी चिर-परिचित घिघियाई
आवाज में कहा था, 'हम इसे बर्दाश्त नहीं करेंगे।' पाकिस्तानी सैनिकों ने भारतीय
सीमा में घुस कर जब भारतीय सैनिकों को गोलियों से भून डाला था, तब भी प्रधानमंत्री ने कहा था, 'हम इसे
बर्दाश्त नहीं करेंगे।' चीनी सेना की हरकतों पर भी मनमोहन ने यही दोहराया था। सारे मंत्री यही दोहराते
हैं। सब लोग इसी संवाद के साथ हुआं-हुआं करते हैं और बर्दाश्त करते रहते हैं, क्योंकि मरने वाला या अपमानित होने वाला औकातहीन वर्ग का व्यक्ति
रहता है। भारत का वही औकातहीन सामान्य नागरिक अमेरिका में भारतीय कूटनयिक देवयानी खोबरागड़े
के साथ हुए सलूक से दुखी है, नाराज है, चिंतित है और आशंकित है। आम भारतीयों की चिंता यह है कि भारत का
कूटनयिक जब इस तरह सड़कछाप तौर तरीके से अपमानित होगा तो आम भारतीयों का विदेशों में
क्या होगा! हमारे बच्चे जो विदेशों में अर्से से बंधक बने हैं, उन्हें कौन छुड़ाएगा? मर्चेंट नेवी में या विदेशों में अन्यत्र वे नौकरी करने जाते
हैं और विदेशी मुद्रा कमा कर लाते हैं, तो उसकी जिम्मेदारी सरकार नहीं लेगी तो कौन
लेगा? कूटनयिकों की हिफाजत के लिए जेनेवा कन्वेंशन और जाने कितने
कितने अंतरराष्ट्रीय कानून की बंदिशें हैं, लेकिन विदेश आने-जाने वाले आम
नौकरीपेशा लोगों की हिफाजत के लिए क्या है? एक सामान्य नागरिक तो यही जानता
है कि अमेरिका में भारतीय कूटनयिक के साथ अपमानजनक घटना हुई। उसे अंतरकथा से उतना लेना-देना
नहीं। लेकिन भारत की सरकार तो सब जानती है! दरअसल, भारत में
सरकार तो नौकरशाह चलाते हैं। नेता केवल मुगालते में रहते हैं। सत्ता-शक्ति-दंभ में
जीने वाले नौकरशाह कानून को जेब में रखते हैं। देश हो या विदेश, उन्हें मिलने वाली सुविधाओं को वे अपना जन्मसिद्ध अधिकार मानते
हैं और दूसरों को वे उन्हीं अधिकारों से वंचित करते रहते हैं। नौकरानी को अमेरिका ले
जाने के लिए वीज़ा में फर्जीवाड़ा किया गया और नौकरानी को न्यूनतम मजदूरी कानून के
तहत वेतन नहीं दिया गया। यह भारत में चलता है। आईएएस आईपीएस अफसर इसे भारत में चलाता
है। लेकिन आईएफएस अफसर उसे विदेश में भी चलाता है। और जब पकड़ा जाता है तो वह देवयानी, नीना मल्होत्रा या प्रभु दयाल बन जाता है। 2011 में न्यूयॉर्क
के ही महावाणिज्य दूत प्रभु दयाल और 2012 में दूतावास की प्रेस एंड कल्चरल काउंसलर
नीना मल्होत्रा न्यूनतम मजदूरी कानून का उल्लंघन कर नौकर को कम पैसे देने के मामले
में फंस चुकी हैं। फिर भी नौकरशाहों की कोई आचार संहिता तय नहीं होती। न सरकार की कोई
आचार संहिता और न नौकरशाही का कोई आचार-विचार-आदर्श। देवयानी तो इनमें और अव्वल निकलीं।
उन्होंने न केवल नौकरानी की न्यूनतम मजदूरी में कटौती की बल्कि उसे अमेरिका ले जाने
के लिए वीज़ा की औपचारिकताएं निभाने में भी गलत रास्ता अपनाया था। ...तो नैतिकता के
तकाजे पर भारत की सरकार कहां खड़ी होती है? उसका खम्भा नोचने वाला गुस्सा
महज खिसियानी बिल्ली की तरह का है कि नहीं? क्या जेनेवा कन्वेंशन का करार
वीज़ा प्रक्रिया में फर्जीवाड़े के अपराध से कूटनयिक को बच कर निकल भागने का मौका देता
है? भारत की सरकार की प्राथमिकता ऐसे ही नाजुक समय में पारिभाषित
और परिलक्षित होती है। किन मसलों पर वह 'रिएक्ट' करती है और किन मसलों पर कन्नी
काट लेती है। वीज़ा प्रक्रिया में फर्जीवाड़ा करने और न्यूनतम मजदूरी कानून का उल्लंघन
करने में किसी कूटनयिक के पकड़े जाने पर भारत की सरकार 'रिएक्ट' करती है और देश की हिफाजत कर रहे सैनिकों को अपमानित कर उनका सिर
काट ले जाने की हरकत पर भारत की सरकार कन्नी काट लेती है। इन्हीं प्राथमिकताओं के विरोधाभास
में हम जीने के आदी हो चुके हैं। हम अपना कान नहीं टटोलते, कौव्वे के पीछे भागते रहते हैं। आज भी यही कर रहे हैं...
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