Thursday 5 October 2017

चीनी मिल घोटालाः मायावती के खिलाफ योगी की जांच, जेटली को क्यों लगी आंच..?

प्रभात रंजन दीन
मायावती के मसले पर उत्तर प्रदेश सरकार और केंद्र सरकार दोनों अलग-अलग स्टैंड पर खड़ी है. मायावती को कानून के शिकंजे में कसने की योगी कोशिश कर रहे हैं तो जेटली उसमें अड़ंगा डाल रहे हैं. इसे राजकीय भाषा में ऐसे कहें कि यूपी सरकार बसपाई शासनकाल के घोटालों की जांच कराने का निर्णय लेती है तो केंद्र सरकार उसे कानूनी तौर पर बेअसर कर देती है. मायावती और अरुण जेटली के बीच कोई रहस्यमय समझदारी है या केंद्र की मोदीनीत भाजपा सरकार भविष्य के लिए मायावती को ‘रिजर्व’ में रखना चाहती है? कहीं जेटली को आगे रख कर मोदी मायावती को बचाने की कोशिश तो नहीं कर रहे? भाजपाइयों को ही यह बात समझ में नहीं आ रही है. इस गुत्थी के निहितार्थ योगी के भी पल्ले नहीं पड़ रहे.
यूपी के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने अपनी सरकार के छह महीने पूरे होने पर जारी श्वेत-पत्र में भी प्रदेश की करीब दो दर्जन चीनी मिलों को बेचे जाने में हुए अरबों रुपए के घोटाले का उल्लेख किया है. इसके पहले अप्रैल महीने में योगी ने चीनी मिलों के बिक्री-घोटाले की जांच कराए जाने की घोषणा की थी. लेकिन अरुण जेटली के कॉरपोरेट अफेयर मंत्रालय ने इस मामले में कानूनी रायता बिखेर दिया. आप यह जानते ही हैं कि जेटली वित्त के साथ-साथ कॉरपोरेट अफेयर विभाग के भी मंत्री हैं. नॉर्थ-ब्लॉक गलियारे के एक आला अधिकारी कहते हैं कि यूपी की चीनी-मिलों को कौड़ियों के मोल बेच डालने के मामले में सुप्रीम कोर्ट से आखिरी फैसला आना बाकी है, लेकिन कॉरपोरेट अफेयर मंत्रालय के राष्ट्रीय प्रतिस्पर्धा आयोग (कम्पीटीशन कमीशन ऑफ इंडिया) ने जो कानूनी रोड़े खड़े किए हैं, उससे घोटाला साबित होने में मुश्किल होगी. चीनी मिल बिक्री घोटाले से मायावती को बेदाग बाहर निकालने की समानान्तर किलेबंदी कर दी गई है. योगी जी को ध्यान रखना होगा कि यह किलेबंदी उन्हीं की पार्टी की केंद्र में बैठी सरकार ने की है.
चीनी मिलों के विक्रय-प्रकरण का पिटारा खुलेगा तो भाजपा की भी संलिप्तता उजागर होगी. सपा की भूमिका से भी पर्दा हटेगा. भाजपा इस वजह से भी इस मामले को ढंके रहना चाहती है और योगी इस वजह से भी इसे उजागर करने में रुचि ले रहे हैं. चीनी मिलों को बेचने की शुरुआत भाजपा के ही शासनकाल में हुई थी. भाजपा सरकार ने ही चीनी-मिलों पर गन्ना किसानों और किसान समितियों की पकड़ कमजोर करने और बिखेरने का काम किया था. चीनी मिलें बेचने की शुरुआत तत्कालीन भाजपा सरकार ने की थी, सपा ने अपने कार्यकाल में इसे आगे बढ़ाया और बसपा ने इसे पूरी तरह अंजाम पर ला दिया. इसकी हम विस्तार से आगे चर्चा करेंगे. अभी यह बताते चलें कि मायावती के कार्यकाल में चीनी मिलों को औने-पौने भाव में कुछ खास पूंजी घरानों को बेचे जाने के मामले की जांच की घोषणा योगी सरकार ने सत्तारूढ़ होने के महीनेभर बाद ही अप्रैल महीने में कर दी थी. इस घोषणा से केंद्र सरकार फौरन सक्रिय हो गई और कम्पीटीशन कमीशन ऑफ इंडिया (सीसीआई) ने अगले ही महीने यानि, मई महीने में ही अपना फैसला सुनाकर योगी सरकार को झटके में ला दिया. कमीशन ने साफ-साफ कहा कि मायावती सरकार ने उत्तर प्रदेश की सहकारी चीनी मिलों की बिक्री में कोई गड़बड़ी नहीं की. कम्पीटीशन कमीशन ऑफ इंडिया, यानि राष्ट्रीय प्रतिस्पर्धा आयोग भारत की संवैधानिक अधिकार प्राप्त विनियामक संस्था है. आयोग ने चार मई 2017 को दिए अपने फैसले में कहा है कि ऐसा कोई भी सबूत नहीं मिला है जिसमें कहीं कोई गड़बड़ी पाई गई हो. चीनी मिलों की बिक्री में अपनाई गई प्रक्रिया आयोग की नजर में पूरी तरह पारदर्शी है. आयोग ने यह भी कहा है कि नीलामी से किसी भी पार्टी को रोका नहीं गया और न किसी को धमकी ही दी गई. इस फैसले पर राष्ट्रीय प्रतिस्पर्धा आयोग के चेयरमैन देवेंद्र कुमार सीकरी और सदस्य न्यायमूर्ति जीपी मित्तल, यूसी नाहटा और ऑगस्टीन पीटर के हस्ताक्षर हैं.
आप मजा देखिए, सियासत जिस जगह नाक घुसेड़ दे, वहां क्या हाल कर देती है. संवैधानिक अधिकार प्राप्त केंद्र सरकार की दो संस्थाएं चीनी मिल बिक्री घोटाले में मायावती की संलिप्तता को लेकर दो अलग-अलग परस्पर-विरोधी दिशा में खड़ी हैं. महालेखाकार (सीएजी) की जांच रिपोर्ट कहती है कि चीनी मिलों की बिक्री में घनघोर अनियमितता हुई, लेकिन प्रतिस्पर्धा आयोग कहता है कि बिक्री में कोई अनियमितता नहीं हुई. कैग की जांच रिपोर्ट पहले आ गई थी, आयोग का फैसला अभी हाल में आया है. दो परस्पर-विरोधी रिपोर्टें देख कर आम नागरिक क्या धारणा बनाए और किस जगह खड़ा हो! यह विषम स्थिति है. राष्ट्रीय प्रतिस्पर्धा आयोग का 103 पेज का फैसला ‘चौथी दुनिया’ के पास है. इस फैसले को पढ़ें तो यह अपने आप में ही तमाम विरोधाभासों से भरा पड़ा है.
राष्ट्रीय प्रतिस्पर्धा आयोग के डायरेक्टर जनरल (डीजी) नितिन गुप्ता ने उत्तर प्रदेश की 10 चालू और 11 बंद चीनी मिलों को बेचे जाने के मामले की गहराई से छानबीन की थी. इस छानबीन में भी चीनी मिलें खरीदने वाले पूंजीपति पौंटी चड्ढा की कंपनी के साथ नीलामी में शामिल अन्य कंपनियों की साठगांठ आधिकारिक तौर पर पुष्ट हुई. यह पाया गया कि नीलामी में शामिल कई कंपनियां पौंटी चड्ढा की ही मूल कंपनी से जुड़ी हैं, जबकि नीलामी की पहली शर्त ही यह थी कि एक मिल के लिए एक ही कंपनी नीलामी की निविदा-प्रक्रिया में शामिल हो सकती है. प्रतिस्पर्धा आयोग के डीजी ने अपनी छानबीन में पाया कि उत्तर प्रदेश राज्य चीनी निगम लिमिटेड की 10 चालू हालत की चीनी मिलों की बिक्री प्रक्रिया में पहले तो 10 कंपनियां शरीक हुईं, लेकिन आखिर में केवल तीन कंपनियां वेव इंडस्ट्रीज़ प्राइवेट लिमिटेड, पीबीएस फूड्स प्राइवेट लिमिटेड और इंडियन पोटाश लिमिटेड ही रह गईं. चालू हालत की 10 चीनी मिलों को खरीदने के लिए आखिर में बचीं तीन कंपनियों में ‘गजब’ की समझदारी पाई गई. जिन मिलों को खरीदने में वेव की रुचि थी, वहां अन्य दो कंपनियों ने कम दर की निविदा (बिड-प्राइस) भरी और जिन मिलों में दूसरी कंपनियों को रुचि थी, वहां वेव ने काफी दम दर की निविदा दाखिल की. इस तरह बहराइच की जरवल रोड चीनी मिल, कुशीनगर की खड्डा चीनी मिल, मुजफ्फरनगर की रोहनकलां चीनी मिल, मेरठ की सकोती टांडा चीनी मिल और महराजगंज की सिसवां बाजार चीनी मिल समेत पांच चीनी मिलें इंडियन पोटाश लिमिटेड ने खरीदीं और अमरोहा चीनी मिल, बिजनौर चीनी मिल, बुलंदशहर चीनी मिल व सहारनपुर चीनी मिल समेत चार चीनी मिलें वेव इंडस्ट्रीज़ प्राइवेट लिमिटेड को मिलीं. दसवीं चीनी मिल की खरीद में रोचक खेल हुआ. बिजनौर की चांदपुर चीनी मिल की नीलामी के लिए इंडियन पोटाश लिमिटेड ने 91.80 करोड़ की निविदा दर (बिड प्राइस) कोट की. पीबीएस फूड्स ने 90 करोड़ की प्राइस कोट की, जबकि इसमें वेव कंपनी ने महज 8.40 करोड़ की बिड-प्राइस कोट की थी. बिड-प्राइस के मुताबिक चांदपुर चीनी मिल खरीदने का अधिकार इंडियन पोटाश लिमिटेड को मिलता, लेकिन ऐन मौके पर पोटाश लिमिटेड नीलामी की प्रक्रिया से खुद ही बाहर हो गई. लिहाजा, चांदपुर चीनी मिल पीबीएस फूड्स को मिल गई. नीलामी प्रक्रिया से बाहर हो जाने के कारण इंडियन पोटाश की बिड राशि जब्त हो गई, लेकिन पीबीएस फूड्स के लिए उसने पूर्व-प्रायोजित-शहादत दे दी. राष्ट्रीय प्रतिस्पर्धा आयोग की जांच में यह भी तथ्य खुला कि पौंटी चड्ढा की कंपनी वेव इंडस्ट्रीज़ प्राइवेट लिमिटेड और पीबीएस फूड्स प्राइवेट लिमिटेड, दोनों के निदेशक त्रिलोचन सिंह हैं. त्रिलोचन सिंह के वेव कंपनी समूह का निदेशक होने के साथ-साथ पीबीएस कंपनी का निदेशक और शेयरहोल्डर होने की भी आधिकारिक पुष्टि हुई. इसी तरह वेव कंपनी की विभिन्न सम्बद्ध कंपनियों के निदेशक भूपेंद्र सिंह, जुनैद अहमद और शिशिर रावत पीबीएस फूड्स के भी निदेशक मंडल में शामिल पाए गए. मनमीत सिंह वेव कंपनी में अतिरिक्त निदेशक थे तो पीबीएस फूड्स में भी शेयर होल्डर थे. इस तरह वेव कंपनी और पीबीएस फूड्स की साठगांठ और एक ही कंपनी का हिस्सा होने का दस्तावेजी तथ्य सामने आया. यहां तक कि वेव कंपनी और पीबीएस फूड्स द्वारा निविदा प्रपत्र खरीदने से लेकर बैंक गारंटी दाखिल करने और स्टाम्प पेपर तक के नम्बर एक ही क्रम में पाए गए. आयोग के डीजी ने अपनी जांच रिपोर्ट में लिखा है कि दोनों कंपनियां मिलीभगत से काम कर रही थीं, जो कम्पीटीशन एक्ट की धारा 3 (3) (ए) और 3 (3) (डी) का सीधा-सीधा उल्लंघन है. चालू हालत की 10 चीनी मिलों की बिक्री प्रक्रिया में शामिल होकर आखिरी समय में डीसीएम श्रीराम इंडस्ट्रीज लिमिटेड, द्वारिकेश शुगर इंडस्ट्रीज लिमिटेड, लक्ष्मीपति बालाजी शुगर एंड डिस्टिलरीज़ प्राइवेट लिमिटेड, पटेल इंजीनियरिंग लिमिटेड, त्रिवेणी इंजीनियरिंग एंड इंडस्ट्रीज़ लिमिटेड, एसबीईसी बायोइनर्जी लिमिटेड और तिकौला शुगर मिल्स लिमिटेड जैसी कंपनियों के भाग खड़े होने का मामला भी रहस्य के घेरे में ही है. हालांकि आयोग ने अपनी जांच में इस पर कोई टिप्पणी नहीं की.
उत्तर प्रदेश राज्य चीनी एवं गन्ना विकास निगम लिमिटेड की प्रदेश में बंद पड़ी 11 चीनी मिलों की बिक्री प्रक्रिया में भी ऐसा ही कुछ ‘खेल’ हुआ. नीलामी की औपचारिकताओं में कुल 10 कंपनियां शरीक हुईं, लेकिन आखिरी समय में तीन कंपनियां मेरठ की आनंद ट्रिपलेक्स बोर्ड लिमिटेड, वाराणसी की गौतम रियलटर्स प्राइवेट लिमिटेड और नोएडा की श्रीसिद्धार्थ इस्पात प्राइवेट लिमिटेड मैदान छोड़ गईं. जो कंपनियां रह गईं उनमें पौंटी चड्ढा की कंपनी वेव इंडस्ट्रीज़ के साथ नीलगिरी फूड्स प्राइवेट लिमिटेड, नम्रता, त्रिकाल, गिरियाशो, एसआर बिल्डकॉन व आईबी ट्रेडिंग प्राइवेट लिमिटेड शामिल थीं और इनमें भी आपस में खूब समझदारी थी. नीलगिरी फूड्स ने बैतालपुर, देवरिया, बाराबंकी और हरदोई चीनी मिलों के लिए निविदा दाखिल की थी, लेकिन आखिर में बैतालपुर चीनी मिल छोड़ कर उसने अन्य से अपना दावा वापस कर लिया. इसके लिए उसे जमानत राशि भी गंवानी पड़ी. बैतालपुर चीनी मिल खरीदने के बाद नीलगिरी ने उसे भी कैनयन फाइनैंशियल सर्विसेज़ लिमिटेड के हाथों बेच डाला. इसी तरह त्रिकाल ने भटनी, छितौनी और घुघली चीनी मिलों के लिए निविदा दाखिल की थी, लेकिन आखिरी समय में जमानत राशि गंवाते हुए उसने छितौनी और घुघली चीनी मिलों से अपना दावा हटा लिया. वेव कंपनी ने भी बरेली, रामकोला और शाहगंज की बंद पड़ी चीनी मिलों को खरीदने के लिए निविदा दाखिल की थी. लेकिन उसने बाद में बरेली और रामकोला से अपना दावा छोड़ दिया और शाहगंज चीनी मिल खरीद ली. बाराबंकी, छितौनी और रामकोला की बंद पड़ी चीनी मिलें खरीदने वाली कंपनी गिरियाशो और बरेली, हरदोई, लक्ष्मीगंज और देवरिया की चीनी मिलें खरीदने वाली कंपनी नम्रता में वही सारी संदेहास्पद-समानताएं पाई गईं जो वेव इंडस्ट्रीज़ और पीबीएस फूड्स लिमिटेड में पाई गई थीं. यह भी पाया गया कि गिरियाशो, नम्रता और कैनयन, इन तीनों कंपनियों का दिल्ली के सरिता विहार में एक ही पता है. बंद पड़ी 11 चीनी मिलें खरीदने वाली सभी कंपनियां एक-दूसरे से जुड़ी हुई पाई गईं, खास तौर पर वे पौंटी चड्ढा की वेव इंडस्ट्रीज़ प्राइवेट लिमिटेड से सम्बद्ध पाई गईं. लेकिन विडंबना यह है कि राष्ट्रीय प्रतिस्पर्धा आयोग ने अपने ही डीजी की छानबीन को किनारे लगा दिया और फैसला सुना दिया कि यूपी की 21 चीनी मिलों की नीलामी प्रक्रिया में किसी तरह की गड़बड़ी और साठगांठ साबित नहीं पाई गई. हालांकि सुप्रीम कोर्ट ने राष्ट्रीय प्रतिस्पर्धा आयोग के इस फैसले को अभी नहीं माना है. कानून के विशेषज्ञ कहते हैं कि आयोग के जरिए केंद्र सरकार ने कानूनी पचड़ा फंसाने की कोशिश तो की है, लेकिन आयोग के डीजी की छानबीन रिपोर्ट भी सुप्रीम कोर्ट की निगाह में है.

नौकरशाहों ने दलालों की तरह काम किया
एक तरफ प्रतिस्पर्धा आयोग कहता है कि चीनी मिलों की बिक्री प्रक्रिया में कोई अनियमितता नहीं हुई, दूसरी तरफ अगर दस्तावेज देखें तो धांधली साफ-साफ दिखाई देती है. चीनी मिलों की अरबों की चल-अचल सम्पत्ति को कौड़ियों के भाव बेच दिया जाना घोर भ्रष्टाचार की सनद देता है. महालेखाकार की छानबीन में भी यह स्पष्ट हो चुका है कि चीनी मिलों की विक्रय-प्रक्रिया में शामिल नौकरशाहों ने पूंजी-प्रतिष्ठानों के दलालों की तरह काम किया. सीएजी का मानना है कि निविदा की प्रक्रिया शुरू होने के पहले ही यह तय कर लिया गया था कि चीनी मिलें किसे बेचनी हैं. निविदा में भाग लेने वाली कुछ खास कंपनियों को सरकार की बिड-दर पहले ही बता दी गई थी और प्रक्रिया के बीच में भी अपनी मर्जी से नियम बदले गए. मिलों की जमीनें, मशीनें और उपकरणों की कीमत निर्धारित करने में मनमानी की गई. बिक्री के बाद रजिस्ट्री के लिए स्टाम्प ड्यूटी भी कम कर दी गई. कैग का कहना है कि चीनी मिलें बेचने में सरकार को 1179.84 करोड़ रुपए का सीधा नुकसान हुआ. यानि, उत्तर प्रदेश राज्य चीनी निगम लिमिटेड की चालू हालत की 10 चीनी मिलों को बेचने पर सरकार को 841.54 करोड़ का नुकसान हुआ और उत्तर प्रदेश राज्य चीनी एवं गन्ना विकास निगम लिमिटेड की बंद 11 चीनी मिलों को बेचने की प्रक्रिया में 338.30 करोड़ रुपए का नुकसान हुआ.

मायावती की करतूतों को अखिलेश ने लीपा पोता
चीनी मिल विक्रय घोटाला क्या, अखिलेश सरकार ने मायावती के कार्यकाल के सारे घपले-घोटालों को अपने कार्यकाल में खूब लीपा पोता. महालेखाकार की रिपोर्ट अखिलेश के कार्यकाल में ही विधानसभा के पटल पर रखी गई थी. लेकिन मुख्यमंत्री होने की अखिलेश ने अपनी कोई जिम्मेदारी नहीं निभाई. मामला लोकायुक्त के पास चला गया, लेकिन सरकार की लापरवाही या दबाव के कारण लोकायुक्त की जांच किसी नतीजे पर नहीं पहुंच पाई. अखिलेश सरकार ने लोकायुक्त के मत्थे ठीकरा फोड़ दिया. जबकि तत्कालीन लोकायुक्त एनके मेहरोत्रा ने कहा कि छानबीन में सरकार कोई सहयोग नहीं कर रही है. सम्बद्ध नौकरशाहों से जवाब मांगा तो सिरचढ़े नौरशाहों ने लोकायुक्त को जवाब तक नहीं भेजा.

भाजपा ने ही शुरू की थी चीनी मिलों की बर्बादी, गन्ना किसानों की तबाही
किसानों को राजनीतिक दलों ने बड़े शातिराना तरीके से मारा है. इसके लिए समाजवादी पार्टी या बहुजन समाज पार्टी अकेले दोषी नहीं है. चीनी मिलों को बर्बाद करने और गन्ना किसानों को तबाह करने का सिलसिला सबसे पहले भाजपा के शासनकाल में ही शुरू हुआ था. थोड़ा पृष्ठभूमि में झांकते चलें. कभी उत्तर प्रदेश में गन्ना किसान खुशहाल थे. गन्ने की खेती और चीनी मिलों से प्रदेश के गन्ना बेल्ट में कई अन्य उद्योग धंधे भी फल-फूल रहे थे. चीनी मिलों और किसानों के बीच गन्ना विकास समितियां (केन यूनियन) किसानों के भुगतान से लेकर खाद, ऋण, सिंचाई के साधनों, कीटनाशकों के साथ-साथ सड़क, पुल, पुलिया, स्कूल और औषधालय तक की व्यवस्था करती थीं. गन्ने की राजनीति करके नेता तो कई बन गए लेकिन उन्हीं नेताओं ने गन्ना किसानों को बर्बाद भी कर दिया. नतीजतन गन्ना क्षेत्र से लोगों का भयंकर पलायन शुरू हुआ और उन्हें महाराष्ट्र और पंजाब में अपमानित होते हुए भी पेट भरने के लिए मजदूरी के लिए रुकना पड़ा. उत्तर प्रदेश में 125 चीनी मिलें थीं, जिनमें 63 मिलें केवल पूर्वी उत्तर प्रदेश में थीं. इनमें से अधिकतर चीनी मिलें बेच डाली गई और कुछ को छोड़ कर सभी मिलें बंद हो गईं. सरकार ने चीनी मिलें बेच कर पूंजीपतियों को और खुद को फायदा पहुंचाया. चीनी मिलों के परिसर की जमीनें पूंजी-घरानों को कौड़ियों के भाव बेच डाली गईं, जिस पर अब महंगी कॉलोनियां बन रही हैं. जबकि चीनी मिलों को किसानों ने गन्ना समितियों के जरिए अपनी ही जमीनें लीज़ पर दी थीं. लेकिन उन किसानों के मालिकाना हक की चिंता किए बगैर अवैध तरीके से उन जमीनों को भी मिलों के साथ ही बेच डाला गया. 1989 के बाद से प्रदेश में नकदी फसल का कोई विकल्प नहीं खड़ा किया गया. गन्ना ही किसानों का अस्तित्व बचाने की एकमात्र नकदी फसल थी. चीनी मिलों के खेल में केवल समाजवादी पार्टी ही शामिल नहीं, अन्य दल भी जब सत्ता में आए तो खूब हाथ धोया. भाजपा की सरकार ने हरिशंकर तिवारी की कम्पनी 'गंगोत्री इंटरप्राइजेज' को चार मिलें बेची थीं. उस समय कल्याण सिंह यूपी के मुख्यमंत्री हुआ करते थे, उनकी सरकार में हरिशंकर तिवारी मंत्री थे. 'गंगोत्री इंटरप्राइजेज' ने चीनी मिलों की मशीनें और सारे उपकरण बेच डाले. फिर समाजवादी पार्टी की सरकार आई तो उसने प्रदेश की 23 चीनी मिलें अनिल अम्बानी को बेचने का प्रस्ताव रख दिया. लेकिन तब अम्बानी पर चीनी मिलें चलाने के लिए दबाव था. सपा सरकार ने उन चीनी मिलों को 25-25 करोड़ रुपए देकर चलवाया भी, लेकिन मात्र 15 दिन चल कर वे फिर से बंद हो गईं. तब तक चुनाव आ गया और फिर बसपा की सरकार आ गई. मुख्यमंत्री बनी मायावती ने सपा कार्यकाल के उसी प्रस्ताव को आगे बढ़ाया और चीनी मिलों को औने-पौने दाम में बेचना शुरू कर दिया. मायावती ने पौंटी चड्ढा की कम्पनी और उसके गुट की कंपनियों को 21 चीनी मिलें बेच डालीं. देवरिया की भटनी चीनी मिल महज पौने पांच करोड़ में बेच दी गई. जबकि वह 172 करोड़ की थी. इसके अलावा देवरिया चीनी मिल 13 करोड़ में और बैतालपुर चीनी मिल 13.16 करोड़ में बेच डाली गई. अब उन्हीं मिलों की बेशकीमती जमीनों को प्लॉटिंग कर महंगी कॉलोनी के रूप में विकसित किया जा रहा है. बरेली चीनी मिल 14 करोड़ में बेची गई, बाराबंकी चीनी मिल 12.51 करोड़ में, शाहगंज चीनी मिल 9.75 करोड़ में, हरदोई चीनी मिल 8.20 करोड़ में, रामकोला चीनी मिल 4.55 करोड़ में, घुघली चीनी मिल 3.71 करोड़ में, छितौनी चीनी मिल 3.60 करोड़ में और लक्ष्मीगंज चीनी मिल महज 3.40 करोड़ रुपए में बेच डाली गई. ये तो बंद मिलों का ब्यौरा है. जो मिलें चालू हालत में थीं उन्हें भी ऐसे ही कौड़ियों के मोल बेचा गया. अमरोहा चीनी मिल महज 17 करोड़ में बेच डाली गई. सहारनपुर चीनी मिल 35.85 करोड़ में और सिसवां बाजार चीनी मिल 34.38 करोड़ में बिक गई. बुलंदशहर चीनी मिल 29 करोड़ में, जरवल रोड चीनी मिल 26.95 करोड़ में और खड्डा चीनी मिल महज 22.65 करोड़ में बेच डाली गई.
पूर्वांचल के जुझारू किसान नेता शिवाजी राय कहते हैं कि पहले यह व्यवस्था थी कि यूपी के किसान गन्ना की फसलें गन्ना समितियों को बेचते थे और गन्ना समितियां उसे चीनी मिलों को बेचती थीं. किसानों को पैसे भी समितियों के जरिए ही मिलते थे. सारा कुछ बहुत ही सीधी रेखा पर चल रहा था. लेकिन भाजपा सरकार ने इस प्रक्रिया को ऐसा घुमाया कि उसे नष्ट ही कर दिया. गन्ना किसानों के खाते में सीधे पैसे डालने की व्यवस्था लागू कर तत्कालीन मुख्यमंत्री कल्याण सिंह ने केन यूनियनों को पंगु करने की शुरुआत की थी. उसके बाद न तो किसानों के खाते में पैसे पहुंचे और न केन यूनियनें ही फिर से ताकतवर हो पाईं.

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