Wednesday 22 January 2014

कठखोदी की चोंच में फंसा लोकतंत्र...

प्रभात रंजन दीन
कठखोदी की चोंच में लोकतंत्र... जबसे 'आम आदमी पार्टी' ने दिल्ली विधानसभा में जीत और अरविंद केजरीवाल ने मुख्यमंत्री की कुर्सी हासिल की है, तबसे लेकर आज मुख्यमत्री का जनता दरबार होने तक जो कुछ भी हुआ, यही लगा कि कठखोदी की चोंच में लोकतंत्र फंस गया है। आप सब जानते ही होंगे कि कठखोदी चिडिय़ा एक जगह स्थिर नहीं बैठती और जिस भी डाल या लकड़ी पर बैठती है वहीं खोदती है, इसीलिए इस पक्षी का नाम ही पड़ गया कठखोदी या कठफोड़वा। अब अरविंद केजरीवाल और उनकी 'लुक्खी' टीम को भी कुछ ऐसा ही कहा जाने वाला है। लुक्खी जानते हैं न! हर पल, हर बात पर फुदकने वाली गिलहरी को लोकभाषा में लुक्खी कहा जाता है। भारतवर्ष का लोकतंत्र कठखोदियों और लुक्खियों के हाथ लग गया है। यह देश की नियति है। जिस देश का नागरिक लौंडों की तरह आचरण करेगा, उस देश का यही हाल होगा। पूरा लोकतंत्र 'लौंडपचीसी' में लीन दिखेगा। स्कूली जीवन के बाद कॉलेज में प्रवेश लेने वाले छात्र जब बचकानेपन की हरकतें करते थे तो सीनियर 'लौंडपचीसी' नहीं करने की हिदायत देते थे। शनिवार के जनता दरबार में जब जनता भगदड़ की भीड़ बन गई तब लोक बोलियों में चलने वाले ये तीनों शब्द भारतीय लोकतंत्र के ताजा यथार्थ की तरह साकार दिखने लगे। लोकतंत्र को लौंडपचीसी में तब्दील करने का श्रेय 'आपश्री' केजरीवाल को दिया ही जाना चाहिए।
सादगी, ईमानदारी, नैतिकता और यहां तक कि बड़ी चतुराई से आम आदमी तक की मार्केटिंग होने लगी, 66 साल की आजादी और बाजारीकरण की संस्कृति में हुनरमंदों ने इसे करीने से सीखा, विशेषज्ञता हासिल की और मूढ़मतियों के देश में इसे बखूबी आजमाया। जनता दरबार में बड़ी-बड़ी उम्मीदें लेकर जुटी भारी भीड़ की शिकायतें जब भगदड़ के बाद रैली या सभा स्थलों पर छूटे बिखरे कुचले पड़े जूते-चप्पलों की तरह दिख रही थीं, तो आधुनिक कला-कौशल में माहिर नवरस के शौकीन सामंतों के दरबार में आम आदमी बिकने के लिए और नहीं बिका तो बिखरने के लिए खड़ा दिख रहा था। ठीक ऐसा ही लगा कि नव-सामंतों के गिरोह ने कर डाला है लोकतंत्र का होम, लाश सरीखे आम आदमी को बेचने में लग गए हैं टोपी पहने डोम...
अरविंद केजरीवाल या उनकी लुक्खी-टीम को यह नहीं समझ में आता है कि शासन नौटंकीबाजी से नहीं गम्भीरता से चलता है और जनहित के दीर्घकालिक फैसले ही लोकतांत्रिक सत्ताओं और पार्टियों को दीर्घजीवी बनाते हैं। सस्ते फैसले और सड़कछाप तौर-तरीके दुनियाभर में हास-परिहास का विषय बनते हैं। दुनिया के सारे देशों की अपनी-अपनी संवैधानिक मर्यादाएं और शासनिक आचार-संहिताएं इसीलिए तो हैं कि शासन का औचित्य बना रहे! लेकिन जिन लोगों के बूते 'आपश्री' जीत कर आए हैं, वह ऐसी ही जमात है जो नुक्कड़छाप फिल्में देखती और उन्हें हिट कराती है। तो केजरीवाल लोकतांत्रिक गम्भीरता लाकर कला फिल्में या सार्थक फिल्म की श्रेणी में खुद के किए को क्यों शरीक करें! ये जहां जाते हैं वहीं सस्ती फिल्मों की तरह सस्ती हरकतें करते हैं। चुनाव जीतने के बाद सरकारी वाहनों को लेकर नौटंकी हुई हो या सरकारी घर को लेकर की गई सस्ती हरकतें या आम आदमी दिखने की सायास की जा रही कोशिशों का भौंडा प्रहसन, कभी 'आप' की महिला मंत्री पर हमले का शोर तो कभी जजों को ही सड़क पर हांकने का घटिया विज्ञापनी जोर-आजमाइश। ये सब भीड़ को आकर्षित करने के सस्ते मदारीनुमा तौर-तरीके ही तो साबित हो रहे हैं। लोगों का ध्यान खींचने के लिए अपनी ही सभाओं या प्रेस कान्फ्रेंसों में भाड़े के टट्टुओं को लेकर प्रायोजित विरोध प्रदर्शन कराने तक के घटिया बाजारू फार्मूले आजमाने में आप-दल को कोई झेंप या हिचक नहीं हो रही है। ये लोकतंत्र के जंगल के नए ठेकेदार हैं। जंगल तो कट गए अब ये आम आदमी के जो ठूंठ बचे हैं उन्हें ही काटेंगे और बेचेंगे। यह देश और शहर बियाबान हो जाएगा, केवल वोटर बचेगा, जो कभी बाभन-ठाकुर, कभी दलित-पिछड़ा, कभी हिंदू-मुसलमान ...और अब आम आदमी का चेहरा लगा कर वोट डालेगा। हर दौर में नेता आएगा, हमें ही सीढिय़ां बनाएगा, हमारे ही सपनों को हमारे ही नाम पर बुलाए गए दरबारों में रौंदेगा और मुंडेर से खिल्लियां उड़ाएगा, हमारी सिसकियां नक्कारखाने की दीवारों से टकराएंगी और हमें ही सुनाई देंगी बार-बार, मरघटों से लोकतंत्र के फुंकने की चिराइन गंध आएगी हर बार, और इसी तरह लगता रहेगा मुख्यमंत्री और प्रधानमंत्री का जनता दरबार... 

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