प्रभात रंजन दीन
दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र
के प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह अपने दस साल के कार्यकाल में तीसरी बार भारतीय मीडिया
से मुखातिब हुए। वे प्रेस कॉन्फ्रेंस को सम्बोधित कर रहे थे तो लग रहा था कि मीडिया
वाकई 'सियासत' नाम की फिल्म की आउटडोर शूटिंग
का एक लोकेशन मात्र है। मनमोहन सिंह के पूरे चेहरे पर अभिव्यक्तिहीनता का पूरा 'डिजास्टर' परिलक्षित हो रहा था, जब वे मीडिया को सम्बोधित होकर
कुछ बोलते हुए जैसे दिख रहे थे। मनमोहन सिंह को बोलता हुआ जैसा देख कर ही यह साबित
होता है कि खास कर भारत की मौजूदा राजनीति एक ऐसे 'विचित्र
किंतु सत्य नुमा' पीड़ादायक हास्य कथानक वाली फिल्म है जिसका हीरो सामने दिखता तो है, लेकिन असली हीरो वह नहीं होता। असली हीरो कोई और होता है जो घात
लगाए रहता है। लेकिन असली हीरो वह भी नहीं होता, क्योंकि
वह भी एक पात्र ही होता है, जो डायरेक्टर के इशारे पर हीरो
वाले अपने रोल में उतरने की तैयारी करता होता है। पूरा प्रहसन पहले इनडोर शूटिंग वाले
लोकेशन पर रिहर्सल कर लिया जाता है और फिर कठपुतलियां आउटडोर शूटिंग के लिए उतर पड़ती
हैं... अभी मनमोहन उतरे। कुछ दिन में राहुल उतरने वाले हैं। हॉलीवुड की कई 'फिक्शन' फिल्मों में आपने देखा होगा कि रोबॉट में भी कभी-कभी खुद के होने
का अहसास कौंध जाता है और वह कुछ ऐसा कर जाता है जो पुरानी कठपुतली और नई कठपुतली के
बीच के फर्क का बोध करा देता है। मनमोहन सिंह ने अपने तीसरे प्रेस कॉन्फ्रेंस में कुछ
ऐसा ही किया। यह आखिरी था इसी वजह से रोबॉटिक्स में थोड़ा मौलिक खेल हो भी गया। मनमोहन
ने अपने सम्बोधन में एक शब्द का खास तौर पर बार-बार इस्तेमाल किया। उन्होंने 'इतिहास' और 'इतिहासकार' शब्द इतनी बार बोला कि सम्पूर्ण
मीडिया के जरिए पूरे देश के अवचेतन-मन (सब कॉन्शस माइंड) में यह बिल्कुल फिट हो गया।
दिमाग से बहुत सारी बातें तो निकल जाती हैं, लेकिन अवचेतन मन से बातें नहीं
निकलतीं, वह ऐन समय पर अपना असर दिखाती हैं। भारतवर्ष के लोगों की
स्मरणशक्ति वैसे ही बहुत टिकाऊ नहीं है। तो चार महीने बाद होने वाले लोकसभा चुनाव तक
मतदाताओं के 'सब कॉन्शस माइंड' में यह बना रहे कि भ्रष्ट कृत्यों
वाली कांग्रेस पार्टी को इतिहास और इतिहासकारों के हवाले कर देना है... मनमोहन ने इसका
तो इंतजाम कर दिया। देश में फैले भ्रष्टाचार और महंगाई को काबू करने में नाकाम होने
का कठोर सत्य मनमोहन सिंह जैसा प्रधानमंत्री स्वीकार कर ले, तो आप समझ लें कि रोबॉट में वाकई कुछ क्षण के लिए ही सही, संवेदना कौंध गई और सच बोलवा गई। इस सच का कौंधना कुछ देर और टिक
जाता तो कांग्रेस की करतूतों को लेकर जितने सवाल रख दिए गए थे, आज ही पटाक्षेप हो जाता। लेकिन फिल्म के डायरेक्टर का खौफ मनमोहन
के चेहरे और घुटी हुई आवाज से समझ में आ रहा था। जो पल भर के लिए कौंध गया उतना ही
क्या कम है! मनमोहन ने एक और काम कर दिखाया... कांग्रेस की दस साला करतूतों के प्रति
देश के नागरिकों में जो हिकारत का भाव है, उसे उन्होंने एकसूत्रित कर दिया।
देश का प्रधानमंत्री होते हुए भी उन्होंने संवैधानिक मर्यादा को ताक पर रखते हुए एक
झटके में 'नरसंहार और नरेंद्र' को फिर से जोड़ा और कह दिया कि
मोदी का प्रधानमंत्री बनना देश के लिए 'डिजास्टरस' (विनाशकारी) होगा। डायलॉग डिलिवरी
के इस रोबॉटिक्स ने कांग्रेस से बिदके हुए लोगों को भ्रम में भटकने से रोक दिया। राजनीतिके
संकेत पढऩे वाले विद्वान मनमोहन सिंह के इस वक्तव्य को कांग्रेस बनाम भाजपा पर राजनीति
को ध्रुवीकृत करने की रणनीति तो बताते हैं लेकिन मानते हैं कि ऐसा बोल कर मनमोहन ने
भाजपा को फायदा पहुंचा दिया। सुप्रीम कोर्ट के फैसले की प्रधानमंत्री ने आउटडोर शूटिंग
में अवमानना की, इसे इतिहास और इतिहासकारों ने
दर्ज कर लिया होगा। मनमोहन के आह्वान का इतिहासकारों ने इतना खयाल तो रखा ही होगा।
बस इतनी सी बात है जो कुछ घंटे चली शूटिंग का निचोड़ है। चोरी-बटमारी पर कुछ बोला नहीं
और दस साल में लोगों के मुंह से जो बात और भात छीन लिया उस पर कुछ बोला नहीं, तो बोला क्या..? बांग्लादेश के मशहूर कवि रफीक
आजाद की कुछ पंक्तियां पहले भी एक लेख में उद्धृत की हैं। अवचेतन मन तक जब-जब तनाव
का तेजाब भरने लगता है, रफीक की पंक्तियां उन घावों पर
नमक भरने लगती हैं, अब तो घाव पर नमक अच्छा लगने
लगा है। घाव जिंदा रखना जरूरी लगता है। उन पंक्तियों को अपने देश-काल के परिप्रेक्ष्य
में थोड़ा बदल कर रखता हूं, आप भी अपने जख्मों पर इसे रगड़िए, हर वक्त उसे ताजा रखिए...
महज दो वक्त दो मुट्ठी भात मिले
/ बस और कोई मांग नहीं है मेरी / लोग तो न जाने क्या-क्या मांग लेते हैं / रिश्वत, पद, बत्ती, रुपए-पैसे भीख में / पर मेरी तो बस एक छोटी सी लोकतांत्रिक मांग
है / भूख से जला जाता है पेट का प्रांतर / मुझे तो भात चाहिए / यह मेरी सीधी सरल सी
मांग है / यह जान लो कि मुझे इसके अलावा किसी चीज की कोई जरूरत नहीं / पर अगर पूरी
न कर सको मेरी इत्ती सी मांग / पूरे मुल्क में मच जाएगा बवाल / भूखे के पास नहीं होता
है कुछ भला बुरा, कायदा कानून / सामने जो कुछ मिलेगा
खा जाऊंगा, तुम्हें भी / सब कुछ स्वाहा हो जाएगा अवाम के निवाले के
साथ / सब कुछ निगल लेने वाली महज भात की भूख खतरनाक नतीजों को साथ लेकर आने को न्यौतती
है / पृष्ठ से पृष्ठभूमि तक की भूमिका को चट कर जाती है / भात दे नेता, वर्ना मैं चबा जाऊंगा समूची राजनीति का मानचित्र...
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