Wednesday 22 January 2014

हम बारूद में जीयें और उसके फटने का स्वप्न सीयें...

प्रभात रंजन दीन
पूरा देश बोल ही तो रहा है... फिर भी क्यों लगता है ऐसा कि मैं कुछ कहना चाहता हूं। पूरा देश बोल ही तो रहा है। नेता भाषण दे रहा है, अभिनेता डायलॉग बोल रहा है, कार्यकता नारे लगा रहा है, कोई न्याय दे रहा है, कोई आश्वासन दे रहा है, कोई उपदेश दे रहा है, कोई आदेश दे रहा है, कोई गालियां दे रहा है, कोई कोस रहा है... फिर भी क्यों लगता है ऐसा कि मैं कुछ कहना चाहता हूं, पर कह नहीं पाता! अभिव्यक्ति की अराजकता की देश में पूरी आजादी है, फिर भी जो बात कहनी है, वह कही नहीं जाती। जो बात सुननी है, वह सुनी नहीं जाती। केवल शोर है। चारों ओर है। बेमतलब घनघोर है। मेरे कमरे से लेकर देश की दरो-दीवार तक अखबार और मूर्ख-बस्ते के रंगीन पर्दे पर, धूप और ठंड की चादर पर और महंगाई और मुफलिसी की चटाई पर यह मनहूस लोकतंत्र का शोर चिपक गया है। इसी शोर के साथ अन्योन्याश्रित हो गया है गोलियों के धमाके का शोर, जो किसी के सीने में उसकी बोली सुन कर उतर जाता है और उसकी चीख उसी लोकतंत्र के लाउडस्पीकर में गुम हो जाती है। अब तो इस लोकतंत्र में बहुत मुश्किल हो गया है कि किसे देशवासी बुलाएं और क्यों बुलाएं? जब देश में बोली सुन कर मारी जा रही हो गोली, फिर इतना बोलते क्यों हो! लोकतंत्र का यह शोर क्यों नहीं तय कर देता कि कोई किस भाषा में खुद को छुपाए, किस भाषा में खुद को बचाए। एक बोली में बच जाए और दूसरे प्रदेश में उसी बोली में मारा जाए। यही तो बच गया है अपना देश। अपना लोकतंत्र। दिल्ली में सब बोल रहा है। लखनऊ में सब बोल रहा है। पटना में सब बोल रहा है। सब जगह सब बोल ही रहा है। शीला बोल गईं, अब केजरीवाल बोल रहा है। माया बोल गईं, अब अखिलेश बोल रहा है। लालू बोल गया, अब नीतीश बोल रहा है। सब यही बोल रहा है, अब अच्छे दिन आएंगे। हम अच्छे दिन लाएंगे। ...जब सारे के सारे लोग अपने-अपने बुरे दिनों का बोरिया-बिस्तर बांधे भाग जाएंगे। कोई आसाम में तो कोई पंजाब तो कुछ महाराष्ट्र में मारे जाएंगे, तब! तब याद आएगा किसी ने कहा था कि मुझे बिहारियों और यूपी वाले भाइयों से प्रेम हो गया है। जहां जाता हूं कोई न कोई बिहारी या यूपी का भइया मिल जाता है। अखबार हो या चौका-चौबार। उनकी बोली से पहचान कर यही लगता है कि पिछली बार मिले थे। यह भी एक शोर है। जो कहता है उसके दिल में चोर है। वह बोलवाएगा और पहचान कर गोली मरवाएगा। फिर भी यह लोकतांत्रिक भारतवर्ष है। फिर भी यहां के लोग भारतवासी कहे जाते हैं। फिर भी बोलियों के मुताबिक भारतवासी मारे जाते हैं। तो दोस्तो! कभी कोकराझार के हमले तो कभी ठाकरे के हमले में कुचले जाने से बचा कर रख लेता हूं अपनी बोली, यह कहना जारी रखते हुए कि मैं सम्भाल कर रख लेता हूं अपनी चुप्पी, जो कायर नहीं है, बारूदी है, कभी फटूंगा तो लोकतंत्र का लाउडस्पीकर फाड़ डालूंगा। मैं यही कहना चाहता हूं, मैं जो बचा कर रख रहा हूं अपने भीतर उसे कह कर मरना चाहता हूं। मैं कोकराझार का बस यात्री नहीं, जो अपने बचाव की बोली में मिमियाकर मर जाए। नए-नए फैशन की नई-नई टोपियां पहन कर यत्र-तत्र-सर्वत्र विचरने वाली वाचाल राजनीतिक दुष्टात्माओं के सीने में घुस कर फटूंगा। मैं और मेरे जैसे तमाम लोगों की बोली, बचाव का आर्तनाद नहीं, डायनामाइट का पलीता है जो समाधान को व्यवधान मानने वालों की दरारों में घुस कर दगेगा। मैं और मेरे जैसे वे सब जो कुछ बोलना चाहते हैं, पर बोल नहीं पाते, बारूद में ही बसे रहने का सपना साकार करना चाहते हैं। सपना बढ़ता जाएगा, विकराल हो जाएगा और बोझ से फट कर साकार हो जाएगा। हम बारूद में जीयें और उसके फटने का स्वप्न सीयें... 

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