Friday 24 February 2012

नैतिकता का क्षय हो... नेता तेरी जय हो...

भारतीय लोकतंत्र की यही खासियत है कि सियासत के आगे सबकुछ धराशाई है। संविधान कानून नीति और नैतिकता सब राजनीतिपरक है, सत्ता-परक है। यह भारत की विशेषता है कि आजादी के बाद से आज तक बाहरी और आंतरिक प्रतिष्ठा बचाने में सेना अपनी कुर्बानी देती रही और नेता नौकरशाह उसका मान मर्दन करता रहा। यह भारत में ही होता है कि सेना अपमानित कर रखी जाती है। योद्धा का मनोबल कुचल कर रखना राजनीतिकों को अपना अस्तित्व बचाए रखने के लिए जरूरी होता है। सेना का मनोबल देश का मनोबल बढ़ाता है... यह बात अपने देश के लिए बेमानी है।
भारतीय सेना के मौजूदा अध्यक्ष जनरल वीके सिंह ने अपनी जन्मतिथि का मसला अब क्यों उठाया और केंद्र सरकार ने 1951 के बजाय 1950 पर ही अपना अडिय़ल रवैया क्यों अख्तियार किया, जनरल सिंह न्याय पाने के हकदार ही नहीं थे या उनके इस अधिकार को तिकड़मों में जकड़ दिया गया, इस पर अब बहस की कोई जरूरत नहीं। ...और सुप्रीम कोर्ट के न्यायप्रिय रुख को देखते हुए इस पर कोई बात करने का औचित्य भी नहीं। आखिर सुप्रीमकोर्ट के ऊपर तो कुछ नहीं... तो न्याय-व्याय की बातों को यहीं पूर्णविराम दे दें!
बहस के बजाय वजह पर विचार करें तो तस्वीर साफ साफ साफ दिखती है। पूरे देश में हाई स्कूल का प्रमाणपत्र किसी भी व्यक्ति की जन्मतिथि का आखिरी निर्णायक दस्तावेज माना जाता है। यह मानक संवैधानिक है और इसी पर सम्पूर्ण कार्मिक प्रक्रिया चल रही है। सेना का मिलिट्री सेक्रेट्री ब्रांच भी इसे ही मानता है और इसीलिए जनरल वीके सिंह के मामले में वह 10 मई 1951 को ही उनकी असली जन्मतिथि मान कर चल रहा था। चलिए एक खास केस में केंद्र सरकार इसे नहीं मानती... तो सुप्रीमकोर्ट भी नहीं मानती...! जनरल सिंह को छोड़ कर बाकी दस लाख से अधिक फौजियों की जन्मतिथि का आधार तो वही हाईस्कूल सर्टिफिकेट ही होगा...! ठीक है, जनरल सिंह की जन्मतिथि पर वह मान्य नहीं होगा। क्योंकि थलसेना की पूर्वी कमान के जीओसी इन सी लेफ्टिनेंट जनरल बिक्रम सिंह को इसी बीच थलसेना का अध्यक्ष बनना है। लेफ्टिनेंट जनरल सरदार बिक्रम सिंह देश के प्रधानमंत्री सरदार मनमोहन सिंह की पसंद हैं। वजह यहां है, जिस पर बहस हो नहीं रही।
सत्ता-परक पसंद पर तो इसके पहले भी तमाम योद्धाओं की बलि ली जाती रही है। भारतीय सेना के अंग्रेज सेनाध्यक्ष जनरल रॉय बूचर से कमांडर इन चीफ का पद लेकर सेना को अपना नेतृत्व देने वाले जनरल केएम करियप्पा के योगदानों को भुलाकर उन्हें सेना के तीनों अंगों के कमांडर इन चीफ से हटा कर चीफ ऑफ आर्मी स्टाफ बना दिया गया था। ये वही जनरल करियप्पा थे, जिनके बेटे फ्लाइट लेफ्टिनेंट केसी नंदा को 1965 के युद्ध में पाकिस्तान ने युद्धबंदी बना लिया था और पाकिस्तानी सेना के चीफ जनरल अय्यूब खान ने जनरल करियप्पा को फोन करके उनके बेटे को रिहा कर देने की पेशकश की थी। जनरल अय्यूब खान जनरल करियप्पा के जूनियर के रूप में काम कर चुके थे। जनरल करियप्पा ने अय्यूब खान की इस पेशकश को यह कहते हुए ठुकरा दिया था कि ‘वह मेरा नहीं देश का बच्चा है, अन्य युद्धबंदियों के साथ ही वह भी छूट कर आएगा अन्यथा नहीं आएगा।’ उस शख्सियत को कमांडर इन चीफ के पद से हटा कर चीफ ऑफ आर्मी स्टाफ बना दिया गया था और उन्हीं के सामने सेना को तीन टुकड़ों में तोड़ कर जवाहर लाल नेहरू ने उनकी मंशा पर आघात करने वाला बड़ा सवाल उछाल दिया था। 1986 में जनरल करियप्पा को फील्ड मार्शल का मानद पद देकर सत्ता पर बैठी कांग्रेस ने अपने कृत्यों पर पर्दा डालने की कोशिश की, लेकिन भारत के सीने पर लगा घाव कहीं अधिक गहरा है।
भारतीय सेना के अध्यक्ष जनरल केएस थिमैया के साथ भी तो ऐसा ही हुआ था। सेना में उनके गौरवशाली योगदान को नजरअंदाज करते हुए जवाहर लाल नेहरू की सरकार के रक्षा मंत्री वीके कृष्ण मेनन ने जनरल थिमैया के चीन से मुकाबले के ‘वार प्लान’ को खारिज कर दिया था। इससे आहत जनरल थिमैया ने सेनाध्यक्ष के पद से इस्तीफा दे दिया। नेहरू ने पहले तो उनका मनोबल तोड़ा फिर कूटनीतिक तरीके से उनका इस्तीफा वापस कराया। नतीजा यही हुआ कि हम चीन से बुरी तरह हारे... लेकिन फिर भी नहीं सुधरे। याद रखें कि नेहरू सरकार के रक्षा मंत्री कृष्ण मेनन ही सेना की जीप खरीद के घोटाले में लिप्त थे।
अमृतसर में सिखों के पवित्र स्वर्ण मंदिर साहिब पर हमला करने की रणनीति बनाने से मना करने पर लेफ्टिनेंट जनरल एसके सिन्हा सेनाध्यक्ष नहीं बनाए गए थे। सिखों के पवित्र स्वर्ण मंदिर पर हमला करने की योजना बनाने से मना करने और ऐसा करने से आगाह किए जाने की सजा उपसेनाध्यक्ष लेफ्टिनेंट जनरल एसके सिन्हा को मिली और तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने उनके जूनियर अधिकारी को उनके ऊपर सेनाध्यक्ष के रूप में स्थापित करने की घोषणा कर दी। इस पर लेफ्टिनेंट जनरल एसके सिन्हा ने बड़े विनम्र और मर्यादित तरीके से इस्तीफा दे दिया था। धर्म निरपेक्षता के राजनीतिक नारे पीटने वाली कांग्रेस ने उस समय भी एक संजीदा धर्म निरपेक्ष व्यक्ति की बलि ली थी।
भारतीय सेना ऐसे उदाहरणों से भरी पड़ी है... जहां घोटालेबाज ऊंचा ओहदा पाते रहे, ओछी हरकतें करते रहे और सत्ता गलियारे में प्रतिष्ठा पाते रहे। करगिल के थोपे युद्ध के दोषी और अंडे बेचने के आरोपी दीपक कपूर को सेनाध्यक्ष बना दिया जाता है। श्रीलंका में भारतीय सेना को तमिल चीतों के हाथों पिटवाने वाले व्यक्ति डीएस चौहान को मध्य कमान का जीओसी इन सी बना दिया जाता है। ...और सैन्य आयुधों की आपराधिक हेराफेरी करने वाले आला अफसरानों   को उजागर करने वाले मेजर आनंद को हथकडिय़ों में जकड़कर जेल में ठूंस दिया जाता है। जनरल दीपक कपूर के घोटालों का भंडाफोड़ करने वाले लेफ्टिनेंट जनरल एचएस पनाग को लखनऊ स्थानान्तरित कर सेनाध्यक्ष बनने से वंचित कर दिया जाता है। सुकना भूमि घोटाला और आदर्श अपार्टमेंट घोटाले को निर्णायक स्थितियों तक ला पहुंचाने वाले जनरल वीके सिंह को जन्मतिथि विवाद का तिकड़म रच कर नियोजित तरीके से निबटा दिया जाता है... यह भारत है और यही है हमारे देश की राजनीतिक-प्रशासनिक-न्यायिक व्यवस्था... हमें अब यही कहना चाहिए, नैतिकता का क्षय हो... नेता तेरी जय हो...

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