Friday 21 December 2018

मुस्लिम महिलाओं के चेहरे पर खुशी और आत्मविश्वास हम क्यों नहीं देखना चाहते..?


प्रभात रंजन दीन
तीन तलाक के मसले पर ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल बोर्ड ने केंद्र सरकार को यह चेतावनी दी कि अगर तीन तलाक को रोकने के लिए केंद्र ने कानून बनाया तो बोर्ड सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाएगा। इस चेतावनी के बरक्स ऑल इंडिया महिला मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड ने तीन तलाक रोकने के लिए सख्त कानून लाने की हिमायत की और तमाम राजनीतिक दलों से यह अपील की कि विधेयक को राज्यसभा से पारित होने और मुस्लिम महिलाओं के हित-संरक्षण का कानून बनने में वे सहयोग दें।
कांग्रेस इस मसले पर चुप है, या यह भी कह सकते हैं कि मुखर नहीं है, लेकिन वह इस मसले पर भाजपा को बढ़त लेते नहीं देखना चाहती। अन्य प्रमुख विपक्षी दल भी चुप्पी ही साधे हैं। तीन तलाक के चलन को सुप्रीम कोर्ट ने भी असंवैधानिक करार दिया है और केंद्र सरकार से कहा है कि अगर वह इस असंवैधानिक चलन को रोकना चाहती है तो कानून बना सकती है। केंद्र सरकार अध्यादेश लेकर आई, लेकिन अध्यादेश मानने को कोई तैयार नहीं है। सुप्रीम कोर्ट के मंतव्य और केंद्र सरकार के अध्यादेश के बावजूद तीन तलाक जारी है।
शाहबानो प्रकरण में कांग्रेस सरकार के तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने सुप्रीम कोर्ट के फैसले के विपरीत जाकर तलाक संरक्षण कानून बनाया था। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की मौजूदा भाजपा सरकार मुस्लिम महिलाओं के विवाह अधिकार को संरक्षण देने वाला कानून बनाने का प्रयास कर रही है। इन दोनों कानून के फर्क को देखना होगा। मानवीयता कहां है और तुष्टिवादिता कहां हैं, इसे रेखांकित करना होगा। हमारे राजनीतिक दल किसे संरक्षण देने की अधिक फिक्र करते हैं, इसे स्पष्ट तौर पर समझना होगा। कौन सा फैसला सुप्रीम कोर्ट के फैसले के खिलाफ जाकर लिया गया और कौन सा फैसला सुप्रीम कोर्ट के फैसले के अनुरूप लिया गया, इसे संवैधानिक कसौटी पर कस कर सही या गलत के फर्क को तय करना ही होगा...
हम राजनीतिक सहमतियां और असहमतियां रख सकते हैं। लोकतंत्र की यही खूबसूरती है। लेकिन हम इतने भी राजनीतिक न हो जाएं कि हम सामाजिक और मानवीय संवेदनशीलता के भाव से दूर हो जाएं। मुस्लिम महिलाओं के लिए विवाह अधिकार संरक्षण कानून बनाने की पहल मानवीय पहल है। इसमें हम राजनीति क्यों तलाशते हैं? मानवीय दृष्टिकोण क्यों नहीं तलाशते? किसी नासमझ पति के तीन तलाक के अहमकी ऐलान से कोई महिला किन दुरूह परिस्थितियों का सामना करती है, उसे हम महसूस करेंगे कि नहीं? नासमझ शौहर को तलाक का पश्चाताप होने पर उस निरीह महिला को हलाला जैसी किन वीभत्स दुर्गतियों से गुजरना होता है, वह उसका मन और उसका शरीर ही जानता है और भुगतता है। किसी मर्द को यह कैसे स्वीकार होता है? ऐसे चलन को अगर बद-चलन कहा जाए तो इसमें कौन सा राजनीतिक विचार आड़े आता है? जरा बताइये? कट्टरता और अहमकपने से समाज नहीं चलता। समाज मानवीयता और सदाशयता से चलता है। देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू जब हिंदू कोड बिल ला रहे थे, तब इसी तरह कट्टर हिंदूवादी अहमक चिल्लपों मचाए हुए थे। लेकिन इन विरोधों के बावजूद हिंदू कोड बिल पास हुआ और उसका फायदा हिंदू महिलाओं के संरक्षित अधिकार और उनके आत्मविश्वास से झलकता है। ऐसा ही आत्मविश्वास मुस्लिम महिलाओं के चेहरे पर भी तो दिखना चाहिए। इसमें किसी को आपत्ति क्यों हो? ...और अगर आपत्ति होगी तो उसे गैर-मानवीय और गैर-कानूनी माना ही जाना चाहिए। इसी मसले पर ‘इंडिया वाच’ समाचार चैनल ने चर्चा आयोजित की, आप भी देखें, सुनें, विचार करें और विचार दें...

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