Friday 1 June 2018

यूपी के उद्योग धंधे ले डूबी सिडबी

प्रभात रंजन दीन
उत्तर प्रदेश के करीब-करीब सभी बड़े कारखाने बंद हो चुके हैं. जिन मंझोले और लघु उद्योग-धंधों पर यूपी को कभी नाज था, आज उन उद्योगों का भी समापन किस्त ही चल रहा है. मध्यम और लघु उद्योगों को जिंदा रखने और उन्हें संवर्धित करने के लिए भारतीय लघु उद्योग विकास बैंक (सिडबी) की स्थापना हुई थी. सिडबी का मुख्यालय उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ में बनाया गया था. इससे लोगों की उम्मीद जगी थी कि प्रदेश के मंझोले और लघु उद्योगों को ऑक्सीजन मिलता रहेगा और कालीन, चूड़ी, पीतल के बर्तन, बुनकरी और ताले बनाने से लेकर मिट्टी के बर्तन बनाने और चिकनकारी से लेकर कशीदाकारी जैसी हमारी ढेर सारी अन्य पारंपरिक कलाएं जिंदा रहेंगी और रोजगार के लिए कारीगरों को कहीं अन्यत्र हाथ नहीं पसारना पड़ेगा. लेकिन सिडबी ने इन उद्योग धंधों का सत्यानाश करके रख दिया. प्रदेश के मंझोले और लघु उद्योग बंद होते चले गए और यहां के कारीगर आज बड़े शहरों में दिहाड़ी मजदूर बन कर अपनी आजीविका चला रहे हैं. नाबार्ड और सिडबी जैसी सरकारी वित्तीय संस्थाएं बड़े-बड़े व्यापार में पैसा लगाने वाले कॉरपोरेट-फिनांशियल हाउस में तब्दील हो चुकी हैं और अफसरों की अय्याशी का अड्डा बन गई हैं. नाबार्ड पर हम बाद में चर्चा करेंगे. अभी हम सिडबी की अराजकता, शीर्ष प्रबंधन की निरंकुशता और अय्याशी पर चर्चा करेंगे और आपको विस्तार से बताएंगे कि सीडबी अपने मूल दायित्वों को छोड़ कर किस-किस तरह के धंधों और कारगुजारियों में लगी है.
आईएएस अफसर धीरे-धीरे देश के सारे तंत्र को ग्रस लेंगे. सिडबी भी नौकरशाही के शिकंजे में कसी है. आईएएस अफसर आते हैं, अराजकता फैलाते हैं, मनमानी करते हैं और नई तैनाती पर छलांग लगा कर चले जाते हैं और संस्था रसातल में जाती रहती है. सिडबी के मौजूदा चेयरमैन मोहम्मद मुस्तफा अभी सिडबी को रसातल पहुंचाने में लगे हैं. इसके पहले आईएएस अधिकारी डॉ. छत्रपति शिवाजी सिडबी के सीएमडी थे, दो साल रहे और मनीला के एशियन विकास बैंक में एक्जक्यूटिव डायरेक्टर होकर चले गए. सिडबी के शीर्ष पदों पर कैडर के अधिकारियों या बैंकिंग विशेषज्ञों को तैनात करने के बजाय आईएएस अफसरों को तैनात करने का चलन इन खास विशेषज्ञता वाले संगठनों को बर्बाद कर रहा है. पिछले पांच साल का सिडबी का काम देखें तो पाएंगे कि इस दरम्यान सिडबी ने मुद्रा बैंक के गठन के अलावा कुछ नहीं किया, लेकिन वह भी अपने मूल उद्देश्य से भटक गया. मुद्रा बैंक प्रधानमंत्री मुद्रा योजना का हिस्सा है. मुद्रा बैंक को माइक्रो-फाइनांस (सूक्ष्म वित्त) के नियामक के रूप में, निगरानीकर्ता के रूप में और पुनरवित्त प्रदाता के रूप में काम करना था, लेकिन उसने पुनर्वित्त के अलावा कुछ नहीं किया. बहरहाल, अभी हमारा मुद्दा सिडबी है, मुद्रा बैंक नहीं. सिडबी ने प्रधानमंत्री की स्टैंडअप और स्टार्टअप जैसी महत्वाकांक्षी योजनाओं के लिए भी उत्तर प्रदेश में कुछ नहीं किया. उत्तर प्रदेश के सूक्ष्म लघु मध्यम उद्यम के लिए सिडबी प्रबंधन कोई बड़ी कार्ययोजना लेकर सामने नहीं आ सका.
जनता के पास वित्तीय उत्पादों के साथ वित्तीय समावेशन के नए-नए तरीके और रणनीति लेकर जाने के बजाय सिडबी घिसी-पिटी तकनीक और कागजी घोड़े ही दौड़ाती रह गई. सिडबी ने जो भी ऋण बांटे हैं वो उत्तर प्रदेश के आकार और उसकी जरूरतों के हिसाब से अत्यंत कम हैं. देश की अर्थव्यवस्था में उत्तर प्रदेश का 15 प्रतिशत हिस्सा है. आधिकारिक तौर पर अभी उत्तर प्रदेश में दो हजार मंझोले उद्योग और करीब साढ़े तीन लाख लघु उद्योग बचे हैं. सिडबी ने उत्तर प्रदेश के लिए क्या किया है, इसका अगर आधिकारिक आंकड़ा देखें तो आपको शर्म आएगी. सिडबी ने पिछले पांच साल में उत्तर प्रदेश के मात्र 418 ग्राहकों को महज 491 करोड़ रुपए का ऋण दिया. यह ऋण कुल बांटे गए ऋण का छह प्रतिशत से भी कम है. यह तब है जब सिडबी का मुख्यालय लखनऊ में है. यूपी को लेकर सिडबी ने कभी कोई कार्ययोजना बनाई ही नहीं. अगर यूपी को लेकर सिडबी का शीर्ष प्रबंधन गंभीर होता तो क्या अलीगढ़, बरेली, रायबरेली की शाखाएं बंद हो जातीं! लखनऊ के अलावा वाराणसी, इलाहाबाद, कानपुर, आगरा, गाजियाबाद, नोएडा और नोएडा विस्तार मिला कर अब सिडबी की कुल आठ शाखाएं बची हैं. इनमें से तीन शाखाएं गाजियाबाद, नोएडा और नोएडा विस्तार राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र में होने की वजह से हैं. यूपी के मंझोले और लघु उद्योगों के पारंपरिक केंद्र मसलन, मुरादाबाद, अलीगढ़, बरेली, गोरखपुर, भदोही, शाहगंज (हरदोई), मिर्जापुर, बलरामपुर, फिरोजाबाद, मेरठ, मोदीनगर, बुलंदशहर सीडबी की प्राथमिकता पर नहीं हैं, इसीलिए इन शहरों में सिडबी ने कभी अपनी शाखा तक नहीं खोली.
विडंबना यह है कि सिडबी ने न तो उत्तर प्रदेश के लिए कारगर योजना बनाई और न प्रदेश के मंझोले और लघु उद्योगों की माली हालत का पता लगाने के लिए कोई आर्थिक सर्वेक्षण ही कराया. यह काम सिडबी की प्राथमिक जिम्मेदारियों में शामिल था, लेकिन सिडबी के शीर्ष प्रबंधन ने आर्थिक विशेषज्ञों को भी सामान्य कैडर में समाहित कर देश और प्रदेश के मंझोले और लघु उद्योगों की आर्थिक स्थिति के अध्ययन, प्रयोग और विकास की संभावनाओं पर कुल्हाड़ी चला दी. एक तरफ सिडबी में आर्थिक विशेषज्ञों की नियुक्ति बंद कर दी गई तो दूसरी तरफ ‘बैक-डोर’ से नाते-रिश्तेदारों की भर्ती जारी रही. सिडबी के लीगल मुख्य महाप्रबंधक उमा शंकर लाल की बेटी वंदिता श्रीवास्तव को नियुक्त करने में शीर्ष प्रबंधन को कोई नैतिक-संकोच नहीं हुआ. बेटे-बेटियों और रिश्तेदारों की भर्ती का सिडबी में पुराना चलन है. पहले भी मुख्य महाप्रबंधक रामनाथ के बेटे महेश्वर किंगोप्पा की भर्ती सीधे प्रबंधक के पद पर कर ली गई थी. सिडबी के आईएएस अध्यक्ष इस महकमे को अपना पैतृक राज समझते हैं. मौजूदा दौर में यह प्रवृत्ति अराजकता की स्थिति तक बढ़ गई है. मनमानी का आलम यह है कि सिडबी के मौजूदा अध्यक्ष मोहम्मद मुस्तफा ने रिटायर होने जा रहे अपने दो वफादार अधिकारियों को निदेशक के पद पर नियुक्त करने का फैसला ले लिया. जबकि अखिल भारतीय सिडबी अधिकारी संघ निदेशक मंडल में अपनी भागीदारी की लगातार मांग कर रहा है, जैसा अन्य सभी बैंकों में होता है. लेकिन संघ की मांग को ताक पर रख कर चेयरमैन अपनी मनमानी कर रहा है. सिडबी में जूनियर अधिकारियों के अधिकारों और वित्तीय सुविधाओं को खत्म करने वाले आला अधिकारियों को सलाहकार का मलाईदार ओहदा देकर पुरस्कृत किए जाने का अपराध किया जा रहा है.

धन डुबोने में सिडबी भी पीछे नहीं
स्टेट बैंक हो या पंजाब नेशनल बैंक या इन जैसे दूसरे राष्ट्रीयकृत बैंक जिन्हें पैसे डुबोने में महारत हासिल है, उसमें छोटे दायरे में होने के बावजूद सिडबी भी शामिल है. सिडबी के ‘नॉन परफॉर्मिंग एसेट्स’ (एनपीए) का हाल भी देखते चलें. सिडबी का एनपीए 1554 करोड़ रुपए है, जिसमें यूपी में 96 करोड़ की एनपीए की राशि को बट्टे खाते में डालने की तैयारी चल रही है. यूपी में सिडबी के करीब 20 फीसदी खाते एनपीए हो चुके हैं. हालत यह है कि उत्तर प्रदेश में सिडबी जो भी ऋण देती है उसकी 15 प्रतिशत धनराशि एनपीए का हिस्सा होती है.

सिडबी को नहीं दिखता यूपी का बदहाल लघु उद्योग
उत्तर प्रदेश के लगातार बंद होते मंझोले और लघु उद्योग धंधे सिडबी के शीर्ष प्रबंधन को नहीं दिखते. शीर्ष प्रबंधन पर बैठे अधिकारियों को केवल अपना गोरखधंधा दिखता है. छोटे उद्योग धंधों का हाल यह है कि इससे रोजगार पाने वाले लाखों कारीगर बेरोजगार हो गए. बनारस और भदोही के कालीन हमारी परंपरा से जुड़े हैं, लेकिन कालीन का धंधा तेजी से बंद हो रहा है और कालीन के बुनकर पलायन कर रहे हैं. कालीन निर्यात संवर्धन परिषद (सीईपीसी) का आंकड़ा बताता है कि देशभर में अगर 20 लाख कालीन बुनकर हैं तो 13 लाख भदोही, बनारस और उसे सटे जिलों के रहे हैं. देशभर के कालीन निर्माण में अकेले भदोही का योगदान 60 प्रतिशत से अधिक रहा है. सिडबी जैसे वित्तीय संस्थानों की उपेक्षा के कारण कालीन का व्यापार तेजी से घटा. व्यापारियों को भारी नुकसान हुआ. जो कारीगर पलायन कर गए वे वापस नहीं लौटे. उत्तर प्रदेश में भदोही, मिर्जापुर, वाराणसी, घोसिया, औराई, आगरा, सोनभद्र, सहारनपुर, सहजनपुर, जौनपुर, गोरखपुर जैसे इलाके कालीन के काम के लिए जाने जाते हैं. लेकिन इनमें से अधिकांश बंद हो चुके हैं. यही हाल ताला-नगरी के नाम से मशहूर अलीगढ़ का हुआ. देश का 75 प्रतिशत ताला अलीगढ़ में बनता रहा है. लेकिन आज अलीगढ़ का ताला उद्योग भी बंदी की कगार पर है. कुछ ही अर्से में अलीगढ़ के करीब डेढ़ हजार से अधिक कारखानों पर ताले लटक चुके हैं. करीब हजार उद्योग धंधे बंद होने की स्थिति में हैं. अलीगढ़ में ताले के साथ-साथ हार्डवेयर और अल्युमिनियम डाईकास्टिंग का काम भी बड़े पैमाने पर होता था. अलीगढ़ की जिंक डाई-कास्टिंग, पीतल की मूर्तियों और ऑटो पा‌र्ट्स की भी पूरे देश में मांग थी, लेकिन सब चौपट हो गया. यही हाल कभी औद्योगिक क्षेत्र के रूप में विख्यात कानपुर, जौनपुर, मेरठ, मुरादाबाद, बरेली, फिरोजाबाद समेत अन्य जिलों का भी हुआ. उत्तर प्रदेश में 75 प्रतिशत उद्योग असंगठित क्षेत्र में हैं, जिनके संवर्धन के लिए सिडबी ने कुछ नहीं किया. माली हालत खस्ता होने के कारण उत्तर प्रदेश के लघु स्टील उद्योग से 40 फीसदी कामगारों की छंटनी की जा चुकी है. उत्तर भारत का होजरी और रेडीमेड कपड़ों का कारोबार भी सिडबी की कृपा से चौपट होने पर है. आगरा का जूता कारोबार भी मुश्किल में है. आगरा में छोटे-छोटे 10 हजार से ज्यादा कुटीर उद्योग हैं जो जूते बनाते हैं. यहां के 40 फीसदी लोगों की रोजी-रोटी जूते के कारोबार से चलती है. उनका धंधा चौपट हो रहा है, लेकिन सिडबी को इसकी कोई चिंता नहीं.

सिडबी के ‘फ्रॉड्स’ नायाब, लीपापोती के तौर-तरीके भी नायाब
जिन बैंकों से जनता का सीधा लेन-देन होता है, वहां के घपलों, घोटालों और फर्जीवाड़ों (फ्रॉड्स) पर आम लोगों की निगाह रहती है, लेकिन सिडबी जैसी संस्थाएं आम लोगों की निगाह से बची रहती हैं. इसलिए इन संस्थाओं के घपले, घोटाले आम चर्चा में नहीं आ पाते. लेकिन आप तथ्यों में झांकेंगे तो आपको सिडबी में घोटालों की भरमार दिखेगी और घोटालों की लीपापोती के विचित्र किस्म के तौर-तरीके दिखेंगे. घोटाले भी नायाब और उसकी लीपापोती के तौर-तरीके भी नायाब.
अभी हाल में ही सिडबी के ओखला ब्रांच में भारी-भरकम घोटाला हुआ. दिल्ली के औद्योगिक क्षेत्र के इस ब्रांच में बड़े-बड़े पूंजी घरानों के साथ मिलीभगत करके घोटाला होता रहा. यह शीर्ष प्रबंधन की जानकारी में था, लेकिन दोषी अधिकारियों या दोषी पूंजी घरानों के खिलाफ कोई कानूनी कार्रवाई की पहल नहीं की गई. विचित्र तथ्य यह है कि जिन पूंजी घरानों को देश के 21 राष्ट्रीयकृत बैंकों के ‘कन्सॉर्टियम’ ने पहले से ‘फ्रॉड’ घोषित कर रखा था, उन्हीं ‘फ्रॉड’ कंपनियों के साथ मिलीभगत करके सिडबी के अधिकारी घोटाले करते रहे. सिडबी के शीर्ष प्रबंधन पर बैठे अधिकारियों को इतना भोलाभाला (इन्नोसेंट) नहीं समझा जा सकता कि उन्हें घोषित फ्रॉड कंपनियों के बारे में जानकारी नहीं थी. स्पष्ट है कि घोटालों में शीर्ष प्रबंधन की मिलीभगत थी. जब 2,240 करोड़ रुपए के बैंक फ्रॉड में सूर्य विनायक इंडस्ट्रीज लिमिटेड (एसवीआईएल) के मालिकों और मुलाजिमों को अप्रैल 2017 में गिरफ्तार किया गया, तब भी सिडबी ने अपने महकमे में चल रहे घोटाले की सीबीआई को जानकारी नहीं दी. साल भर बाद जब सिडबी को भनक लगी कि सीबीआई सिडबी के फ्रॉड की भी गुपचुप जांच कर रही है तब हड़कंप मचा और आनन-फानन ओखला ब्रांच के डिप्टी जनरल मैनेजर ऋषि पांडेय के जरिए सूर्य विनायक इंडस्ट्रीज लिमिटेड (एसवीआईएल), इसके मालिक संजय जैन, राजीव जैन, एचआर परफ्यूमरी के मालिक संजय त्यागी, जयन सुगंधी प्रोडक्ट्स के मालिक किशन जैन और सिडबी के अज्ञात अधिकारियों के खिलाफ सीबीआई में औपचारिक शिकायत पेश की गई. सीबीआई ने 18 अप्रैल 2018 को एफआईआर (आरसी-219/2018/ई-0006) दर्ज कर औपचारिक रूप से मामले की जांच शुरू की.
बात यहीं खत्म नहीं होती. असली बात तो यहीं से शुरू होती है. पांच फ्रॉड कंपनियों के खिलाफ एफआईआर दर्ज कराने वाले सिडबी प्रबंधन को अपने महकमे के फ्रॉड अधिकारियों के नाम नहीं पता थे, इसलिए अज्ञात अधिकारियों के खिलाफ एफआईआर दर्ज हुई. सिडबी के शीर्ष प्रबंधन की यह हरकत अपने आप में ही एक फ्रॉड है. अब दूसरा पहलू देखिए... उधर सीबीआई की जांच शुरू हुई और इधर सिडबी प्रबंधन ओखला ब्रांच बंद कर उसे नई दिल्ली शाखा में विलीन करने की गुपचुप तैयारी में लग गया. ओखला ब्रांच के जिस डिप्टी जनरल मैनेजर ऋषि पांडेय ने सीबीआई में कम्प्लेंट दर्ज कराई, उसका तबादला देहरादून कर दिया गया. पांडेय को पुरस्कृत कर देहरादून का हेड बना दिया गया. पेंच अभी और हैं. सिडबी के ओखला ब्रांच के डिप्टी जनरल मैनेजर रहे ऋषि पांडेय के भाई दुर्गेश पांडेय सिडबी के फ्रॉड्स और अनियमितताओं पर नजर रखने वाले विभागीय महकमे ‘स्ट्रेस्ड असेट्स एंड एनपीए मैनेजमेंट’ के महाप्रबंधक हैं. उसी के मुख्य महाप्रबंधक उमा शंकर लाल हैं, जिन्होंने अपनी बिटिया की सीधी नियुक्ति उस कैडर में करा ली, जिस कैडर को अर्सा पहले खत्म कर दिया गया था. ऐसे अधिकारियों और उन्हें संरक्षण देने वाले चेयरमैन से आप कैसे उम्मीद कर सकते हैं कि सिडबी में कोई घोटाला या अनियमितता न हो! उल्लेखनीय है कि सीबीआई 44 विभिन्न बैंकों के जिन 292 बड़े घोटालों (स्कैम्स) की छानबीन कर रही है, उनमें ‘स्मॉल इंडस्ट्रीज़ डेवलपमेंट बैंक’ यानि सिडबी के घोटाले भी शामिल हैं. मुस्तफा के कार्यकाल में जनवरी 2018 से मई 2018 के बीच महज पांच महीनों में सिडबी में 16 फ्रॉड हो चुके हैं.

मुख्यालय लखनऊ में, पर मुम्बई में खूंटा क्यों ठोके रहते हैं चेयरमैन ?
भारतीय लघु उद्योग विकास बैंक (सिडबी) के आईएएस चेयरमैन मोहम्मद मुस्तफा से कोई यह नहीं पूछता कि सिडबी का मुख्यालय लखनऊ में है तो वे मुम्बई में क्या करते रहते हैं! ऐसे ही अराजक नौकरशाहों के बूते सरकारें चल रही हैं. कोई यह पूछने वाला नहीं कि सिडबी का प्रधान कार्यालय लखनऊ में है तो इसका संचालन मुम्बई से क्यों किया जा रहा है! मुस्तफा ने मुम्बई को सिडबी का ‘डिफैक्टो-हेडक्वार्टर’ बना रखा है, उन्हें मुम्बई में ही बैठना अच्छा लगता है. महीने में कभी-कभार लखनऊ आकर वे लखनऊ मुख्यालय को उपकृत करते हैं और चले जाते हैं. सिडबी की सारी नीतियां मुम्बई में बनती हैं और इसमें यूपी की हिस्सेदारी नगण्य रहती है. लखनऊ मुख्यालय के लिए गोमती नगर विस्तार में डायल-100 के सामने एक एकड़ का प्लॉट अलग से लिया गया है. सौ एकड़ जमीन पर चार मंजिली इमारत बनाने की योजना के औचित्य पर सवाल उठ रहे हैं और कहा जा रहा है कि चेयरमैन खुद तो मुम्बई में हाजी अली के पॉश इलाके में डेढ़ लाख रुपए महीने के किराए पर आलीशान फ्लैट में रहते हैं. जबकि माटुंगा में बना उनका आधिकारिक फ्लैट खाली पड़ा हुआ है. सिडबी के चेयरमैन बांद्रा कुर्ला परिसर स्थित सिडबी कार्यालय को मुख्यालय बनाए बैठे हैं, वहीं से सारा काम करते हैं और अखबारों में बयान देते रहते हैं कि सिडबी का मुख्यालय लखनऊ से बाहर नहीं जाएगा.
अब दिल्ली कार्यालय का हाल देखिए. दिल्ली के कस्तूरबा गांधी मार्ग पर बने आलीशान अंतरिक्ष भवन की 11वीं मंजिल पर सिडबी का ऑफिस है. इसका किराया तीन लाख रुपए महीना है. यहां भी मुस्तफा का भव्य कक्ष बना है. एक तरफ सिडबी के कर्मचारियों का वाजिब हक मारा जा रहा है तो दूसरी तरफ बैंक का या कहें देश का पैसा पानी की तरह बहाया जा रहा है. सिडबी के अधिकारी बताते हैं कि चेयरमैन मोहम्मद मुस्तफा ने कोलकाता, इंदौर, कोयंबटूर और फरीदाबाद समेत पांच क्षेत्रीय कार्यालय बंद करा दिए. ये सभी क्षेत्रीय कार्यालय लखनऊ ला दिए गए. मुस्तफा के इस कृत्य के बाद पूर्वी भारत में अब सिडबी का कोई क्षेत्रीय कार्यालय नहीं बचा. बिहार, बंगाल, ओड़ीशा, झारखंड जैसे राज्यों का क्षेत्रीय कार्यालय अब कोलकाता न होकर लखनऊ है. इसके पीछे चेयरमैन का इरादा क्या है? इस सवाल का जवाब तलाशने के क्रम में अजीबोगरीब तथ्य सामने आए. दरअसल तमाम क्षेत्रीय कार्यालय बंद करने के पीछे सिडबी के बेशकीमती फ्लैट्स और कोठियां बेच डालने का षडयंत्र है. गहराई में जाने पर पता चला कि महत्वपूर्ण स्थानों पर बने सिडबी के करीब सौ फ्लैट्स बेचे जा रहे हैं. चेयरमैन की इस कारस्तानी का विरोध करने का खामियाजा महाप्रबंधक स्तर के एक अधिकारी मुकेश पांडेय ने भुगता जिनका मुम्बई से नई दिल्ली तबादला कर दिया गया. एक आला अधिकारी ने बताया कि किसी भी वित्तीय संस्था के भवन, फ्लैट्स या वाणिज्यिक प्लॉट्स तभी बेचे जाते हैं जब संस्था दिवालिया होने की कगार पर हो या भीषण आर्थिक संकट की स्थिति में हो. जैसे आईएफसीआई या आईडीबीआई अपना घाटा पूरा करने के लिए अपने फ्लैट्स और कोठियां बेच रही है. सिडबी हजार करोड़ से भी अधिक का मुनाफा कमाने वाली वित्तीय संस्था है. लिहाजा संस्था के फ्लैट्स और भवन बेचना पूरी तरह संदेह के घेरे में है.
उल्लेखनीय है कि सिडबी के फ्लैट्स और कोठियां देश के बड़े शहरों के ‘प्राइम लोकेशंस’ पर हैं. वे बेशकीमती हैं. देशभर में सिडबी के कुल 602 आलीशान फ्लैट्स अधिकारियों के लिए और 87 सामान्य फ्लैट्स श्रेणी-3 और श्रेणी-4 के कर्मचारियों के लिए हैं. उत्तर प्रदेश में सिडबी के 124 फ्लैट्स हैं, जिसमें बनारस के दो आलीशान फ्लैट्स बेचे जा चुके. अब सिडबी के लखनऊ स्थित आठ फ्लैटों को बेचने की तैयारी है. इसके लिए 09 मई 2018 को लखनऊ के एक अखबार में विज्ञापन भी छपवाया गया. इसके अलावा कोलकाता, चंडीगढ़, बंगलुरु, लुधियाना, भोपाल, कोच्चि, पणजी, गुवाहाटी और चेन्नई के 84 फ्लैटों को बेचने के लिए भी अखबारों के जरिए निविदा आमंत्रित की गई है. विचित्र विरोधाभास है कि एक तरफ सिडबी के अधिकारियों को रहने के लिए बाहर के भवन महंगे किराए पर दिए जा रहे हैं जबकि दूसरी तरफ सिडबी अपने ही फ्लैट्स धड़ाधड़ बेच रही है. सिडबी के क्लास-4 कर्मचारियों के लिए लखनऊ के इंदिरा नगर सेक्टर-21 में मुख्य सड़क के किनारे बने आठ फ्लैट्स औने-पौने दाम पर बेचे जा रहे हैं, जिनकी बाजार में कीमत बहुत ज्यादा है. स्वाभाविक है कि हल्के दाम पर फ्लैट्स बेचे जाने के पीछे की ‘प्राप्ति’ भारी होगी. सिडबी के शीर्ष प्रबंधन के पास सरकारी प्रावधानों का बहाना भी है. सरकारी खरीद-फरोख्त में फ्लैटों को बाजार-मूल्य पर न बेच कर डेप्रीशिएटेड-प्राइस (घटी दर पर) बेचे जाने का प्रावधान परदे के पीछे भारी कमाई का रास्ता खोलता है. वाराणसी कैंट स्टेशन के सामने सिगरा मोहल्ले में स्थित सिडबी के छह में से दो फ्लैट इसी तरह औने-पौने दाम पर बेच डाले गए. फ्लैट्स बिकने से वाराणसी में सिडबी का गेस्ट हाउस बंद हो गया. अब वाराणसी जाने वाले अधिकारियों को होटल में ज्यादा पैसे देकर ठहराया जाता है. सिडबी के अधिकारियों-कर्मचारियों के लिए बने उत्तर प्रदेश के सारे गेस्ट हाउस बारी-बारी से बंद किए जा रहे हैं, ताकि उन्हें बेचा जा सके या उनसे किराया कमाया जा सके. वाराणसी का एक और लखनऊ के दो गेस्ट हाउस बंद हो चुके हैं.

सारी हदें पार कर रही हैं चेयरमैन की मनमानियां
सिडबी के चेयरमैन मोहम्मद मुस्तफा की मनमानी सारी हदें पार कर रही हैं. मुस्तफा उत्तर प्रदेश कैडर के आईएएस अफसर हैं. केंद्र की प्रतिनियुक्ति पर अगस्त 2017 में वे सिडबी के अध्यक्ष एवं प्रबंध निदेशक बने. इन नौ महीनों में सिडबी को खोखला करने के ऐतिहासिक कारनामे हुए, जिनकी कुछ बानगियां आपने ऊपर देखीं. केंद्र सरकार खुद ही इतनी अराजक है कि बैंकों और वित्तीय संस्थानों में विशेषज्ञ बैंकर को अध्यक्ष न बनाकर आईएएस अफसरों को बिठा रही है. आईएएस अफसर अपना निर्धारित कार्यकाल पूरा कर भाग जाते हैं और अपने पीछे भ्रष्टाचार, अराजकता और कुसंस्कार छोड़ जाते हैं. सिडबी में चेयरमैन मोहम्मद मुस्तफा की मनमानी यहां तक है कि उन्होंने सिडबी के अर्थशास्त्री (इकोनोमिस्ट) रवींद्र कुमार दास के होते हुए 60 लाख सालाना मानदेय पर चीफ इकोनॉमिस्ट पद पर भर्ती के लिए विज्ञापन निकाल दिया. सिडबी की वेबसाइट पर यह विज्ञापन एक अप्रैल 2018 को जारी हुआ. दो मई आवेदन दाखिल करने की आखिरी तारीख थी. सिडबी में पहले इकोनॉमिस्ट कैडर (संवर्ग) के अधिकारियों की भर्ती गई थी और इस संवर्ग में एक मुख्य महाप्रबंधक, दो महाप्रबंधक, एक उप महाप्रबंधक और एक सहायक महाप्रबंधक स्तर के अधिकारी कार्यरत थे. लेकिन इस कैडर को खत्म करके इसे सामान्य संवर्ग में डाल दिया गया. ऐसे में अलग से ‘चीफ इकोनॉमिस्ट’ नियुक्त करने का क्या औचित्य है? यह सवाल सिडबी के गलियारे में गूंज रहा है. इकोनॉमिस्ट पद पर बहाल हुए तमाम अधिकारियों से सिडबी सामान्य काम ले रही है, फिर ‘चीफ इकोनॉमिस्ट’ की भर्ती क्यों की जा रही है? इस समय सिडबी में अर्थशास्त्र में एमए पास अधिकारियों की तादाद दो दर्जन से अधिक है. सिडबी का शीर्ष प्रबंधन अर्थशास्त्र के इन जानकार अधिकारियों से इकोनॉमिस्ट का काम क्यों नहीं ले रहा? इन सारे सवालों के जवाब के पीछे निरंकुशता और लोलुपता है.
चेयरमैन की निरंकुशता के खिलाफ सिडबी के अधिकारियों और कर्मचारियों में घोर नाराजगी है. चेयरमैन की राय के खिलाफ और संस्था के हित का पक्ष रखने वाले अधिकारी को फौरन स्थानांतरित कर दिया जाता है. नियमों के विपरीत अधिकारियों का आए दिन तबादला किया जा रहा है जिससे उनका परिवार परेशान हो रहा है. नियम यह है कि सिडबी के किसी अधिकारी को प्रधान कार्यालय से छह साल से कम समय में स्थानांतरित नहीं किया जा सकता. लेकिन इस नियम की धज्जियां उड़ाई जा रही हैं. ऐसे कई उदाहरण मिलेंगे जिसमें तीन-तीन साल में अधिकारियों के स्थानांतरण का तुगलकी फरमान थमाया गया. सरकारी बैठकों में अपनी स्वतंत्र राय रखने के कारण सिडबी के सतर्कता महकमे के उप महाप्रबंधक राजीव सूद का रातोरात पटना तबादला कर दिया गया. यही हाल मुकेश पांडेय का भी किया गया, क्योंकि पांडेय ने सिडबी के फ्लैट्स और कोठियां बेचे जाने के चेयरमैन के फैसले पर विरोध जताया था. इसके विपरीत जो अधिकारी या कर्मचारी चेयरमैन के चाटुकारों की जमात के हैं, उनका टेन्योर पूरा हो जाने के बावजूद उनका तबादला करने की कोई जुर्रत नहीं कर सकता.

सिडबी पर अंग्रेजियत हावी, हिंदी अफसरों को नहीं मिलती तरक्की
सिडबी के चेयरमैन मोहम्मद मुस्तफा पर अंग्रेजियत इतनी हावी है कि उनकी नजर में हिंदी अधिकारियों, विधि अधिकारियों और सूचना प्रौद्योगिकी के अधिकारियों की कोई औकात ही नहीं है. सिडबी के राजभाषा (हिंदी) अधिकारियों को तरक्की के अवसर नहीं दिए जाते. जबकि संसद की राजभाषा समिति और वित्त मंत्रालय खुद भी राजभाषा अधिकारियों को तरक्की का समान अवसर देने का निर्देश सिडबी प्रबंधन को देता रहा है, लेकिन सिडबी प्रबंधन सुनता ही नहीं. सिडबी में ऐसे तीन दर्जन से अधिक अधिकारी हैं, जिन्हें पिछले 10 साल से भी अधिक समय से कोई तरक्की नहीं दी गई. केंद्र सरकार के डीओपीटी विभाग की पदोन्नति नीति कहती है कि केंद्रीय कर्मचारी को अगर सामान्य रूप से पदोन्नति नहीं मिलती है तो उन्हें 10 साल में एक बार गारंटीशुदा पदोन्नति मिलेगी. यानि, पूरी सेवा अवधि में तीन बार तरक्की हर हाल में मिलेगी. लेकिन सिडबी प्रबंधन केंद्र सरकार की नीतियों की ही धज्जियां उड़ा रहा है. सिडबी के राजभाषा अधिकारियों, विधि और विशेषज्ञ संवर्ग के अधिकारियों ने अपनी तरक्की के लिए चेयरमैन के समक्ष कई बार आवेदन दिए, आवाज उठाई, लेकिन मुस्तफा ने उनकी एक नहीं सुनी. उल्टा मुस्तफा ने ऐसा तुगलकी फरमान जारी कर दिया जो विधि, राजभाषा, सूचना प्रौद्योगिकी जैसे विशेषज्ञीय पदों पर काम करने वाले अधिकारियों की पदोन्नति का रास्ता रोकता है. फरमान में कहा गया है कि जो अधिकारी विशेषज्ञ कैडर से सामान्य कैडर में विलीन होने के लिए तैयार हों उन्हें ही तरक्की मिलेगी, अन्यथा उन्हें उसी पद पर रिटायर हो जाना पड़ेगा जिस पर उनकी नियुक्ति हुई थी. मुस्तफा का यह आदेश संविधान का खुला उल्लंघन है. चेयरमैन को विशेषज्ञता से कितनी एलर्जी है, यह उनके अहमकी फरमान से पता चलता है. मुस्तफा और उनके चाटुकार अफसरों के इस रवैये के खिलाफ सिडबी के 84 विशेषज्ञ अधिकारियों ने मुम्बई हाइकोर्ट में मुकदमा दाखिल किया है. हाईकोर्ट ने 27 मार्च 2018 को सिडबी को यह निर्देश भी दिया कि जो अधिकारी वर्ष 2017 में पदोन्नति के पात्र थे उन्हें पदोन्नत करके हाईकोर्ट को छह सप्ताह के भीतर सूचित करे. लेकिन, नियम-कानून को ठेगा दिखाने वाले मुस्तफा मुम्बई हाईकोर्ट का आदेश क्यों मानने लगे! सिडबी के अधिकारी अब अपने ही चेयरमैन के खिलाफ अदालत की अवमानना का मुकदमा ठोकने की तैयारी कर रहे हैं.

मुम्बई में मुस्तफा किसके लिए लीज़ पर ले रहे हैं शाही कोठी ?
सिडबी ने मुम्बई में समुद्र के किनारे शाही कोठी लीज़ पर लेने के लिए टेंडर आमंत्रित किया है. प्रकाशित विज्ञापन में कहा गया है कि शाही कोठी मुम्बई के वरली, बांद्रा, कार्टर रोड या बैंड स्टैंड में समुद्र के सामने हो. शर्त यह है कि जहां कोठी हो, वहां बारिश के समय पानी नहीं जमता हो और ट्रैफिक जाम कभी नहीं होता हो. कोठी के साथ नौकरों के रहने की भी अलग व्यवस्था हो. इसके अलावा कोठी में 24 घंटे बिजली आपूर्ति की गारंटी, पावर बैकअप, लाइट-पंखे-एसी-गीजर के लिए समुचित पावर कनेक्शन और आंतरिक सभी साज-सज्जा से सुसज्जित हो. आप विज्ञापन देखेंगे तो आपको लगेगा कि यह शाही कोठी किसी अरब शेख या बड़े पूंजीपति के स्वागत के लिए किराए पर ली जा रही है. इसका किराया कितना होगा, इसके बारे में आपको कुछ बताने की जरूरत नहीं और यह बताने की जरूरत भी नहीं कि इतनी महंगी कोठी धनपशु अरब शेख या पूंजीपति के बार-बार आने और उनका बार-बार स्वागत करने के इरादे से ही ली जा रही होगी. देश के धन पर नौकरशाहों की ये अय्याशियां मोदी सरकार की ईमानदारी की कैसी सनद हैं, इसे समझना मुश्किल है...

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