Friday 21 April 2017

माँ..! तुम आती नहीं हो क्यों..?

मित्रो! असीम तनाव के क्षण में मन ही मन अपनी मदर-इंडिया को गले से लगाए मैं भूपेन हजारिका का मशहूर गीत ‘गंगा बहती हो क्यों’ सुन रहा था कि अचानक खटका लगा. जहां यह पंक्ति आती है, ‘निर्लज्ज भाव से बहती हो क्यों’... इस पंक्ति में मुझे ‘निर्लज्ज’ शब्द आपत्तिजनक लगा. ऐसे शब्द के चयन के लिए मैंने मन ही मन रचनाकार को कोसा और गीत सुनना बंद कर दिया. उसी शिल्प में अपनी गंगा-सरस्वती जैसी माँ के लिए कुछ पंक्तियां लिख गईं... इसे ‘मित्रों के चेहरे वाली किताब’ या अपने ब्लॉग के खुले पन्नों पर रखते हुए यह भी बालसुलभ-विश्वास अंदर में रहता है कि मेरी मदर-इंडिया भी कहीं इन पंक्तियों को पढ़ रही होंगी...
माँ..! तुम आती नहीं हो क्यों..?
व्यथा है अपार, क्यों छोड़ गईं इस पार,
हृदय करे चीत्कार, ऐसी तो निःशब्द नहीं थी तुम..!
फिर चुप्पी साधे, निरपेक्ष भाव से, द्रष्टा बनी हो क्यों..!
माँ..! तुम आती नहीं हो क्यों..?
जीवितता सब नष्ट हुई, कड़ियां सब पथ भ्रष्ट हुईं
क्यों सांस अटकती पल प्रतिपल, जब प्राणवायु में बहती थी तुम..!
प्राणतल करता मेरा हुंकार, क्यों सुनती नहीं पुकार,
तुम निर्मल गंगा की धार, मातृत्व तुम्हारा अपरंपार,
फिर निर्लिप्त भाव से कैसे निस्पृह बहती चली गई माँ तुम..!
 ठहर गया सब जैसा-तैसा, बिखर गया अस्तित्व ही सहसा,
निष्प्राण सहित, व्यक्तित्व रहित मैं ढोता अपना जीवन,
मैं शून्य हुआ, दिख रहा जगत सब अर्थहीन, निर्जीवन।
मैं था फूहड़-फक्कड़, धूसर-धक्कड़, तुमने हृदय लगाया,
मेरे जैसे नामुराद को तुमने इतना क्यों दुलराया..!
तुम्हीं प्रेरणा प्राणों की, तुम्हीं हो ऊर्जा भावों की,
तुम हो मेरी एक ही श्रद्धा, तुम मेरी इकलौती पूजा।
तुम्हीं से श्री और तुम्हीं पर इति है मेरी भक्ति, तुम्हीं से जाग्रत मेरी शक्ति,
तुम्हीं हो दुर्गा, तुम्हीं सरस्वती, मेरे अक्षर में, शब्द-शब्द में तुम्हीं लरजती,
मेरी आंखों के रस्ते से ये गंगा जमुना धार बरसती, तेरे चरण पखरती।
तुम हाथ छुड़ा कर चली गई खुद देव लोक में,
मैं छूट गया विद्रूप नरक में, प्रबल शोक में,
प्राणतल करता मेरा हुंकार, क्यों सुनती नहीं पुकार..!
माँ..! तुम आती नहीं हो क्यों..?
माँ..! तुम आती नहीं हो क्यों..?

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