आज़ादी के टुकड़े खाने की भेड़ियाई भूख... जारी है
लोकसभा चुनाव अब अपने आखिरी चरण में है। एक जून को वह भी पूरा हो जाएगा। जैसे ही चुनाव की सुगबुगाहट शुरू हुई थी, उसके साथ ही बेमानी बुदबुदाहाटें भी शुरू हो गई थीं... वह क्रमशः शोर में तब्दील होती गईं, जैसे जैसे चुनाव नजदीक आता गया और मतदान की प्रक्रिया में प्रवेश करता गया, वातावरण को प्रदूषित करने के स्तर तक शोर बढ़ता गया। इस दरम्यान देश और लोकतंत्र को लेकर कहीं भी आपने कोई मौलिक चिंता देखी या सुनी? न बड़े स्वनामधन्य नेताओं के मुंह से सुनी, न बड़े आत्मरति ग्रस्त मीडियाई अभिनेताओं के मुंह से सुनी।
आपने अपने देश और अपने लोकतंत्र के भूत वर्तमान भविष्य के बारे में जरूर सोचा होगा, लेकिन आम आदमी के पास अभिव्यक्ति का माध्यम ही क्या है? आधुनिक काल में सोशल मीडिया का मंच है, पर उसका प्रपंच आम आदमी जानता नहीं, इसलिए उस मंच पर निम्न कोटि के प्रायोजित प्रहसन उच्च संख्या-कोटि के प्रायोजित दर्शक और श्रोता बटोरते हैं। ...और जनता का मुख-पत्र बनने के मूल उद्देश्य से स्थापित हुए अखबारों और चैनेलों तक आम आदमी की पहुंच कितनी है, इसे हम आप अच्छी तरह जानते हैं। मीडिया प्रतिष्ठान भी राजनीतिक पार्टी की तरह आम आदमी को बेचते हैं, सत्य और इमानदारी का बिक्री-बट्टा करते हैं, नेताओं और सामर्थ्यवानों की दलाली करते हैं और मेरी कमीज तेरी समीज करते रहते हैं। विचारवान देश की यह दुर्गति है। कोई कुछ भी बोल रहा है। कोई परहेज नहीं, कोई वर्जना नहीं। कोई विदूषक की तरह आरोप पर आरोप का हास्य सृजित कर रहा है। अनर्गल प्रलाप कर रहा है। भ्रष्टाचार में पगा कोई नेता भ्रष्टाचार रोकने के जुगत बता रहा है। कोई घर में नारी को पीट रहा है और सड़क पर नारी को पूजने का तमाशा रच रहा है। कोई देश की पीढ़ियों को स्वावलंबी और आत्मनिर्भर होने के बजाय उसे आरक्षण देकर आत्मपंगु बनाने की घोषणाएं कर रहा है। देश के आत्मनिर्भर होने और पीढ़ियों के आत्मपंगु होने का अजीबोगरीब विरोधाभास परोस रहा है। चारा हजम करने वाला चारागर बना ताल ठोक रहा है, तो कोई उसी निकृष्ट विरासत पर अघा रहा है। अपने बुजुर्गों को अपमानित कर पद छीनने वाला आचार और नैतिकता पर गाल बजा रहा है। कोई भद्र महिला पूरे देश की सुन्नत कराने की अभद्रता पर आमादा है। कोई धर्म के आधार पर केवल मुसलमानों में आरक्षण बांट दे रहा है। नौकरी है नहीं, आरक्षण बंट रहा है। जातिवाद समाज का नासूर है का उपदेश देने वाले जाति पर वोट मांग रहे हैं। ठीक वैसे ही जैसे शराब पीना बुरी आदत है, कह कर सरकारें बेपनाह शराब बेचती हैं। भारत विरोधी विदेशी शक्तियों से धन लेकर कोई देश के खिलाफ जहर उगलकर भी शरमा नहीं रहा। कोई धर्मनिरपेक्षता, प्रगतिशीलता, बुद्धिजीविता का कोठा खोले बैठा है तो कोई मोहब्बत की दुकान से षडयंत्र का ड्रग्स बेच रहा है। कोई गिनती में ही लगा पड़ा है। कभी इधर की संख्या बढ़ा देता है तो कभी उधर की। मीडिया के विचार-कोष में केवल संख्या ही अंटती है, वह सिक्कों की संख्या हो या सीटों की। ...तो यह है देश के वैचारिक परिदृश्य का संक्षिप्त शब्द-कोलाज़...
दृश्य दो... कृपया वीडियो देखें
लोकसभा चुनाव अब अपने आखिरी चरण में है। एक जून को वह भी पूरा हो जाएगा। जैसे ही चुनाव की सुगबुगाहट शुरू हुई थी, उसके साथ ही बेमानी बुदबुदाहाटें भी शुरू हो गई थीं... वह क्रमशः शोर में तब्दील होती गईं, जैसे जैसे चुनाव नजदीक आता गया और मतदान की प्रक्रिया में प्रवेश करता गया, वातावरण को प्रदूषित करने के स्तर तक शोर बढ़ता गया। इस दरम्यान देश और लोकतंत्र को लेकर कहीं भी आपने कोई मौलिक चिंता देखी या सुनी? न बड़े स्वनामधन्य नेताओं के मुंह से सुनी, न बड़े आत्मरति ग्रस्त मीडियाई अभिनेताओं के मुंह से सुनी।
आपने अपने देश और अपने लोकतंत्र के भूत वर्तमान भविष्य के बारे में जरूर सोचा होगा, लेकिन आम आदमी के पास अभिव्यक्ति का माध्यम ही क्या है? आधुनिक काल में सोशल मीडिया का मंच है, पर उसका प्रपंच आम आदमी जानता नहीं, इसलिए उस मंच पर निम्न कोटि के प्रायोजित प्रहसन उच्च संख्या-कोटि के प्रायोजित दर्शक और श्रोता बटोरते हैं। ...और जनता का मुख-पत्र बनने के मूल उद्देश्य से स्थापित हुए अखबारों और चैनेलों तक आम आदमी की पहुंच कितनी है, इसे हम आप अच्छी तरह जानते हैं। मीडिया प्रतिष्ठान भी राजनीतिक पार्टी की तरह आम आदमी को बेचते हैं, सत्य और इमानदारी का बिक्री-बट्टा करते हैं, नेताओं और सामर्थ्यवानों की दलाली करते हैं और मेरी कमीज तेरी समीज करते रहते हैं। विचारवान देश की यह दुर्गति है। कोई कुछ भी बोल रहा है। कोई परहेज नहीं, कोई वर्जना नहीं। कोई विदूषक की तरह आरोप पर आरोप का हास्य सृजित कर रहा है। अनर्गल प्रलाप कर रहा है। भ्रष्टाचार में पगा कोई नेता भ्रष्टाचार रोकने के जुगत बता रहा है। कोई घर में नारी को पीट रहा है और सड़क पर नारी को पूजने का तमाशा रच रहा है। कोई देश की पीढ़ियों को स्वावलंबी और आत्मनिर्भर होने के बजाय उसे आरक्षण देकर आत्मपंगु बनाने की घोषणाएं कर रहा है। देश के आत्मनिर्भर होने और पीढ़ियों के आत्मपंगु होने का अजीबोगरीब विरोधाभास परोस रहा है। चारा हजम करने वाला चारागर बना ताल ठोक रहा है, तो कोई उसी निकृष्ट विरासत पर अघा रहा है। अपने बुजुर्गों को अपमानित कर पद छीनने वाला आचार और नैतिकता पर गाल बजा रहा है। कोई भद्र महिला पूरे देश की सुन्नत कराने की अभद्रता पर आमादा है। कोई धर्म के आधार पर केवल मुसलमानों में आरक्षण बांट दे रहा है। नौकरी है नहीं, आरक्षण बंट रहा है। जातिवाद समाज का नासूर है का उपदेश देने वाले जाति पर वोट मांग रहे हैं। ठीक वैसे ही जैसे शराब पीना बुरी आदत है, कह कर सरकारें बेपनाह शराब बेचती हैं। भारत विरोधी विदेशी शक्तियों से धन लेकर कोई देश के खिलाफ जहर उगलकर भी शरमा नहीं रहा। कोई धर्मनिरपेक्षता, प्रगतिशीलता, बुद्धिजीविता का कोठा खोले बैठा है तो कोई मोहब्बत की दुकान से षडयंत्र का ड्रग्स बेच रहा है। कोई गिनती में ही लगा पड़ा है। कभी इधर की संख्या बढ़ा देता है तो कभी उधर की। मीडिया के विचार-कोष में केवल संख्या ही अंटती है, वह सिक्कों की संख्या हो या सीटों की। ...तो यह है देश के वैचारिक परिदृश्य का संक्षिप्त शब्द-कोलाज़...
दृश्य दो... कृपया वीडियो देखें